धारावाहिक उपन्यास 


-रामबाबू नीरव

"रूक जाओ बेटी." अचानक सेठ धनराज जी की आवाज सुनकर सभी चौंक पड़े. अनुपमा के साथ साथ अभय चकित भाव से उनकी ओर देखने लगा. सेठ धनराज की दृष्टि सिसकियां ले लेकर रो रहे रीतेश पर टिकी हुई थी. ऑंसू तो सबों की ऑंखों से बह रहे थे, मगर रीतेश के सीने में ‌उठने वाले तूफान का अंत न था. वह अबतक अपनी माया बुआ को ही ग़लत समझता रहा, मगर हकीकत तो कुछ और ही है.

"रीतेश.....!" सेठ धनराज ने रूंद्धे हुए गले से उसे पुकारा. वह चौंक पड़ा-

"जी दादा जी."

"इस चैप्टर के आगे की कहानी तुम सुनाओ, माया के घर से चले जाने के बाद क्या हुआ?"

"जी, वो.....!" रीतेश की सिसकियां रूकने का नाम न ले रही थी. सेठजी उसे सांत्वना देते हुए बोले-

"देखो रीतेश, माया के साथ जो कुछ भी हुआ वह जिन्दगी की कड़बी सच्चाई है और इस सच्चाई का सामना हम सबों को धैर्य पूर्वक करना होगा. अपनी बुआ के बारे में जानकर जितनी तकलीफ तुम्हें हो रही है उससे अधिक दर्द मुझे हो रही है.  चलो तुम इस कहानी की अगली कड़ी सुनाओ."

"जी दादा जी." रीतेश ऑंसू पोंछते हुए बोला और आगे की घटना सुनाने लगा -"जब माया बुआ जी घर छोड़कर चली गयी, तब सुबह होते ही हमारे घर में कुहराम मच गया. पिताजी और मां को आशंका हो गयी कहीं माया ने कमला नदी में कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली. इस आशंका ने पिताजी को बुरी तरह से झकझोर दिया और वे अपने कुछ शिष्यों को लेकर नदी ‌की ओर‌ दौड़. लेकिन काफी खोजबीन के बाद भी न तो माया बुआ मिली और न ही उनकी लाश. पिताजी सचमुच पागल हो गये, वे अपने बाल नोचने लगे. भले ही अपनी भावुकता में बहकर पिताजी ने माया बुआ के साथ अन्याय किया था, मगर यह भी सच है कि वे अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे. उसी प्यार के परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी बहन की शादी एक डॉक्टर लड़का से जबरन करवाई थी. तब उन्होंने ऐसा नहीं सोचा था कि उनकी बहन के साथ इतना भारी अन्याय हो जाएगा. मेरा और मेरी मां का भी रो रोकर बुरा हाल हो चुका था. मुहल्ले के लोग तरह तरह की बातें करने लगे. जीबछी काकी के विष से बुझे तानों ने उस अग्नि में घी का काम किया. पता नहीं जीबछी काकी का माया बुआ से और हमारे परिवार से किस जन्म का बैर था कि वह कर्कशा औरत हाथ धोकर हमारे परिवार के पीछे पड़ चुकी थी. वह पिताजी और मां को देखकर तरह तरह के ताने देने लगती. उसकी मंडली में कुछ और औरतें शामिल हो चुकी थी, जिनका काम दूसरों की सिर्फ आलोचना करना ही था. मगर उन औरतों के खुद का चरित्र कितना घिनौना था, इस सच्चाई को गांव का बच्चा-बच्चा जानता था. 

   पिताजी माया बुआ को ढ़ूंढने निकल पड़े. गांव-गांव नगर-नगर वे घूमते रहे, मगर माया बुआ का कहीं पता न चला. हमलोगों ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारी माया बुआ बुआ को भगाने में श्रीकांत चाचा की पत्नी और बहन का हाथ होगा. लगभग एक माह  दर-बदर की ठोकरें खाने के बाद पिताजी हताश होकर घर लौट आए. अभी उन्होंने अपनी देहरी पर कदम भी न रखा था कि  वह नागिन अपने मुंह से विष वमन करने लगी -"देखो आ गया उस छिनार का भाई अपना काला मुंह लेकर. हाय हाय कैसा निर्लज्ज है यह....बहन किसी यार के साथ भाग गयी और यह लौटकर आ गया. इसकी जगह यदि मेरा खसम रहा होता तो किसी नदी नाले में डूबकर मर खप गया होता."

आखिर बर्दाश्त की भी एक सीमा होती है. उस कर्कशा औरत की तीखी बातें मां को चूभ गयी और वे क्रोध से उफनती हुई उसके सामने आकर उबल पड़ी-

"क्यों हमारे जले पर नमक छिड़क रही हो काकी. हमलोगों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो हमारे पीछे पड़ी हुई हो.? यदि हमारे ऑंसू नहीं पोंछ सकती तो कम-से-कम ताने तो न मारो."

"देखो..... देखो आ गयी लड़ने के लिए, एक तो इसकी छिनार ननद....!" वह अपने हाथ नचाती हुई एक दम से सीना तानकर मेरी मां पर बरस पड़ी. 

"काकी खबरदार, जो मेरी ननद के बारे में एक भी अपशब्द मुंह से निकला तो मैं ‌तुम्हारी जीभ खींच लूंगी." मां का इतना कहना था कि वह उन पर टूट पड़ी. उस चाण्डालिन ने उनका केश पकड़ कर नीचे पटक दिया. पिताजी तो एकदम से पत्थर के बूत बन चुके थे. वे फटी फटी ऑंखों से इस दंगल को देख रहे थे. वहां जितनी भी औरतें थीं, सभी मेरे परिवार की दुश्मन थी. अपनी मां की ऐसी दुर्दशा मुझसे देखी न गयी और मैं उन्हें बचाने के लिए दौड़ पड़ा. जितनी शक्ति मुझ में थी, उसका प्रयोग करते हुए मैं उस नागिन का केश पकड़ कर झुलाने लगा. अब तो वहां महा बबाल हो गया. इतने में ‌जीबछी काकी का जवान बेटा कहीं से आ गया और जल्लाद की तरह मुझ पर टूट पड़ा. यह संयोग ही था कि उस दिन श्रीकांत चाचा घर पर ही थे. हंगामा सुनकर वे अपनी पत्नी के साथ बाहर निकले, फिर बड़ी मुश्किल से उन्होंने मुझे तथा मेरी मां को उसके चंगुल से बचाया. जैसे-तैसे झगड़ा तो शांत हो गया परंतु उस नागिन का स्वभाव न बदला. 

उस घटना के बाद से पिताजी ने मौन धारण कर लिया. उनका यह मौन किसी भयानक तूफान का संकेत था, जिसे कोई समझ नहीं पाया. उस रात पिताजी ने भोजन नहीं किया.  जब उन्होंने ही भोजन नहीं किया, तब हमलोग कैसे करते? भूखे  पेट हमलोग सो गये. सुबह मां की चीत्कार सुनकर मेरी ऑंखें खुल  गयी. मैं पिताजी के कमरे की ओर दौड़ पड़ा. वहां का नजारा देखते ही मेरे होश उड़ गये. पिताजी छत से लटके हुए थे और मां उनके दोनों पैर पकड़कर चीत्कार कर रही थी. भले ही मैं बच्चा था, मगर इतना तो जान ही चुका था कि  माया बुआ कि घिनौनी हरकत से क्षुब्ध होकर ही पिताजी ने आत्महत्या कर ली है. उस दिन से ही मुझे अपनी माया बुआ से नफ़रत हो गयी. मेरी समझ में न आ रहा था कि मैं क्या करूं? कुछ पल विक्षिप्त की अवस्था में खड़ा मैं अपलक पिताजी के मृत शरीर को निहारता रहा फिर मां की तरह मैं भी उनके पांव पकड़ कर जोर जोर से विलाप करने लगा. हम दोनों मां-बेटा के करुण क्रंदन की आवाज सुनकर श्रीकांत चाचा और सुनंदा चाची वहां आ गयी और पिताजी की लाश देखकर वे दोनों भी रोने लगे. श्रीकांत चाचा ने तो तैश में आकर साफ साफ कह दिया -"पंडित उमाकांत झा की मौत की जिम्मेदार जीबछी काकी है. मैं उस औरत को समाज से निकलवा कर दम लूंगा." हमलोगों की चीख-पुकार सुनकर हमारे पिताजी से सहानुभूति रखने वाले कुछ और पड़ोसी तथा उनके शिष्यों का वहां जमघट लग गया. आज तक मुझे यह पता न था कि माया बुआ को भगाने में सुनंदा चाची का हाथ था. भले ही उन्होंने वह सब माया बुआ की खुशहाली के लिए किया था, मगर यह था तो सामाजिक अपराध ही. यदि उन्होंने इस पुण्य के काम में मेरी मां की रजामंदी ली होती तो शायद हमें उतनी तकलीफ न हुई होती. आश्चर्य की बात है कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सुनंदा चाची ने अपनी जुबान न खोली. श्रीकांत चाचा को भी अबतक उस घटना की जानकारी न थी. खैर, मुसीबत की उस घड़ी में  सुनंदा भाभी के साथ साथ श्रीकांत चाचा ही काम आये. उन्होंने पिताजी के दाह संस्कार से लेकर क्रियाकर्म तक का सारा खर्च वहन किया. लगभग पचास हजार रूपए उनका कर्ज़ हो गया. श्रीकांत चाचा ने इस हृदय विदारक घटना की जानकारी मेरे मधुबनी में मेरे छोटे चाचा देवकांत झा तथा भगवानपुर (राजनगर ) में मेरे ननिहाल को दे दी. मगर मेरे चाचा इतने निष्ठुर निकले कि अपने बड़े भाई का मरा हुआ मुंह देखने तक नहीं आये. हां भगवानपुर से मेरे मामा जी आ गये. उन्होंने हमें सांत्वना दिया. क्रियाकर्म के बाद वे चले गये. मां की भी जीने की इच्छा नहीं हो रही थी, मगर वे मुझे किसके सहारे छोड़कर इस बेरहम दुनिया से चली जाती. उन्होंने अपने सीने पर सब्र का पत्थर रख लिया. 

इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी जीबछी नाम की उस दुष्ट औरत ने हम पर रहम नहीं किया. वह रोज सुब-हो-शाम हमारी बुआ, पिताजी और मां को तरह तरह की अश्लील तानों से ताड़ने लगी. मां की अब रत्ती भर भी इच्छा इस गांव में रहने की न हो रही थी. उधर श्रीकांत चाचा का कर्ज भी हमारे ऊपर था. मां ने अपने हिस्से का घर श्रीकांत चाचा के हाथों तथा खेत की जमीनें ठगन झा के हाथों बेच दिया. हमलोगों को श्रीकांत चाचा के कर्ज़ से भी मुक्ति मिल गयी और कुछ रुपए भी हाथ  में आ गये. काफी मंथन करने के बाद हमलोग भगवानपुर अपने मामा के घर आ गये. मां ने सोचा था कि अपने नैहर में वह मेरे साथ चैन की जिन्दगी जी लेगी, मगर मेरी मामी ने हम दोनों का जीना मुश्किल कर दिया. कुछ महीने वहां रहने के बाद हमलोग राजनगर आ गये और एक साधारण से महल्ले में फूस की झोपड़ी कराये पर लेकर  जैसे-तैसे गुजारा करने लगे. जो रूपए बचे थे उसे मां ने एक बैंक में मेरे नाम पर फिक्स डिपॉजिट करवा दिया. मैं राजनगर के सरकारी स्कूल में पढ़ने लगा. मां एक संभ्रांत परिवार में भोजन बनाने का काम करने लगी. लगभग 16 वर्ष की उम्र में मैं मैट्रिक पास कर गया. अब मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी का मुझे एहसास हुआ और मैं उनसे बिना बताए ही कुछ घरों में बच्चों को पढ़ाने लगा. इसके साथ ही खुद भी अपना नाम कालेज में लिखवा लिया. मैं पढ़ने में काफी मेधावी था. 21 वर्ष की अवस्था में मैंने ग्रेजुएशन कर लिया. अब ट्युशन पढ़ाने के साथ साथ नौकरी की तलाश भी करने लगा, मगर नौकरी नहीं मिली. विवश होकर मैं एक प्राइवेट स्कूल में मामूली वेतन पर टीचर बन गया. फिर सबसे पहले मां की नौकरी छुड़वाकर एक अच्छे महल्ले में मकान किराए पर लेकर रहने लगा. उसी मकान में मेरी मुलाकात अनुपमा से हुई थी और....." रीतेश रूक गया और अनुपमा की ओर मुग्ध भाव से देखने लगा. अनुपमा की गर्दन शर्म से झुक गयी. सेठ धनराज की नजरों से उन दोनों का प्रेमालाप छुपा न रह सका.

"रूक क्यों गये.....आगे क्या हुआ बताओ.?" सेठ जी की आवाज सुनकर रीतेश चौंक पड़ा और सकुचाते हुए बोला -"मेरी मां बीमार रहने लगी थी. उनके इलाज के पीछे मैं काफी परेशान रहने लगा था. आज से छः महीने पूर्व मैं उन्हें लेकर दयाल नर्सिंग होम में जा रहा था, तभी अभय की गाड़ी से......!"

"बस रहने दो." सेठजी ने रीतेश रोक दिया -"आगे की कहानी हम सभी लोग जानते हैं." फिर वे अनुपमा की ओर देखते हुए बोले-"अनुपमा बेटी डायरी रग्घू को दो, आगे की कहानी यही सुनाएगा. तुम्हारे हाथ की बनी हुई चाय पीने की इच्छा हो रही है, यदि तुम बुरा न मानो तो....!"

"दादा जी, मुझे शर्मिंदा न करें, यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा." अनुपमा उठकर तेजी से बाहर निकल गयी.

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क्रमशः.........!

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