मैं रवीन्द्र प्रभात हूँ। एक अदना सा साहित्यकार, चिट्ठाकार, कवि, गजलकार, लेखक आदि आदि, जिसका साहित्य जगत में वैसे तो कोई खास वजूद नहीं है, फिर भी लिखते रहने की छटपटाहट मुझे कभी साहित्य से इतर सोचने ही नहीं देती। क्या करूँ कुछ अलग सोचना फितरत जो बन चुकी है।
वैसे मेरी सोच किसी राजनेता, अभिनेता, वक्ता, धार्मिक कट्टरवादिता का अनुसरण नहीं करती अपितु वह केवल जमीनी हकीकत को पहचानती हुयी आंतरिक उथल-पुथल करती सीधे मस्तिस्क तक आकार मुझे खुद की परिभाषा गढ़ने के लिए मजबूर करती है। मेरी ही गजल के इस शेर को चरितार्थ करती हुई कहती है -
"किसी दरिया, किसी मझधार से नफरत नहीं करता, सही तैराक हो तो धार से नफरत नहीं करता। चलो अच्छा हुआ तूने बहारों को नहीं समझा, नहीं तो इसकदर पतझार से नफरत नहीं करता।"
बात 2005 की है, गूगल पर हिन्दी ब्लॉग लिखने की होड मची थी। मैंने भी "परिकल्पना" नाम से ब्लॉग लिखना शुरू किया, मगर मुझे क्या पता था की ब्लॉग का यह नाम यानी परिकल्पना मेरी सृजन यात्रा की एक मुकम्मल पहचान बन जाएगी। आज मुझसे ज्यादा मेरी परिकल्पना विख्यात है और मेरी पहचान परिकल्पना से होती है, जो हमारे लिए कम संतोष की बात नहीं है।
समय का पहिया घूमता रहा, चलता रहा और मैं इंसान के भिन्न-भिन्न वैचारिक आयाम के साथ कभी कवि, कभी विचारक, कभी उपन्यासकार, कभी व्यंग्यकार, कभी नेता, कभी शिक्षक, कभी रिसर्चर, कभी संयोजक और कभी सामान्य इंसान के रूप में परिवर्तित होता रहा..... मेरी जिज्ञासा हर विषय को जानने के लिए केवल जानकारी तक मोहताज होती रही है उसके वैचारिक आयाम मुझे कभी बांध नहीं पाये। यही कारण है कि मैं धर्म, जाति, भाषा जैसे संवेदनशील विषयों पर उदासीन दिखता रहा हूँ। क्या करूँ मैं ऐसा ही जो हूँ।
अभी हाल ही में डॉ॰ सियाराम की एक शोध पुस्तक आयी है "रवीन्द्र प्रभात की परिकल्पना और ब्लॉग आलोचना कर्म"। इस पुस्तक में भी मेरी पहचान परिकल्पना से करायी गयी है।
"परिकल्पना समय" का पहला अंक जून 2013 में प्रकाशित हुआ, तब से यह केवल प्रकाशन तक ही सीमित रहा। इस मासिक पत्रिका के कई महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुये।
पाठकों की मांग पर इसे अंतर्जाल पर लाने का फैसला किया गया, जो आपके समक्ष पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत है।
आपके निरंतर सहयोग-संपर्क के आकांक्षी
आपका-
रवीन्द्र प्रभात
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