पँजाब के शहर फिरोजपुर में जन्मीं लेखिका सुषम बेदी जी दिल्ली विश्वविद्यालय व पँजाब विश्वविद्यालय के बाद वर्तमान में न्यूयार्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्यापन के साथ-साथ लेखन में कार्यरत हैं । अब तक सुषम जी के आठ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं इसके साथ-ही-साथ इनके उपन्यासों के अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं जैसे फ्रेंच,अंग्रेजी,उर्दू,उड़िया,गुजराती व पँजाबी में भी हो चुके हैं lइनकी रचनाएँ विविध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे हंस,धर्मयुग,सारिका व नया ज्ञानोदय में छप चुकी हैं । इनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए इन्हें भारतीय साहित्य अकादमी,उत्तर प्रदेश हिन्दी अकादमी इत्यादि की ओर से सम्मानित किया गया है ।
प्रस्तुत है सुषम बेदी से की गई डॉ.प्रीत अरोड़ा की विशेष बातचीत ….
(1) प्रश्न–आपके लेखन की शुरुवात कैसे और कब हुई और आपका प्ररेणा –स्त्रोत कौन है ?
उत्तर —मुझे लगता है कि मेरा लेखिका होने मेरे में होने या उम्र का वह पड़ाव जब अपने होने के प्रति चेतना जगती है ,उसी क्षण से जुड़ा है .यूँ मेरा बचपन भी वैसा था कि होनहार बच्ची को देख कर कहा जाए कि यह बड़ी होकर डॉक्टर बनेगी .मेरी क्लास टीचर ने मुझे लाइब्रेरी से शरतचंद्र और टैगोर कि इलावा चतुर सेन शास्त्री का वैशाली की नगरवधू जैसे बड़े -बड़े उपन्यास दिलवाए जो मै खाली समय में पढ़ती थी .जब नवी जमात में पहुचीं और एक ओर अंग्रेजी के कवि वर्ड्सवर्थ ,शैली ,बायरन और दूसरी ओर हिंदी के कवियों प्रसाद पंत ,महादेवी ,निराला ,दिनकर ,माखनलाल चतुर्वेदी ,मैथिली शरण गुप्त आदि की कविताएँ क्लास में पढाई गयी तो मन में बहुत उत्साह और भीतर तक जैसे गुदगुदी सी मच गयी थी .मै तभी -तभी तेहरा बरस की पूरी हुई थी .तभी मेरा मैं मुझ में जगा था और मैंने पाया कि मै भी एक कापी मे कविताएँ लिखने लग गयी थी .ये कविताएँ तुकबंदी रही होगी या शायद मन की अस्पष्ट भावनाओं को प्रगट करने के अपरिपक्व प्रयास .यह भी याद है कि आधी छुट्टी मे मन मे भीतर ऐसा कुछ उमड़ -घुमड़ रहा होता कि खाना -पीना भूल कर मैं स्कूल की छत पर कोई अकेला कोना ढ़ूँढ़ अपनी कापी मे लिखने बैठ जाती .दसवी में पहुँचते-पहुँचते एक उपन्यास मन में तैयार हो गया था .किसी पर विश्वास भी नहीं जमता था और डर होता कि कही कोई खिली ही न उड़ा दे कि बड़ी चली उपन्यास लिखने .बहुत छुपा -छुपा के रखती बसते में .तब ख्याल भी न या होगा कि भविष्य मे सचमुच लेखिका बनने के सपने को ही पूरा करुँगी .
(2) प्रश्न–लेखन का आपके जीवन मे क्या महत्व है ?
उत्तर–मुझे लगता है कि मै आजकल लिखते हुए भी लगातार सीख रही हूँ .अपने लेखक मित्रों से या जो लेखक नहीं है .मै अपनी कहानियों भी तो अपने आसपास से उठाती रही हूँ .उसमे भी उन सब का योगदान रहा ही जो मेरे आसपास हैं .कभी कुछ ऐसा भी हुआ कि कुछ लोगों को मेरे लिखने पर आपत्ति हुई लेकिन बहुत सपष्ट रूपरेखाएँ कभी भी ऐसी नहीं थी कि कोई खुद को उसमे फिट कर पाता .मेरी लेखकीय कल्पना ने ही मेरा बचाव किया .लेखन मेरे लिये अब जीवन का पयार्य बन चुका है .मेरे सुखदतम क्षण वही होते हैं जबकि लिख रही होती हूँ.जिस दिन अच्छा लिख लेती हूँ, बहुत प्रसन्न चित रहती हूँ.जब नहीं लिख रही होती तो मन अशांत और उखड़ा रहता है.
(3)प्रश्न–आप किन साहित्यकार से प्रभावित हुई हैं ?
उत्तर–वे सब लेखक जिनको मैं पढ़तीं थी-कामू काफका सात्रर जैसे अस्तित्ववादी या अज्ञेय निमर्ल वर्मा राकेश यादव कमलेश्वर जैसे मध्य वर्ग की निराशाओं और मोहभंग का अकंन करने वाले.यही कुछ थाती मिली थी मुझे.यही सीख अगर भ्रष्टाचार है तो है,अनाचार है तो है,धाधंलेबाजी है तो है,कालाबाजारी है तो है,शरमनाक गरीबी है तो है,उसे हटाया या मिटाया नहीं जा सकता.उसके आगे आम आदमी लाचार है, कुछ नहीं कर सकता. कोई कोशिश करेगा तो वह भी मरेगा . ऐसी लाचारी ही प्रेमचंद के पात्रों में थी .गोदान का होरी हो या कफ़न का घीसू .मोहन राकेश का मलबे का मालिक हो या या एक और जिंदगी क केंद्रीय पातर ,मिस पाल हो या अँधेरे बंद कमरे का हरबंश या नीलिमा ,सभी जैसे निराशा और असहायता के अधेरे बंद कमरों मे घुटते हुए रहने को मजबूर हैं .नियति की बेड़ियों मे बंधे रहने को मजबूर .कमलेश्वर का मॉस का दरिया या निर्मल वर्मा के परिंदे की लतिका या हरिशंकर परसाई का भोलाराम का जीव .हर तरफ बेचारगी का अहसास .इंसान नियति के हाथों या अपने से ज्यादा ताकतवरों के हाथों मार ही खाता है .हर और से इंसानी मजबूरी कि कहानियाँ.यही मेरे समय का ,मेरे चेतन का ,मेरे कोशोर्ये काल का या कहूँ छठे दशक का यथार्थ था .जिन यूरोपीय और अमरीकी लेखकों को पढ़ा जैसे कि कामू ,सात्र ,पिंटर ,बैके आसबरन ,आयनेसको या टेनेसी विलियम्स आदि .उन्होंने भी जीवन की निरथकता ,और हालात के थपेड़ों मे चोट खाते इंसान की लाचारगी को ही रेखांकित किया . मतलब कि अपने समाज की अलोचना उसकी कमजोरियों का परदाफाश यानि कि इस नजरिये का विकास– यह सब इन का असर रहा होगा.
(4) प्रश्न–आप किन महिला रचनाकारों के लेखन से अत्यधिक प्रभावित हुई हैं ?
उत्तर–कृष्णा सोबती के लेखन से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ.उन्होंने बहुत पहले से औरत की जरूरतों ,उसकी आशा,आंकाक्षाओं के कहानियों के केन्द्र में रखा है.वे सहज नारी की हमदर्द लेखिका हैं. राजी सेठ के लेखन की बारीकी भी मुझे परभावित करती है.
(5) प्रश्न—–आपको साहित्य की कौनसी विधा सर्वाधिक प्रिय है ?
उत्तर—मेरे लिए साहित्य की निकटतम विधा कहानी ही है .कहानी कहने और सुनने में जो एक आदिम तृप्ति है वह मुझे बहुत मोह लेती है . बचपन में मुझे कहानियाँ सुनने का बहुत शौक था. खूब किताबें पढती थी. अब भी दुनिया भर के लेखकों की कहानियां पढने में सुख मिलता है. यूं जितना चाहती हूं उतना पढ नहीं पाती. कहानी या उपन्यास जो कि मेरे लिये पूरा जीवन समेटनेवाली या कहूं कि एक बडे फलक पर लिखी हुई कहानी ही है, हमेशा मेरे लिये बहुत आकर्षक रही है.
(6) प्रश्न- अपने कालेज के बीते दिनों के बारे मे कुछ बताये ?
उत्तर–कालेज की उम्र में आपकी सहेलियां ही आपके जीवन का केन्द्र होती हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही रहा.साधना गीता के साथ इंदरपरसथ कालेज मे हम लोग ताजा पढी कहानियों का चर्चा करते. इंदु जैन हमको पढाती थीं. उनका हुकम होता कि फलां अंतरकालेज प्रतियोगिता मे जाना है और रात रात बैठ मैं कहानी खतम करती. पर हम हर बार इनाम जीतकर ही लाते. कमला नेहरु, जहां मैं पढाती थी, वहां भी मीरा सीकरी और मधु कोहली के साथ नया छपा हुआ पढना ,उसकी बातचीत करते रहना, लगा रहता था. सारिका, नयी कहानी इत्यादि मे जो कहानियाँ छपती ,या धर्मयुग में जो नए स्वर छपते उनको हम सबने पढ़ा होता और क्लासों से ज्यों ही बीच में कुछ खाली वक्त मिलता तो कालेज कैंटीन में चाय का प्याला या कोक ,थमसअप लेकर हम बेताबी से पढ़ी हुई कहानी की चर्चा शुरू कर देते .जिंदगी में उससे ज्यादा महत्वपूर्ण जैसे कुछ था ही नहीं .मुझे याद है मारकंडेय द्वारा सम्पादित माया का कहानी विशेषांक निकला था जिसमें श्रीकान्त वर्मा की कहानी घर पढ़ी थी.ऐसी जबरदस्त थी वह कहानी कि कई दिनों तक चर्चा चलती रही .हमारा सारा समय पढ़ने या तफरीह में ही निकल जाता.लिखने की बात करते पर लिखने की फुर्सत किसी को न होती.
(7) प्रश्न–सुषम जी ये हमारे लिए गौरव की बात है कि आपने हमारे शहर चण्डीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय से पी.एचडी की ड़िग्री प्राप्त कर यहाँ अध्यापन-कार्य भी किया.तो इस दौरान आपको हिन्दी-विभाग के किन-किन गणमान्य व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त हुआ ?
उत्तर—उन दिनों ड़ॉ इंदरनाथ मदान विभागाध्यक्ष थे. उनके सुपरिवजन में ही पीएच डी की । मैं ड़ॉ वीरेंद्र मेंहदीरता के साथ दफतर शेयर करती थी. उनसे मेरी बहुत अच्छी मित्रता हुई जो आज तक मौजूद है. जिन दिनों पीएच डी के लिये शोध कर रही थी, मेरे गाइड डा मदान थे पर डा मेंहदीरता से बहुत कुछ सीखा. हम लोग आपस में रंगमंच की बहुत बातें किया करते थे. वे चाहते थे कि मैं उनके दवारा निर्देशित नाटक “लहरों के राजहंस में सुंदरी की भूमिका करुं पर फिर मुझे बरसलस के लिये रवाना होना पडा. उनके दवारा सथापित अभिवयकति संस्था मे कई बार मैंने कहानियाँ पढी. वही रमेश बतरा और सुरेश सेठ आदि से मुलाकात हुई. मैथिली प्रसाद भारद्धाज भी वहीं यूनिवर्सिटी में थे उन दिनों , धरमपाल मैनी तो बाद में आये थे जब थीसिस जमा कराने गयी थी.
(8) प्रश्न—यघपि आप पंजाब विश्वविद्यालय में एक सम्मानजनक पद पर अधीनस्थ थीं तथापि आपने इस पद को त्यागकर विदेश – प्रस्थान का विचार क्यों अपनाया ?
उत्तर– मेरे पति का तबादला बरसऴस , बेलिजयम हो गया था सो मुझे जाना ही था. मै तब शादीशुदा थी . दो बच्चों की मां बन चुकी थी। पति से देर तक दूर रहने का सोच भी नहीं सकती थी. उम्र का यह दौर एसा होता है कि तब परिवार सबसे ज्यादा अहम हो जाता है. यूँ परिवार अब भी अहम है पर तब बच्चों को मां की जरूरत रहती थी. अब नहीं. अब मुझको उनकी जरूरत महसूस होती है. भावनात्मक स्तर पर.
(9) प्रश्न –विदेश में हिन्दी भाषा का अध्यापन करते समय आपको किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर —यहां तो सब कुछ जीरो से शुरू करना था. खुद भी भाषा पढाना सीखना था. उत्साह था सो सब कुछ कर पायी. मुश्किल नहीं लगा था. आनंद आता था. कुछ करने की तसल्ली भी मिलती थी. मैने भाषा सिखाने की विधियों के कोर्स लिये, अनुभव से सीखा और अमरीकी कौसिल आन द टीचिंग आफ फारन लैनगवेजेस के साथ सालों जुडी रही. अनके भाषा सिखाने के तरीकों को सीखा और अब अमरीका मे हिन्दी के अध्यापकों को सिखा रही हूँ। हर साल बाकायदा उनको पशिकशण देती हूं.
(10) प्रश्न–आप पंजाब विश्वविद्यालय व दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करने के उपरान्त अब कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्यापनरत हैं.तो तीनों विश्वविद्यालयों के अध्यापन-कार्य में आपका सबसे अच्छा अनुभव कहाँ रहा है?
उत्तर—सबसे अच्छा अनुभव कोलम्बिया में ही रहा. यहां मेरा अलग दफतर था. कोरसों के लिए क्या किताबें चुननी हैं, सब में मेरा अपना चुनाव था. हां शुरू मे साहित्य कम पढा पाने का कष्ट होता है. पर भाषा पढाने का भी सुख तो है. खास तौर से जब भाषा से एकदम अनजान छात्र धीरे धीरे बोलने, लिखने और पढने लगते हैं तो मन को बहुत तसल्ली मिलती है. जो सीखते – सीखते साहित्य पढने लग जाते वे छात्र मुझे बहुत परिय हो जाते है. उनको मैं भूलती भी नहीं. मेरी साहित्य की क्लास के विद्यार्थी मुझे हमेशा बहुत प्रिय रहे हैं. वे हमेशा मेरे लिये खास बने रहते हैं। ये लोग होते भी बहुत कमिटेड हैं साहित्य के प्रति , पढ़ाई के प्रति
(11) प्रश्न–इन तीनों जगह पर आपको हिन्दी-भाषा की स्थिति कैसी लगी ?
उत्तर–हिन्दी भाषा की स्थिति तो भारत मे ही सबसे बेहतर होनी चाहिए .मुझे पंजाब यूनिवर्सिटी मे एम ए के छात्रों को पढ़ाना था. थीसिस का काम भी करवाया. दिल्ली में तो बीए के छात्र थे. कोलम्बिया में दोनों तरह के. पर यहां कालेज के विद्यार्थियों को हिन्दी शुरु से सिखानी होती है . अधिकतर विद्यार्थी माध्यमिक स्तर से आगे नहीं बढते. यहां सिखानी मूलत: भाषा होती है, साहितय नहीं. साहितय तो अपने शौक के मारे सिखाती हूँ
(12) प्रश्न–विदेश में भी रहकर आप हिन्दी भाषा और सँस्कृति से कैसे जुड़ी रहीं ?
उत्तर—अपनी भाषा और सँस्कृति से जुड़ा रहना मेरे लिए सहज था.मैं भारत में हिन्दी साहित्य की लेक्चरर थी,लिखती भी थी.वही काम और शौक विदेश आकर जारी रखें.मुश्किल जरूर था.अक्सर फिजूल कर्म भी लगा लेकिन अंततः यही मेरे लिए सुखद और आत्मतोष देने वाला था.भाषा सीखाने में आंनद आता था.खासकर जब विधार्थी सीखकर भाषा का इस्तेमाल करने लगते हैं.बहुत सुख मिलता है.खुशकिस्मत हूँ कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का पद भी मिला.इस तरह शौक और काम दोनों का मकसद एक ही हो गया.हाँ लेखन से जुड़ा रहना मेरा अपना चुनाव था और अंदरूनी जरूरत भी.
(13) प्रश्न–हिन्दी के साथ-साथ आप कौन-कौन- सी अन्य भाषाओं का भी ज्ञान रखती हैं ?
उत्तर—पंजाबी, फ्रेंच,अंग्रेज़ी , कुछ गुजराती सीखी थी एम ए में सँस्कृत भी सीखती रही. ब्रज , अवधी कालेज मे सीखी अगर इनको अलग मानें तो?
(14) प्रश्न —आज हिन्दी भाषा को खतरा किस बात से है ?
उत्तर—-हिन्दी भाषा को ही नहीं आज विश्व की सभी भाषाओं को अंग्रेजी से खतरा पैदा हो गया है.यूरोप की जो भाषाएँ जैसे कि फ्रेंच,जर्मन,अंग्रेजी से ज्यादा महत्व रखती थी वे भी विश्व के नक्शे पर गौण होती जा रही हैं लेकिन यह खतरा व्यवसायिक जगत में ज्यादा है.जहाँ कि अंग्रेजी का बोलबाला है अगर हिन्दी भाषाभाषी अपनी भाषा का दामन स्वयं पकड़े रहेंगे तो भाषा जीवित रहेगी अगर हिन्दी भाषियों ने ही अंग्रेजी को अपनाकर हिन्दी को दोयम दर्जा दे दिया तो उसका उद्धार आसान नहीं होगा. यूं तो हिंदी को भी बाजार मे जगह मिली हुइ है. अगर हम इस बात के लिये सजग रहें कि साहितय की जोत हमें जलाये रखनी है तो हिंदी का लेखक व पाठक मिलकर यह काम भी कर सकते हैं और हिंदी अपने आप को खतरों से बचाये रख सकती है. पर आसान नहीं होगा ये.
(15) प्रश्न–अपनी रचना –प्रक्रिया के बारे में बताएँ?
उत्तर–औरत के लिए घर ही सबसे जयादा महत्वपूर्ण होता है और घर के कामों , रिश्तेदारों को निभाना ,उनके लेखन को बहुत पीछे धकेल देता है .मेरी भी यह कहने की हिम्मत नहीं होती थी कि मुझे लिखना है .ज्यादातर इधर -इधर से समय चुराकर ही लिखा करती थी मैं.पर अब अगर खाना न बना पाँऊ तो यह कहने की हिम्मत तो रखती हूँ कि आज लिखने का मूड़ बना हुआ था,या कुछ पूरा करना था. मैंने अपनी रचना प्रक्रिया पर सृजन की देहरी पर नाम से लेख लिखा है. मेरी निबन्धों की किताब समसामयिक प्रकाशन से आ रही है जुलाई में. उसमे वह लेख है.
(16) प्रश्न–सुषम जी आपका पहला उपन्यास ‘हवन’ जोकि उर्दू व अंग्रेजी में अनुवादित हो चुका है.क्या आप इसे अन्य भाषाओं में जैसे पंजाबी,मराठी इत्यादि में भी अनुवादित करवाने की इच्छा रखती हैं ? पर मुझे मालूम नहीं कि किसकी रूचि होगी अनुवाद करने में.
उत्तर– मुझे तो अच्छा ही लगेगा अगर इसका ज्यादा से ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो और लोगों तक पहुंचे.
(17) प्रश्न– हवन उपन्यास की गुड़्ड़ों जोकि विधवा है ,और भारतीय परिवेश में पली बढ़ी है.तो विदेश में जाने के बाद उसे भारतीय सँस्कृति व सभ्यता को कायम रखने में कौन-कौन -सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर– गुडडो के संघर्ष तो हवन को पढकर ही जानने होंगे
(18) प्रश्न—-जैसाकि आपका उपन्यास मोरचे आपकी भाँजी के सँघर्षमयी जीवन की व्यथा-गाथा है.लेकिन अब आपकी भाँजी नारी-सशक्तीकरण की मिसाल है तो क्या अब आप मोरचे का दूसरा-भाग लिखना चाहेंगीं ,जिसमें आपकी भाँजी उर्फ नायिका का सबल व सशक्त रूप उभर कर सामने आए ?
उत्तर— उपन्यास तो जो मन मे बनता है उसी को लिखती हूं. वैसे भी सफलता की कहानियाँ एक सी होती है विविधता दुख और पीड़ा मे होती है. शायद ताऴसताय ने कहा है न.
(19) प्रश्न— ‘मैंने नाता तोड़ा ‘ आपका बहुचर्चित उपन्यास है इसकी कथा-वस्तु मुख्य रूप से समाज की किस समस्या की ओर इशारा करती है ?
उत्तर —भारत मे ही नहीं दुनिया भर में औरत के शरीर को लेकर उसे हर तरह से सहना पडा है. घर में अपने ही चाचे-मामे लोभ संवरण नहीं कर पाते. हर घर में ऐसी कहानियाँ सुनती रही हूं. अमरीका मे तो सौतेला बाप भी लडकी का दुश्मन होता है. घर घर की कहानी यही है पर लोग छुपाते फिरते हैं. इसी से इस को जाहिर करना जरूरी था.
(20 )प्रश्न–आपकी शीघ्र प्रकाश्य ‘सड़क की लय ‘ कहानी किस तथ्य पर आधारित है ?
उत्तर—सडक की लय कहानी हंस में छप चुकी है. यह कहानी यहां बडी होने वाली लडकी के मानसिक तनावों की परख करती है. यह भी दर्शाती है कि कैसे भारतीय मां-बाप भी कनफयूजड हैं और बेटियों को भी वैसे ही मूलय देते हैं. किताब इस साल सामयिक से आएगी . पर उसका नाम बदल कर “आसमान पर पाव” रखा है जो कि उस संकलन की एक दूसरी कहानी है.
(21) प्रश्न—-सुषम जी स्त्री विमर्श से आपका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर–स्त्री विमर्श का सही मतलब स्त्री को समाज के केन्द्र में रखना है. जब तक पुरुषों को केन्द्र में रख समाज के सारे कार्यकलापों ,संस्थाओं का संगठन हुआ है.जरूरी है अब औरत को समाज की उतना ही जरूरी इकाई मानकर समाज की चर्चा हो.स्वास्थ्य की बात हो तो स्त्री का स्वास्थ्य समस्यानुशीलन के केन्द्र में हो.स्त्री का महत्व कायम हो.
(22) प्रश्न–नारी की मुक्ति किससे है ?
उत्तर–सहीं अर्थों में नारी की मुक्ति के बीज उसके भीतर ही हैं.कोई औरत को मुक्त नहीं कर सकता जबतक कि औरत खुद को आजाद नहीं करना चाहेगी.इसलिए औरत को अपनी खुदी को बुलंद करना होगा.अगर वह स्वतंत्र ,आत्मनिर्भर होना चाहेगी और यह जब उसके भीतर की जरूरत बन जायेगी तो फिर चाहे लड़ाई करनी पड़े पर रूकावटें अपने आप हटती जायेगी उसके रास्ते से.सच यह है कि औरत अभी तक इस बात को समझ नहीं पायी है .सदियों की दासता ने उसकी आत्मा को परनिर्भरता सीखा दी है.आजादी से उसे ड़र लगता है क्योंकि आजादी अपनी कीमत भी तो माँगती है .आजाद व्यक्ति अकेला भी पड़ सकता है .औरत को अपने भीतर इन स्थितियों से मुकाबला करने की हिम्मत जुटानी होगी.
(23) प्रश्न—आप मूलतः पंजाब से है.क्या विदेश में रहकर आपको पँजाब की कमी महसूस होती है ?
उत्तर—वह तो सहज ही है पर मेरा कालेज बीए, एम ए, एम फिल दिल्ली यूनिवर्सिटी से हुआ था, पढाया भी वहां छह साल सो ज्यादा लगाव दिल्ली से है. उसी की याद ज्यादा आती है
(24) प्रश्न—-आजकल विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों द्वारा आपके साहित्य पर शोध-कार्य किए जा रहें हैं.तो आप कैसा महसूस कर रही हैं ?
उत्तर—वह अच्छी बात है कि इस ओर ध्यान दिया जा रहा है. पर इस बात की कमी खलती है कि आलोचना जगत में उसका कोई चर्चा नहीं। समझ नहीं आता कि इसकी क्या वजह हो सकती है? शायद आप लोगों के पास इसका जवाब हो?
(25) प्रश्न—सुषम जी आप नवयुवकों को क्या संदेश देना चाहेंगीं ?
उत्तर—संदेश बस यही है कि लेखन तभी करो अगर लेखन के बिना जीना अर्थहीन लगे – धन या नाम के लिए नहीं.एक बार प्रतिबद्ध हो जाओ लेखन के प्रति पूरी ईमानदारी से लिखो .जल्दबाजी में लिखा कभी दूर तक नहीं जाता .जो लिखा है उसका आकलन खुद करो और लगे कि तुमने अपना श्रेष्ठतम दिया है तभी उसे छपने के लिए भेजो.एक और बात जो मैंने दूसरों से सीखी वह यह भी कि लिखने से ही हाथ खुलता है बेहतर लिखा जाता है.लिखने से ड़रने की भी जरूरत नहीं.पर वहीँ इस बात का भी ध्यान रखना है कि क्या न लिखा जाए .लेखन में चुनाव की बहुत अहमियत है।
====================================================================== साक्षातकर्ता – डॉ प्रीत अरोड़ा, जन्म – २७ जनवरी, शिक्षा- एम.ए., हिंदी पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी में दोनों वर्षों में प्रथम स्थान के साथ और मृदुला गर्ग के कथा-साहित्य में नारी-विमर्श पर शोध-कार्य, कार्यक्षेत्र-. अध्ययन एवं स्वतंत्र लेखन व अनुवाद।
(शनिवार, अगस्त 04, 2012, परिकल्पना ब्लागोत्सव से साभार)