धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
राजीव के स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक रूप से सुधार होने लगा था. डॉ० गुप्ता के कहने पर संध्या उसे फलों के जूस के अतिरिक्त दलिया, दूध और ब्रेड भी देने लगी थी. अब उसका शरीर और गाल भरा-भरा सा लगने लगा. आंखें जो पहले कटोर में धंसी हुई सी नजर आया करती थी, अब अपने स्थान पर आ चुकी थी. आश्चर्य जनक रूप से राजीव के शरीर में आये इस परिवर्तन को देखकर नर्स के साथ साथ शान्ति और माधव भी चकित था. नर्स तो सचमुच ही संध्या को कोई देवी मान बैठी. डा० गुप्ता और सेठ द्वारिका दास कई दिनों से फार्महाउस में नहीं आए थे. शारदा देवी भी अपने समाज सेवा में व्यस्त थी. उस दिन डा० गुप्ता अचानक ही आ गये. दोपहर का समय था. वे सबसे पहले आईसीयू में गये. राजीव पर नजर पड़ते ही खुशी के मारे वे उछल पड़े. पहली नजर में तो वे राजीव को पहचान ही न पाये. जब उन्हें विश्वास हो गया कि यही राजीव है, तब वे मन ही मन संध्या को धन्यवाद देने लगे. आईसीयू से निकल कर वे संध्या के कमरे के सामने आकर खड़े हो गये.
"संध्या बेटी." द्वार पर से ही उन्होंने पुकारा. उनकी आवाज सुनकर संध्या चौंक पड़ी और संभल कर बैठती हुई बोली -"मैं जग रही हूं अंकल आप अंदर आ जाइए."
डा० गुप्ता जैसे ही अंदर आए कि संध्या झट से उनके कदमों में झुक गयी.
"अरे रे रे, यह क्या कर रही हो." गुप्ता जी ने बीच में ही उसे थाम लिया -"तुम तो हमलोगों के लिए महादेवी बन चुकी हूं."
"अंकल मुझे अपने से इतनी दूर मत कर दीजिए कि मैं दुवारा आपलोगों से मिल ही न सकूं."
"कितनी दूर...?"
"उतनी दूर.!" आकाश की ओर इशारा करती हुई वह हंस पड़ी.
"देखो बेटी." गुप्ता जी गंभीर हो गये -"आज मैं तुम से कुछ जरूरी बातें करने आया हूं."
"कैसी बातें अंकल?" संध्या भी संजिदा हो गयी.
"इसमें कोई शक नहीं कि तुम राजीव को नयी जिन्दगी देने में कामयाब हो चुकी हो. इसके प्रति तुमने जो आत्मीयता दिखाई, निर्लिप्त भाव से इसकी सेवा सुश्रुषा में जुट गई, इसी भाव ने राजीव को तुम्हारी ओर आकृष्ट किया. मैं समझता हूं कि यह लड़का अब अचेतावस्था से बाहर निकल चुका है. इसकी संवेदना तो जग चुकी है, परंतु वह प्रभावी तब हो पाएगा जब इसकी आंखों से आंसू बहेंगे."
"आंसू.....?" संध्या चकित भाव से उनकी ओर देखने लगी.
"हां, आंसू. जब से राजीव इस अवस्था में पहुंचा है तब से ही इसकी आंखों से आंसू नहीं बहे हैं. आंसू का संवेदना यानी सेंसिटिविटी से गहरा संबंध होता है. जिसके हृदय में संवेदना नहीं होती उसकी आंखों में आंसू भी नहीं हुआ करते. ऐसे ही व्यक्ति को हृदयहीन यानी पत्थर दिल कहा जाता है. एक बात और, संवेदना के साथ साथ इसके शरीर में उत्तेजना भी उत्पन्न होनी चाहिए. उत्तेजना के उत्पन्न होने से शरीर की मांसपेशियां सक्रिय होंगी. इसके शरीर में उत्तेजना उत्पन्न करने का दुस्साहसिक काम तुम्हें ही करना होगा. क्योंकि अचेतावस्था में भी यह सूक्ष्म अनुभूतियों द्वारा तुम्हारे साथ भावनात्मक रूप से जुड़ चुका है." संध्या डा० गुप्ता की एक एक बात को किसी जिज्ञासु छात्रा की तरह आत्मसात करती जा रही थी. "मगर एक बात जान लो, ऐसा करते समय कुछ अप्रत्याशित भी घट सकता है "
"मतलब.?"
"इसका मतलब बताने से पूर्व मैं तुमसे एक व्यक्तिगत प्रश्न करना चाहूंगा, यदि तुम अन्यथा ना लो तो?" गुप्ता जी की गहरी नज़र संध्या के चेहरे पर टिक गई.
"जी पूछिए, मैं बुरा नहीं मानूंगी." संध्या नि: संकोच भाव से बोली.
"क्या तुम निश्चित रूप से पूर्ण कुमारी हो." इस प्रश्न को सुनकर संध्या कुछ पल के लिए सकपका गई, परंतु शीघ्र ही संभल गई और पूरी दृढ़ता से बोली -
"हां अंकल मैं शपथ पूर्वक कहती हूं कि मैं अक्षत यौवना यानी चिर कुमारी हूं." संध्या का दृढ़ स्वर और सत्य वचन सुनकर डा० गुप्ता असमंजस में पड़ गये.
"आप चुप क्यों हो गये अंकल.?"
"राजीव में उत्तेजना उत्पन्न करते समय यदि कोई अनहोनी घटना.....!"
"अनहोनी घटना से आपका तात्पर्य क्या है?" गुप्ता जी को बीच में ही रोककर संध्या बोल पड़ी.
"उसमें उत्तेजना उत्पन्न करते समय हो सकता है उसके साथ तुम्हारा शारीरिक संबंध बन जाए, अथवा वह तुम्हारे साथ शारीरिक संबंध स्थापित करने हेतु जोर-जबरदस्ती करे, उस अवस्था में तुम क्या करोगी, क्या उसे रोक दोगी?"
"नहीं.... नहीं रोकूंगी. यदि मैंने रोका तब उसे मानसिक आघात पहुंचेगा और हो सकता है वह पुनः कोमा में चला जाए. फिर मेरे इस त्याग-तपस्या का मतलब ही क्या रह जाएगा. संध्या की बातें सुनकर डा० गुप्ता दंग रह गये. अपने अबतक के जीवन में उन्होंने ऐसी जीवट वाली लड़की नहीं देखी थी.
"याद है संध्या, तुमने मुझे एक दिन कहा था कि तुम गुलाब बाई के कोठे से इसलिए भाग रंगयी कि वह तुम से देहव्यापार करवाना चाहती थी. और आज तुम स्वेच्छा से किसी के साथ.....!"
"अंकल पहले आप इस सच्चाई को समझ लीजिए कि देहव्यापार और देवार्पण दो अलग अलग अवस्थाएं हैं. हालांकि दोनों की क्रियाएं एक ही है फिर भी दोनों का भाव अलग-अलग हैं. देहव्यापार करने वाली स्त्रियां अनेक तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरती हैं. बाहर से भले ही वे जितनी भी खुश दिखे, मगर दिल ही दिल में खून के आंसू रोया करती हैं, जबकि स्वेच्छा से देवार्पण करने वाली स्त्रियों के साथ ऐसा नहीं होता. उनके द्वारा स्थापित किये जा रहे शारीरिक संबंध में समर्पण का भाव होता है. उस भाव में कुछ लेने की चाहत नहीं होती बल्कि कुछ देने की अभिलाषा होती है."
"तुम बहुत ही गूढ़ बातें करती हो संध्या. जो सुनने में तो अच्छी लगती है परंतु प्रैक्टिकली ऐसी बातें दुखदाई ही होती है."
"मैं आपका आशय नहीं समझ पायी."
"मान लो राजीव को देवार्पण करने के पश्चात तुम प्रिग्नेन्ट हो गयी, तब क्या होगा.? क्या तुम समझती हो कि ऐसी स्थिति में सेठ द्वारिका दास तुम्हें अपने आला खानदान की बहू बना लेंगे.? यदि तुम्हें इस तरह का वहम है तो इस वहम को अपने मन से निकाल दो. सेठ द्वारिका दास को जितना तुम जानती हो, उससे अधिक मैं जानता हूं."
"आप हा हा हा....!" संध्या जोरदार ठहाका लगाने लगी. गुप्ता जी चकित भाव से उसे घूरने लगे. कुछ देर तक हंसते रहने के पश्चात वह बोली -"एक बात कहूं अंकल, बुरा मत मानिएगा. आप जितने काबिल डाक्टर हैं, आपकी सोच उतनी ही संकीर्ण है. जिस बात की मैंने कल्पना तक भी न की थी, वैसी दकियानूसी बात आपने सोचा कैसे. मैंने कभी भी यह नहीं सोचा है कि मैं किसी बड़े घर की बहू बनूंगी. मैं अपनी हैसियत बखूबी समझती हूं. अब रही प्रिग्नेन्ट होने की बात, तो अबल तो ये कि ऐसा कुछ होगा नहीं, खुदा न खास्ते ऐसा कुछ हो भी गया तो किसी मगरुर इंसान के समकक्ष गिड़गिड़ाने की बजाए खुद के अस्तित्व को मिटा देना ही मैं पसंद करूंगी."
"वाह.... बहुत खूब." डा० गुप्ता प्रसन्नता से झूम उठे -"तुम्हारी यह दिलेरी मुझे पसंद आयी. अच्छा अब मैं चलता हूं, तुम अपना ख्याल रखना." गुप्ता जी तेजी से बाहर निकल गये. अपनी दिलेरी का परिचय तो संध्या ने दे दिया, परंतु अंदर ही अंदर किसी भावी आशंका से वह सहम गई, इसमें दो मत नहीं
*****
नर्स ने दो दिनों की छुट्टी ले ली थी. इसलिए उसके हिस्से का काम भी संध्या को ही करना पड़ रहा था. राजीव को लंच कराने के बाद संध्या उसके वेड के पास ही एक कुर्सी पर बैठ गयी. उसने आज राजीव को बाईं करवट लिटा दिया था. वह एकटक राजीव की ओर ही देख रही थी. राजीव की आंखें भी उस पर ही टिकी हुई थी. संध्या को आभास हुआ जैसे राजीव आंखों ही आंखों में उसे धन्यवाद दे रहा हो. तभी अचानक आईसीयू का द्वार फटाक की तीखी आवाज के साथ खुल गया और रौद्र रूप धारण किये हुई शारदा देवी अंदर प्रविष्ट हुई. उनके इस रौद्र रूप का कारण संध्या अभी समझ पाती कि वे तेजी से उसके करीब आकर उसकी कलाई पकड़ ली और बेहद कर्कश स्वर में उसे अपशब्द कहती हुई घसीटने लगी -"कुलटा, बेहया मैंने तुम्हें मना किया था न, फिर तुम राजीव के पास क्यों आयी.? चल निकल यहां से." संध्या शारदा देवी की ऐसी तीखी बातें सुनकर तथा उनका रौद्र रूप देखकर एकदम से नर्वस हो गयी और बिलख बिलख कर रोती हुई विनती करने लगी -"नहीं बुआ जी ऐसा अनर्थ मत कीजिए. मैं अनाथ हूं, इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है. मैंने राजीव बाबू की सेवा करने का व्रत लिया है. मुझे इनकी सेवा करने दीजिए."
"चल निकल यहां से, बड़ी आयी है सेवा करने वाली. तुम्हारी सारी चालाकी मैं समझ चुकी हूं."
"नहीं बुआ जी, मैं कोई चालाकी नहीं कर रही हूं. मेरी हालत पर तरस खाइए. दया कीजिए मुझ बदनसीब पर." वह अपने आंसुओं से बुआ जी के चरण धोने लगी."
"चुप चुड़ैल, तुम्हारे इस रोने-धोने का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. अपना भला चाहती है तो चुपचाप निकल जा यहां से, वरना गार्ड्स को बुलवाकर इतना पीटवाऊंगी तुम्हें कि तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएंगे." उसी समय शान्ति और माधव के साथ ड्यूटी पर तैनात सभी गार्ड अंदर आ गये. संध्या पर शारदा देवी द्वारा ढ़ाए जो रहे इस जुल्मों-सितम सितम को देखकर सभी किंकर्तव्यविमूढ़ की सी हालत में पहुंच गए. उनकी समझ में नहीं आया कि आखिर बुआ जी संध्या पर ऐसा अत्याचार क्यों कर रही हैं.? शान्ति से बर्दाश्त न हुआ वह तेजी से उन दोनों के करीब आ गई और शारदा देवी की कलाई थाम कर उबल पड़ी -
"बुआ जी, छोड़िए संध्या को, बड़े मालिक ने इसे यहां रखा है, आप निकालने वाली कौन होती हैं.?"
"हें..... तुम्हारी इतनी हिम्मत." शारदा देवी अपनी आंखें तरेरीती हुई संध्या को छोड़कर शान्ति पर टूट पड़ी. -"मेरी नौकरानी होकर मुझसे जुबान लड़ाती है." वे लात-घूंसों से, शान्ति को धुनने लगी. उधर संध्या शारदा देवी की गिरफ्त से मुक्त होने के बाद राजीव के करीब आ गयी और फूट फूटकर रोती हुई उससे विनती करने लगी -"देखिए न राजीव बाबू, बुआ जी मुझे यहां से निकाल रहीं हैं. मेरा इस दुनिया में सिवा आपके कोई नहीं है. मैं कहां जाऊंगी.?" अचानक राजीव की गर्दन संध्या की ओर मुड़ गयी और वह एकटक उसे देखने लगा. शारदा देवी शान्ति को छोड़कर संध्या के निकट आ गयी और रौद्र रूप धारण करती हुई पुनः संध्या को घसीटने लगी. माधव और गार्ड्स अभी तक उसी अवस्था में खड़े थे. उनमें इतनी हिम्मत न थी कि वे लोग शारदा देवी के इस अत्याचार का विरोध कर पाते. शारदा देवी की मार से शान्ति बेदम होकर फर्श पर पड़ी थी और संध्या रोती हुई गुहार लगा रही थी. तभी राजीव के मुंह से घुटी हुई सी चीख निकल पड़ी -"न....हीऽऽऽऽ" सभी चौंक पड़े और आश्चर्य से राजीव की ओर देखने लगे. राजीव की आंखों में लाल डोरे खींच आए थे. ऐसा लग रहा था जैसे उसकी आंखों में खून उतर आया हो. वह अपनी खूनी आंखों से शारदा देवी ’‹;;¡!ऐसे घूरने लगा, जैसे वह उनका कत्ल कर देता. वह अपने दोनों हाथों को उठाने की भी कोशिश करने लगा परंतु उठा न पाया. इस कोशिश में उसकी आंखों से आंसू बहने लगे. अब वह कातर दृष्टि से संध्या की ओर देख रहा था, जैसे कहना चाह रहा हो -"मुझे छोड़ कर मत जाना संध्या." संध्या उसके पास बैठ गयी और अपने आंचल से उसके आंसू पोंछती हुई बोली -"मैं कहीं नहीं जाऊंगी राजीव बाबू, यहीं रहूंगी." तभी ताली बजाते हुए डा० गुप्ता अंदर प्रविष्ट हुए और शारदा देवी के निकट आकर हर्षित स्वर में बोल पड़े -"शारदा बहन इस शानदार एक्टिंग के लिए आपको ऑस्कर पुरस्कार मिलना चाहिए."
"नहीं भैया, पुरस्कार की हकदार तो संध्या बेटी है, जिसने एक मुर्दा के जिस्म में जान डाल दी." शारदा देवी स्नेह से संध्या का बाल सहलाने लगी.
"बुआ जी, राजीव बाबू को नयी जिन्दगी देने में आप सभी लोगों का सहयोग."
"यह तुम्हारा बड़प्पन है संध्या जो तुम श्रेय लेना नहीं चाहती. एनीवे, आज फिर मैं तुम्हारे हाथ का चाय पीकर ही जाऊंगा."
"आप लोग डाइनिंग हॉल में बैठिये अंकल, मैं अभी चाय बनाकर लाती हूं."
"हे मेरे रामजी, यह लड़की बौरा गयी है का, शान्ति के रहते यह चाय बनाएगी."
"हंसती हुई शान्ति किचन की ओर दौड़ पड़ी उसके पीछे माधव भी भाग गया. दोनों गार्ड हतप्रभ से खड़े एक दूसरे का मुंह निहारने लगे. उनकी समझ में नहीं आया कि आखिर यहां हुआ क्या था.
"संध्या, बेटी मुझे माफ़ कर देना, इस ड्रामा में मुझे तुम्हारे साथ बदसलूकी करनी पड़ी." रं
"बुआ जी, नाटक में यह सब नहीं देखा जाता. क्यों अंकल मैं सच कह रही हूं न."
"एकदम सौ फीसदी सच "
सभी ठहाका मारकर हंस पड़े. संध्या को मुक्त भाव से हंसते देख राजीव की आंखों में एक अप्रतिम चमक उभर आई.
∆∆∆∆
क्रमशः.........!
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