(फिल्म समीक्षा)
-रवि सम्बरवाल
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र
"फिल्म लगान में दलित लड़के को एक कचरे की तरह अधनंगा सा दिखाना और फिल्म सरपट्टा में दलित समुदाय सरपट्टा के कोच रंगान को कुर्सी पर बैठे मूछों पर ताव देते और साथ में उनके पैरों में पंडित को बैठे दिखाना अपने आप में एक बड़ी क्रांति है।" तमिल फिल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड से काफी आगे निकल चुकी है। तमिल फिल्मों में कंटेंट से लेकर सिनेमैटोग्राफी व म्यूजिक तक सब मजेदार होते हैं। नेपोकिड्स की भरमार भी नहीं होती जिसकी सबसे अच्छी बात यह है कि साफ टैलेंट देखने को मिलता है। ऐसी ही एक तमिल फिल्म है सरपट्टा जिसमें 1970 के दशक के मद्रास को दिखाया गया है। इसके प्रोड्यूसर आंबेडकरवादी पा रंजीत हैं जो इससे पहले मद्रास, काला, कबाली और परीयेरुम पेरुमल जैसी फिल्में बना चुके हैं।
उनकी खासियत ये है कि वो बहुत कुछ कम दिखाते हुए भी सब कुछ कह जाते हैं। बात करें फिल्म सरपट्टा की कहानी की तो यह एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म है जोकि सामाजिक राजनैतिक पहलुओं को साथ में रखकर बुनी गई है। फिल्म में दो बॉक्सिंग समुदायों को दिखाया गया है जोकि अपने अपने समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। निश्चित ही सरपट्टा परंबराई एक दलित समुदाय का समूह है जबकि इदियप्पा सवर्ण समाज का समूह है। दोनों समूह अपनी अपनी शान के लिए बॉक्सिंग खेलते हैं। कुछ समय से इदियप्पा समूह का ही बॉक्सिंग पर दबदबा था जबकि उसके कुछ साल पहले सरपट्टा के कोच रंगान और उसके साथी बॉक्सिंग के बाहुबली हुआ करते थे (जैसा कि कोच रंगान एक सीन में बताते हैं)। उसके एक दोस्त की बॉक्सिंग मैच की बहस के चलते हत्या भी कर दी गई थी लेकिन अब उसका लड़का छुप छुपा के बॉक्सिंग देखने आ जाता है जोकि किसी अनाज की मंडी जैसी जगह पर मजदूरी करने का काम कर रहा होता है।
इसका नाम कबालिन है और यह बॉक्सिंग करने के लिए इतना उतावला है कि मैच देखते देखते भी उसके हाथ पांव चलने लगते हैं लेकिन उसकी मां को जब यह पता चलता है कि कबालिन बॉक्सिंग मैच देखने गया था तो उसकी मां उसे झाड़ू से पीटती है और खूब डांटती है। इसके पीछे का कारण यह है कि बॉक्सिंग ने ही उसके पति को छीन लिया और अब वह अपने बेटे को नहीं खोना चाहती थी। लेकिन एक दिन कबालिन सरपट्टा ग्रुप के एक बॉक्सर को मुकाबले के लिए चुनौती दे डालता है और रिंग में बुरी तरह उसे हरा भी देता है जिसे देखकर कोच रंगान समेत सभी हैरान रह जाते हैं। जिस तरह से उसके हाथ और पांव मूव कर रहे थे उसे देखकर लगता नहीं था कि इससे पहले कबालिन ने कभी बॉक्सिंग नहीं की। अब कोच रंगान को नया बॉक्सर कबालिन के रूप में मिल चुका था। उसका पहला मुकाबला डांसिंग बॉक्सर के नाम से प्रसिद्ध बॉक्सर से होता है जो एक खतरनाक बॉक्सर होता है। कबालिन उसे दूसरे राउंड में ही बुरी तरह पटकी दे देता है व उसे हरा देता है। अब इदियप्पा ग्रुप अपनी हार पाकर बुरी तरह बौखला जाता है व इसी ग्रुप का सबसे शक्तिशाली बॉक्सर वेंबुली कबालिन से कहता है कि अगला मैच हम दोनों के बीच ही होगा जिसकी बात पहले भी हो चुकी थी।
अब दोनों अगले मैच की तैयारी करने लगते हैं। कोच रंगान अपने बेटे को चुनने की बजाय कबालिन को मैच के लिए चुनता है जिसकी वजह से उसका बेटा बॉक्सिंग होने से एक दिन पहले कबालिन पर हमला कर देता है क्योंकि सरपट्टा के लिए वह खुद बॉक्सिंग करना चाहता था लेकिन इसके लिए खुद कोच रंगान राजी नहीं था क्योंकि वह जानता था कि उसका बेटा मैच हार जाएगा। मैच में कबालिन और वेंबुली दोनों भिड़ते हैं। मैच रोमांच से भर उठता है लेकिन जैसे ही कबालिन मैच जीतने को होता है व वेंबुली बुरी तरह हारता दिखता है तभी इदियप्पा ग्रुप के लोग तोड़फोड़ शुरू कर देते हैं और लकड़ी की कुर्सियां रिंग में खड़े कबालिन पर फेंकने लगते है। अफरा तफरी का माहौल देख इदियप्पा ग्रुप कबालिन को जान से मारने की कोशिश करता है। आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से चाकू के साथ उसके कपड़े फाड़ उसे नंगा कर देते हैं।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगे आपातकाल का जिक्र करते हुए कहानी को यहां बिल्कुल अलग मोड़ दिया गया है। तभी मैच के बीच में ही कोच रंगान को डीएमके पार्टी की गतिविधियों में शामिल होने के चलते जेल में डाल दिया जाता है। खेल अब खेल नहीं रहा था बल्कि बदला बन गया था। कुछ समय बाद कोच रंगान जेल से छूटता है उसके स्वागत में सभी चाहने वाले जेल के बाहर इकट्ठे होते हैं कोच कबालिन को देखकर हैरान हो जाता है क्योंकि अब वह किसी भी नजरिए से बॉक्सर नहीं लग रहा था उसका पेट बाहर निकल आया था और अनफिट दिखाई दे रहा था। कुछ समय बाद उसके अंदर का बॉक्सर फिर से जिंदा हो जाता है और वह अपने आपको कड़ी मेहनत कर बॉक्सिंग के लिए तैयार कर लेता है। अब उसका मुकाबला फिर से वेंबुली से ही होना था। दोनों कठोर मेहनत करते हैं। मैच में पहुंचने से पहले कबालिन पर हमला करवाया जाता है ताकि वह मैच में पहुंचे ही ना. लेकिन उन सबसे भिड़कर कबालिन मैच में पहुंचता है और लड़ता है।
कड़ी मशक्कत के बाद वह वेंबुली को पटकनी दे देता है। कबालिन वेंबुली को ऐसा पंच मारता है कि वह दोबारा खड़ा नहीं हो पाता और कबालिन जीत जाता है। इदियप्पा समूह कोच रंगान को पहले ही चुनौती दे चुका था कि यदि वेंबुली कबालिन को हरा देता है तो सरपट्टा समूह कभी बॉक्सिंग नहीं खेलेगा और रंगान उनकी यह शर्त मान चुका था लेकिन सरपट्टा समुदाय की यह जीत बॉक्सिंग में डटे रहने के लिए भी जरूरी थी। कोच रंगान खुशी के मारे रिंग में चढ़ जाता है और कबालिन को गले से लगा लेता है। पूरी फिल्म में नायक सिर्फ एक नहीं है. कई चेहरे अपने आप में नायक हैं। इसमें कबालिन की मां का संघर्ष है। कोच रंगान का बॉक्सिंग रिंग में सरपट्टा को जिंदा रखने का संघर्ष है और कबालिन का अपने समुदाय के लिए जीतने का संघर्ष है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कर्णन फिल्म के बराबर की है। ऐसा लगता है कि पा रंजीत गांव में कैमरा सेटअप कर आए हैं और सब कुछ सच्ची घटी घटनाएं हों। सभी कलाकारों ने जबरदस्त काम किया है। कबालिन के रूप में अभिनेता आर्य ने अभिनय किया है और कोच रंगान के रूप में पसुपथी हैं। बॉक्सिंग मैच के बैकग्राउंड में म्यूजिक ऑडियंस को बंधे रहने पर मजबूर कर दे।
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