हमारे मनीषी साहित्यकार

 


- रामबाबू नीरव

जब नीलकंदन ने अपनी पत्नी से रुष्ट होकर सिर्फ राजमहल का ही नहीं बल्कि मालवा राज्य का भी परित्याग कर दिया, तब राजकुमारी को अनुभव हुआ "मुझसे बहुत भारी भूल हो गयी. चाहे कितना भी मूर्ख था, नीलकंदन मेरा पति था. आवेश में आकर मैंने उसके साथ अन्याय कर दिया." विद्योत्तमा पश्चाताप तथा विरहा की अग्नि में जलने लगी. पूरी रात वह सो न पायी. सुबह होते ही पूरे राजमहल में यह दुखद संवाद फैल गया कि राजकुमारी विद्योत्तमा ने अभिमान में चूर होकर अपने पति को अपमानित करके राजमहल से निकाल दिया है." इस दुखद संवाद को राजमहल की दासियों ने नमक मिर्च मिलाकर पूरे महल में फैला दिया. जब महाराज और महारानी के कानों में यह दुखद संवाद पड़ा, तब वे दोनों राजकुमारी विद्योत्तमा के कक्ष की ओर दौड़ पड़े. कक्ष में प्रविष्ट होते ही महाराज के साथ साथ महारानी भी स्तब्ध रह गयी. उनकी पुत्री किसी विरहिणी का रूप धारण किये भूमि पर सर पटक पटक कर विलाप कर रही थी. अपनी पुत्री की दशा देख उन दोनों की छाती फटने लगी. महारानी ने उसे उठकर अपनी छाती से चिपका लिया -

"यह कैसी हालत बना ली है, पुत्री तूने."

"मॉं, मैं बर्बाद हो गयी.....! लूट गयी. सुहाग रात में ही मैं विधवा....!"

"शुभ.... शुभ बोल पुत्री." महारानी उसके मुंह पर हथेली रखकर तड़पती हुई बोल पड़ी-"सच सच बता आखिर हुआ क्या है."

"उसने मुझे धोखा दिया है माँ."

"किसने..... किसने तुम्हें धोखा दिया है पुत्री.?"

"उसी दुष्ट ने जो महा पंडित बनकर आया था और मुझे मूर्ख बनाकर चला गया."

"तुम खुलकर बताओ पुत्री, आखिर हुआ क्या है.?" इसबार महाराज ने थोड़ा कुपित होते हुए पूछा.

"पिताजी, वह विद्वान नहीं बल्कि महामूर्ख था, काशी के दो कपटी ब्राह्मणों ने, जो शास्त्रर् मेंथ पराजित हो गये थे, मुझसे अपने अपमान का बदला लिया है. सच्चाई जानने के बाद मैंने अपने पति को कुछ कटु वचन कह दी. इससे रुष्ट होकर वे न जाने कहाँ चले गये.?" विद्योत्तमा सुबक सुबक कर रोने लगी. 

"शान्त हो जाओ पुत्री, मैं अपने सैनिकों को भेजता हूँ, वे लोग उसे ढूँढ कर ले आएंगे."

"नहीं पिताजी, अब वे कभी नहीं आएंगे. भले ही वे मूर्ख हैं, मगर हैं स्वाभिमानी. चंद घंटों के सामीप्य में ही मैं उनकी रग रग से परिचित हो चुकी हूँ."

"वह आएगा पुत्री, हमारे सैनिक उसे जबरन लेकर आएंगे." महाराज उसके कक्ष से बाहर निकल गये. 

                          ∆∆

 महाराज शारदानंद ने अपने जमाता को ढूँढने तथा हर हाल में मालवा में लेकर आने के लिए चारों दिशाओं में अपने कुशल सैनिकों को भेज दिया. उनके सैनिक चारों दिशाओं में फैल गये, परंतु उन्हें मिथिला राज्य का गुमान ही न था. संभवतः उन्होंने सोचा हो उज्जैन, विदिशा और मालवा को छोड़कर वह मूर्खाधिराज मिथिला राज्य में कैसे जा सकता है.?  अतः सैनिक गंगा के उसपार मगध, कलिंग, अंगदेश, बंगाल और अवध जनपदों का भ्रमण कर मालवा लौट गये और महाराज से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका जामाता परलोक सिधार चुका है. इस दुखद संवाद को सुनकर राजमहल में कुहराम मच गया. महाराज, महारानी और राजकुमारी का रोते रोते बुरा हाल हो गया. कई दिनों तक शोक मनाने के पश्चात राजकुमारी विद्योत्तमा ने अपने दुर्भाग्य से समझौता कर लेना ही उचित समझा. वह वैधव्य धारण करके अपने पति को भूलने की चेष्टा करने लगी. हिन्दू धर्म के अनुसार किसी विधवा को दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं था. कई माह बीत गये. विद्योत्तमा अब लगभग अपने पति को भूल चुकी थी. बरसा ऋतु के बाद शरद् ऋतु का आगमन हुआ. शरद् पूर्णिमा की निस्तब्ध मध्य रात्रि में चारों ओर चाॅंदनी छिटक रही थी. परंतु यह शीतल चाॅंदनी अपने प्रियतम के विरह में तड़प रही विद्योत्तमा के किस काम की. वह श्वेत वस्त्र धारण किये हुई  अपने कक्ष में राजसी विछावन पर करवटें बदल रही थी. अचानक उसके कानों में कपाट की कुंडी खटखटाए जाने की आवाज पड़ी. उसकी तंद्रा भंग हो गयी और वह चौंक कर द्वार की ओर देखने लगी. कुछ क्षण पश्चात एक जानी पहचानी सी आवाज सुनाई पड़ी -"कपाटम् उद्धादय सुंदरी. (द्वार खोलो सुन्दरी.) " विद्योत्तमा एकदम से चिहुँक पड़ी और उसके मुंह से निकल पड़ा -"अस्ति कश्चित् वाग्विशेष: (कोई विद्वान लगता है.)" फिर जब उसने उस आवाज पर ध्यान से चिंतन किया तब उसे ज्ञात हुआ -"अरे, यह तो मेरे पति देव की आवाज है." भावविभोर होती हुई बिछावन से उतर कर उसने द्वार खोल दिया. सचमुच उसके समक्ष प्रकांड विद्वान का रूप धारण किये विद्यापति यानि उसके पति देव खड़े थे. उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके विदग्ध हृदय पर शीतल जल का छिड़काव हो गया हो. वह बावरी सी होकर अपने पति को आलिंगन में बांधकर अमरबेल की लता सी लिपट गयी. उसकी सुप्त कामनाएं जाग्रत हो उठी उसका अंग प्रत्यंग पुलक उठा. कालिदास भी उमंग की तरंग में बहते चले गये.

और फिर उस मधु यामिनी में आरंभ हो गया उन दोनों विदग्ध प्रेमी प्रेमिका का निर्बाध प्रेमाभिनय.

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प्रात: होते ही महल में आनंद की लहर दौड़ गयी. महाराज महारानी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. मालवा की राजकुमारी का सुहाग लौट आया....! इस खबर को सुनकर प्रजा भी आनंदोत्सव मनाने में मग्न हो गयी. 

 लगभग एक माह तक कालिदास अपनी अर्द्धांगिनी के साथ राग रंग में डूबे रहे. फिर एक रात्रि में विद्योत्तमा ने अपने पति से उनकी विद्वता का रहस्य जानने की जिज्ञासा की. कालिदास ने उच्चैठ के गुरूकुल एवं दुर्गा मंदिर में  घटी एक एक घटना को अक्षरशः सुना दिया. उनकी कहानी को सुनकर विद्योत्तमा को समझते देर न लगी कि भगवती मॉं की कृपा से उसके पति को वही ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिन जिन पुस्तकों का उन्होंने स्पर्श किया था. उन पुस्तकों में न तो अक्षर ज्ञान था, न व्याकरण और न ही छंदोलंकार. इन्हें तो सुलेखन का भी ज्ञान नहीं है, इससे स्पष्ट है कि इनका ज्ञान अधूरा है. विद्योत्तमा ने मन ही मन निश्चय कर लिया, अपने पति को पूर्ण ज्ञान वह स्वयं प्रदान करेगी.

दूसरे दिन से ही वह उन्हें शिक्षा देने लगी. अक्षर ज्ञान, सुलेखन से लेकर व्याकरण और छंदोलंकार में भी कालिदास दास निष्णात हो गये. अब उनके मन में तरह तरह के भाव उत्पन्न होने लगे. एकाएक उनके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि मेरे अधूरे ज्ञान को पूर्णता मेरी धर्मपत्नी ने प्रदान की है, इसतरह तो वह मेरी गुरु हो गयी. और जो स्त्री मेरी गुरु है वह तो माता के समान ही होगी. क्या अपनी माता सदृश्य स्त्री से प्रेमाभिनय करना अधार्मिक और अनुचित न होगा. नहीं.... नहीं, अब मेरा यहाँ रूकना उचित नहीं. प्रत्यक्ष में उन्होंने विद्योत्तमा से कहा -"देवी, आपने मुझे विद्या दान दिया है, इसलिए आप मेरी गुरु माता हो गयी. अतः आप मुझे दाम्पत्य बंधन से मुक्त करें."  

"यह कैसी उटपटांग बातें कर रहे हैं स्वामी.... आप मेरे पति....!"

"क्षमा करें देवी, अब मैं आपका पति नहीं बल्कि शिष्य बन चुका हूँ. और शिष्य पुत्र के सदृश्य होता है."

"ओह....ओह, मैंने व्यर्थ ही आपको शिक्षा दी." तड़पती हुई विद्योत्तमा अपना सर धुनने लग गयी. परंतु कालिदास के ऊपर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा. उनके मन में अब साहित्य साधना के प्रति भक्ति उत्पन्न हो चुकी थी. साहित्य साधना भी तपस्या ही होती है. और किसी भी तपस्वी के लिए वैरागी होना आवश्यक होता है. अपनी पत्नी को पुनः विरहाग्नि में जलता छोड़ कर कालिदास ने सर्वदा के लिए महल का परित्याग कर दिया.

    इसबार वे उज्जैन चले गये और वहाँ एकांत स्थान की तलाश कर पर्णकुटीर का निर्माण किया और साहित्य साधना में लीन हो गये.

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क्रमशः.......! 

(अगले अंक में पढ़े महाकवि कालिदास की प्रथम नाट्यकृति मालविकाग्निमित्र की कथा.)

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