धारावाहिक उपन्यास


-रामबाबू नीरव 

भैय्या मुझे लेकर अपने घर आ गये. जिस समय मैं विधवा के लिवास में ‌बैल गाड़ी से अपने घर के बाहर उतरी, सैकड़ों की संख्या में आस-पड़ोस की औरतें वहां एकत्रित हो कर मेरे इस वैधव्य रूप पर संवेदना प्रकट करती हुई आंसू बहाने लगी. मगर जीबछी काकी को मेरे इस वैधव्य रूप पर तनिक भी ‌दया न आयी और अपने स्वभाव के अनुरूप वह शुरू हो गयी -"लो ससुराल में वास न हुआ तो फिर आ गयी कुलक्षिणी यहीं. अपने मां-बाप के साथ साथ भतार को तो खा ही गयी, अब न जाने किसको खाने आयी है.?" मगर इस बार उसकी इन जली-कटी बातों का मुझ पर कुछ भी असर न पड़ा. अपने ससुराल में मैं इतना कुछ सुन चुकी थी कि अब मेरे हृदय के साथ साथ शरीर भी पाषाण से भी अधिक कठोर हो चुका था और आंखों से बहने वाले ऑंसुओं का समंदर भी सूख चुका था. मैंने मन ही मन कठोर निर्णय ले लिया कि अब अपने दुर्भाग्य पर एक भी बूंद ऑंसू न बहाऊंगी और न ही मुंह से उफ तक निकालूंगी. लेकिन जैसे ही घर के अंदर से रीतेश निकल कर बाहर आया और "बुआ..बुआ कहते हुए  मुझसे लिपट कर बेशुमार ऑंसू बहाने लगा तब मेरा  निर्णय बालू की भीत की तरह ढ़ह गया. उससे लिपटकर मैं फूट फूट कर रो पड़ी. बड़ी मुश्किल से भाभी ने मुझे संभाला और घर के अंदर ले आयी. अचानक भैय्या की आवाज मेरे कानों में पड़ी. वे भाभी से कह रहे थे -"रीतेश की मां.... तुम्हें मेरी सौगंध है, मेरी लाडली बहन माया को तनिक भी तकलीफ मत होने देना, यह जैसे भी जीना चाहे, इसे जीने देना. मैंने अपने ही हाथों से अपनी बहन की दुनिया में आग लगा दी. अब दुबारा इसकी शादी भी न होगी. हे भगवान यह कैसा पाप हो गया मुझसे." वे दीवार पर सर पटक पटक कर रोने लगे.

"अब बस भी कीजिए जी, सर पटकने से क्या होगा?" उनके साथ साथ भाभी भी रोने लगी. भैय्या और भाभी की हालत देखकर मेरा कलेजा फटने लगा. भैय्या की पीठ पर स्नेह से हाथ फेरती हुई मैं बोली -"भैय्या मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा सुख और ऐश्वर्य तो मेरे पति के साथ ही चला गया. इस घर के किसी कोने में थोड़ी सी जगह दे दीजिएगा और जीने के लिए सुबह-शाम दो दो‌ रोटियां दे‌ दीजिएगा बस इसी में  गुजारा कर लूंगी मैं." मेरे इन चंद शब्दों में ही मेरे दिल का दर्द उनके समक्ष प्रकट हो गया . वे मुझे अपनी आगोश में भींचते हुए बोले.- "मेरी बहन यदि मेरा वश चलता तो मैं अभी तुम्हारी दूसरी शादी करवा देता, मगर इस समाज के रीति-रिवाजों के समक्ष मैं मजबूर हूं."

"भैय्या यदि आप मुझे खुश देखना चाहते हैं तो कसम खाईए कि आज के बाद से आप मेरे दुर्भाग्य पर ऑंसू नहीं बहाएंगे. मैं अपनी पूरी जिंदगी रीतेश के सहारे जी लूंगी."

"ठीक है बहन, तुम कहती हो तो अब मैं नहीं रोऊंगा. बस तुम खुश रहना." 

हम दोनों भाई बहन के इस कसम पर भाभी भी खुश हो गयी.

   हमारे परिवार में इतना बड़ा हादसा हो गया, मगर मेरे छोटे भैय्या ने एक बार भी पलट कर मुझे देखना तक मुनासिब न समझा कि उनकी छोटी बहन जिंदा भी है कि मर गयी, जबकि बड़े भैय्या ने कई बार उन्हें संवाद भेजवाया था और अंतिम बार तो एक आदमी को भी भेजा था. फिर  भी वे आए. न जाने वे किस मिट्टी के बने थे. उन्हें उनकी पत्नी ने अपनी मुठ्ठी में कर रखा था, शायद ऐसे ही पुरुषों को जोरू का गुलाम कहा जाता है.

                 ******

विधवा होने बाद तरह की सामाजिक बंदिशों में मुझे जकड़ दिया गया. न तो मैं चूड़ियां पहन सकती थी और न ही रंग-बिरंगी साड़ियां. मैं किसी भी शुभ कार्यक्रमों में भी भाग लेने की हकदार नहीं रह गयी. मंदिर  के अंदर जाकर पूजा अर्चना करने का अधिकार भी मुझसे छीन लिया गया.  जीबछी काकी जैसी कर्कशा औरतें मुझे देखकर न सिर्फ नाक-भौंह सिकोड़ लिया करती बल्कि जमीन पर थूक भी देती. उस समय मुझे ऐसा लगता जैसे उन औरतों ने जमीन पर नहीं बल्कि मेरे मुंह पर थूक दिया हो. एक विधवा स्त्री का जीवन कितना त्रासदीपूर्ण होता है, स्वयं विधवा होने के पश्चात ही मुझे इस सत्य का ज्ञान हुआ. हमारे गांव में तो कई विधवाएं थीं, परंतु उन औरतों ने दाम्पत्य जीवन का सुखोपभोग किया था, लेकिन मैं.... मैं तो ऐसी अभागिन निकली कि यह भी न जान पायी कि सुहागरात क्या होता है ? पति और पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होते हैं.? खैर जो होना था वह तो हो चुका, अब जिन्दगी का लम्बा सफर मुझे इस हाल में ही व्यतीत करना था. 

कहीं भी मेरा आना जाना तो मेरा बंद ही हो चुका था. जीबछी काकी के ताने सुनने के डर से मैं अपने घर के दरवाजे पर भी न जाया करती थी. इसी समय मेरे जीवन में एक और भयानक तूफान आ गया. मैं तो अपनी समस्त इच्छाओं और कामनाओं का परित्याग कर चुकी थी. परंतु एक कुंवारी लड़की वह भी पूर्ण युवती, क्या अपनी कामोत्तेजना पर काबू रख सकती है.? हां रख सकती है, तब तक जब तक की उसकी सुप्त कामोत्तेजना से खिलवाड़ करने वाला कोई उसकी जिंदगी में न आया हो. अब तक मैं इस तरह की भावनाओं से अछूती थी, मगर आखिरकार मेरी उन सुप्त भावनाओं से खिलवाड़ करने वाला एक शख्स आ ही गया.

मेरे घर के बगल में श्रीकांत झा जी का घर था. वे मेरे भैय्या से उम्र में बड़े थे. मैं उन्हें भी भैय्या कहकर पुकारा करती थी. श्रीकांत भैय्या किसी अंचल के कर्मचारी थे, इसलिए अक्सर घर से बाहर ही रहा करते थे. उनकी पत्नी का स्वभाव भी बिल्कुल मेरी बड़ी भाभी की तरह ही निर्मल था. 

मैं तो घर से बाहर निकलती न थी. हां, जब मन काफी खिन्न हो जाता तब भाभी से अनुमति लेकर अपने छत पर से उनके छत पर चली जाती फिर सीढ़ी के सहारे नीचे आ जाती और काफी देर तक अर्पणा भाभी के साथ बातें करती रहती. अर्पणा भाभी काफ़ी हंसमुख थी. हर समय मुझे हंसाने की चेष्टा किया करती. उनकी तीन संतानें थी. एक बेटी और दो बेटे. बड़ी बेटी थी, जो उस समय लगभग तेरह वर्ष की हो चुकी थी. उनकी बेटी और बेटों से भी मैं काफी घुल-मिल गयी थी. वे सब भी रीतेश की तरह ही मुझे भी बुआ कहकर बुलाया करते थे. अर्पणा भाभी कभी भी बिना चाय-नाश्ता कराये हुए मुझे वापस नहीं आने दिया करती थी. एक दिन दोपहर के समय मैं उनके घर पहुंची, तब एक युवक को उनके घर के बरामदे पर बैठा देखकर मैं बुरी तरह से चौंक पड़ी. वह युवक मुझे कुछ कुछ जाना पहचाना सा लगा, फिर भी उसे देखकर मैं सिटपिटा गयी और मुड़कर उल्टे पांव लौटना चाह ही रही थी कि अर्पणा भाभी ने झट से मेरी कलाई थाम ली और हंसती हुई बोल पड़ी -"तू भागी कहां जा रही है माया. यह कोई गैर नहीं, मेरा छोटा भाई अरविन्द है." अरविन्द का नाम सुनते ही मैं सर से लेकर पांव तक कांप गयी. फिर शीघ्र ही खुद को संभाल कर अपने  दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन करती हुई मृदुल स्वर में बोल पड़ी -"नमस्ते...."

"जी नमस्ते." अरविन्द ने भी मुस्कुराकर मेरे अभिवादन का प्रतिउ दिया -"आइए, बैठिए." 

"नहीं.... मुझे काम है, मैं जाती हूं." मैं शर्म से छुई-मुई होती हुई भाभी की पकड़ से अपनी कलाई छुड़ाकर जाने लगी. 

"यह क्या बचपना है माया, अभी आई और अभी चल दी. कमसे कम चाय तो पीकर जाओ." 

"नहीं भाभी, मुझे जाने दीजिए, फिर आऊंगी."

मैं पलटकर सीधा सीढ़ी की ओर भाग खड़ी हुई. भाभी की बातें मेरे कानों में पड़ रही थी -"बड़ी शर्मिली है माया और भोली-भाली भी, फिर भी भगवान ने न जाने क्यूं इस मासूम के साथ इतना भारी अन्याय कर दिया." अरविन्द कुछ बोला तो नहीं मगर उसके मुंह से निकला हुआ दर्दनाक मौत उच्छवास देर तक मेरा पीछा करता रहा. मैं अरविन्द को देखकर इतनी नर्वस हो चुकी थी  कि मेरे पांव लड़खड़ाने लगे थे. जैसे तैसे सीढ़ियां चढ़ती हुई मैं छत पर आ गयी. मेरा दिल बड़ी तेजी से धड़कने लगा था. कुछ पल मैं छत पर ही रूक कर अपने दिल की धड़कन को शांत करने की चेष्टा करने लगी. मुझे डर था कि कहीं मेरी भाभी इस हालत में मुझे देख न ले. जब मेरे दिल की धड़कन कुछ कम हुई तब मैं नीचे उतरी और अपने कमरे में आकर निढाल सी बिस्तर पर गिर पड़ी. यह अरविन्द क्यों आ गया मेरी ज़िन्दगी में. यह वही अरविन्द था, जिसके साथ मैंने अपनी किशोरावस्था के की खुशगवार पल गुजारे थे. वह मुझसे मजाक करते हुए कहा करता -"बोल माया बोल संगम होगा कि नहीं." और मैं उसे मारने के लिए दौड़ती तो वह हंसते हुए भाग जाता. शाम के समय जब रीतेश स्कूल से वापस आ गया तब मैं उसके साथ खेलने में व्यस्त होकर अरविन्द को भूलने का प्रयास करने लगी. दो दिनों तक मैं अर्पणा भाभी के घर नहीं गयी. मैंने समझा था कि दो-तीन दिनों बाद वह चला जाएगा, मगर मैं क्या जानती थी कि वह मेरे वैधव्य रूपी तपस्या को भंग करने के लिए आया है. तीसरे दिन मैं अपने छत पर भींगे हुए कपड़े सूखने के लिए डाल रही थी. इस काम में मैं इतनी तल्लीन थी कि मुझे इस बात का एहसास ही न हुआ कि अरविन्द मेरे पीठ पीछे आकर खड़ा हो चुका है. 

"माया.....?" उसकी गंभीर आवाज सुनकर मैं बेतरह चौंक पड़ी और पलट कर उसकी ओर देखने लगी. उसे अपने सामने देखकर  मेरी हालत खराब हो गयी. मैं सूखे पत्ते की तरह कांपने लगी. यदि किसी ने उसे मेरे साथ देख लिया तो क्या  होगा.? मुझे दूसरे किसी का उतना भय नहीं था, जितना कि जीबछी काकी का. हे भगवान, अरविन्द मेरे पीछे क्यों पड़े गया है.... क्यों यह इस निष्ठुर समाज के समक्ष मुझे ज़लील करने पर तुला हुआ है.?

"देखिए, आप मेहरबानी करके यहां से चले जाइए." साहस बटोरकर मैं उसे झिड़कती हुई बोली. यदि वह अर्पणा भाभी का भाई न रहा होता तो मैं उसकी इस धृष्टता की ऐसी सजा देती कि वह जिन्दगी भर न भूलता. 

"क्यों..... क्यों चला जाऊं मैं?" वह भी मेरी तरह ही उत्तेजित हो गया. उसकी उत्तेजना देखकर मैं ‌दंग रह गयी. मेरे प्रति उसके मन में कोई ग़लत धारणा न थी. प्रथम दिन ही मैं उसके चेहरे के भाव और उसकी शालीनता देखकर समझ गयी कि यह आवारा किस्म का युवक नहीं है. फिर भी उसका इस तरह से एकांत में आकर मुझसे मिलना सामाजिक मर्यादाओं का उलंघन करने जैसा अपराध था.  और इस अपराध के लिए हमारे समाज के ठेकेदारों ने कठोर नियम बनाए थे. 

"देखो अरविन्द मैं विधवा हूं और किसी विधवा से इस तरह अकेले में मिलना दंडनीय अपराध है." हालांकि मैं दृढ़ स्वर में बोल रही थी फिर भी न जाने क्यूं मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं अरविन्द के समक्ष पराभूत होती जा रही हूं. मेरा सारा अंग शिथिल पड़ने लगा. 

"हां मैं भी जानता हूं कि यह अपराध है, फिर भी मैं यह अपराध करूंगा, क्योंकि इस निष्ठुर समाज ने सिर्फ औरतों को कुचलने के लिए एक तरफा नियम बनाए हुए हैं, जिन नियमों को मैं नहीं मानता." ऐसी निर्भीक और सच्ची बातें कहते समय उसके चेहरे पर जो तेज उभरा उसे देख कर मैं दंग रह गयी. वह जोश में आकर बोलता जा रहा था -"तुम्हें इस डपोरशंखी समाज का डर है, मगर मुझे नहीं है. लोग कहते हैं कि तुम्हारे साथ भगवान ने अन्याय किया है, लेकिन मैं कहता हूं कि तुम्हारे साथ रुढ़िवादिता से ग्रस्त इस ढोंगी और पाखंडी समाज ने अन्याय किया है. तुम ही बताओ जब किसी पुरुष की पत्नी मर जाती है तब वह दूसरी शादी करता है या नहीं. जब विधुर पुरुष दूसरी शादी कर सकता है, तब विधवा स्त्री दूसरी शादी क्यों नहीं कर सकती है? यह औरतों के साथ अन्याय है या नहीं, मैं तुम्हें न्याय दिलवाऊंगा."

"नहीं चाहिए मुझे न्याय." मैं हल्के स्वर में चीख पड़ी -"तुम्हें तुम्हारे इष्ट देव की कसम, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. मैं इस संसार की सबसे अभागिन औरत हूं....लोग मेरी परछाई से भी दूर भागते हैं." मेरे हृदय का उत्ताप इतना बढ़ गया कि मैं छत पर बैठकर करुण विलाप करने लगी. 

"उठो माया." उसने लपककर मेरी कलाई पकड़ ली. मेरा सम्पूर्ण शरीर झनझना उठा. जिसने मेरी मांग भरी, अग्नि को साक्षी मानकर मेरे साथ साथ फेरे लिए, मेरे गले में मंगलसूत्र डाला उसने तो मेरे शरीर का स्पर्श तक न किया, मगर यह अरविन्द जिससे मेरा दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है इसने मेरी कलाई पकड़ ली, किस अधिकार से इसने ऐसा किया? मैं क्रुद्ध आंखों से उसे घूरने लगी. मगर वह मेरे क्रोध से लापरवाह अपनी ही शय में बोलता चला गया -"तोड़ दो इन सामाजिक बंदिशों को, ठोकर मार दो समाज की सड़ी-गली रुढ़िवादी मान्यताओं को. पुरुष प्रधान यह निष्ठुर समाज तुम्हें चैन से जीने नहीं देगा. मेरा विश्वास करो, मैं तुम्हें सहारा दूंगा, मैं ‌विवाह करूंगा तुम से."

"नहीं.... नहीं, ऐसा नहीं हो सकता." मैं विक्षिप्त की तरह चीख पड़ी और एक ही झटके में उसके हाथ से अपनी कलाई छुड़ाकर सीढ़ी की ओर भाग खड़ी हुई. भाभी उस समय रसोई घर में थी. मैं अपने कमरे में आकर पुनः बिछावन पर औंधे मुंह गिर पड़ी. मेरे दिल का उत्ताप बढ़ गया और पूरा शरीर दहकने लगा. क्या मैं इस पाखंडी समाज से विद्रोह कर दूं.  नहीं.... नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती. ऐसा करने से मेरे भैय्या की मान-मर्यादा मिट्टी में मिल जाएगी. समाज के तथाकथित ठेकेदार उन पर थूकने लग जाएंगे. ओह हे भगवान, मैं क्या करूं ? यह अरविन्द क्यों मेरी ज़िन्दगी में आ गया.? मेरी ऑंखों से बेशुमार ऑंसू बहने लगे. तभी मैं बुरी तरह से चौंक पड़ी. मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे कोई अपने कोमल हाथों से मेरी पीठ सहला रही हो. पहले तो मुझे लगा कि मेरी भाभी होगी, लेकिन पलट कर जब देखी तब मेरी ऑंखें हैरत से फटी की फटी रह गयी. वह सुनंदा थी, मेरे बचपन की सहेली और अर्पणा भाभी की ननद यानि श्रीकांत भैय्या की छोटी बहन. जब यह सत्रह साल की थी, तभी इसकी शादी हो गयी थी और अब यह दो बच्चों की मां भी बन चुकी थी. मेरी समझ में न आया कि यह अचानक कैसे आ गयी? मुझे आज भी याद है, बालपन में इसके साथ मैं और अरविन्द ऑंख-मिचौनी खेला करते थे. मैं झटके में उठकर बैठ गयी, वह भी बिस्तर पर बैठ चुकी थी और मेरी ठुढी उठाती हुई बोली -"माया, यह कैसी हालत बना ली है तूने अपनी?" 

"सुनंदा, मैं अभागिन....!" मैं अभी इतना ही बोल पायी थी ‌कि वह कि उसने मुझे जोर से डपट दिया -"चुप, खबरदार अपने मुंह से दुबारा ऐसे अपशब्द निकाली तो मुझ से बुरा कोई न होगा.  तुम्हारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और तुमने इसकी सूचना तक मुझे देना मुनासिब नहीं समझा क्या इन तीन वर्षों में ही ‌मैं इतनी परायी हो गयी.?" सुनंदा की ऑंखों से ऑंसुओं की निर्मल धारा प्रवाहित होने लगी. मैं भी स्वयं को रोक न पायी ‌और‌ उससे लिपट कर फूट फूटकर रोने लगी. हम दोनों का क्रंदन मालती भाभी सुन ली थी, वे दौड़ती हुई वहां आ गयी  और हम दोनों को अलग करती हुई बोली -"सुनंदा तुम्हें तो अपनी सहेली को हंसाना चाहिए था, उल्टा तुम इसे रूलाने लगी. "

"भाभी.....!" सुनंदा अपने ऑंसू पोंछती हुई बोली -"इसे हंसाने और इसकी जिंदगी संवारने के लिए ही तो मैं यहां आयी हूं. आज के बाद से अपनी सहेली को खुश रखने की जिम्मेदारी मेरी है. आप जाइए अपना काम‌ देखिए."

"ठीक है मैं जाती हूं और तुम लोगों के लिए चाय भेज देती हूं." 

"नहीं भाभी, हमें कुछ नहीं चाहिए आपसे विनती है कि कुछ देर के लिए हम-दोनों को अकेली छोड़ दीजिए."

"ठीक है." भाभी चली गयी. उनके जाने के बाद सुनंदा मुझ पर बिफर पड़ी -"क्यों री, क्या इसी हाल में अपनी जिन्दगी बिताएगी.?"

"तो तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं!" मेरे मुंह से सर्द आवाज निकली. 

"जा, भाग जा अरविन्द के साथ." 

"सुनंदा....! तुम होश में तो हो?" मैं उस पर गुर्राने लगी.

"हां, मैं बिल्कुल होश में हूं. तुम अपना होश खो बैठी हो. तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है और तुम इस ढोंगी समाज की दकियानूसी मान-मर्यादा का रोना रो रही हो. आज तुम्हारे भैया भाभी हैं, तो ठीक है, कल जब ये लोग नहीं रहेंगे तब तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा, कभी सोचा है तुमने.? वे ढोंगी और पाखंडी लोग जिन्होंने हम औरतों को दबाने और कुचलने के लिए तरह तरह के कायदे और कानून बनाएं हैं, वे ही लोग तुम्हारे जिस्म को‌ नोंचने के‌ लिए बेताब नजर आने ‌लगेंगे. यह तो गनीमत है कि ईश्वर भी तुम पर मेहरबान हैं जो उन्होंने तुम्हारी  हिफाज़त के लिए अरविन्द के रूप में एक फरिश्ता को भेज दिया है. मेरे साथ साथ तुम भी तो उसे जानती हो, वह बचपन से ही विद्रोही स्वभाव का है. समाज की क्रूरता से लड़ने की ताकत है उसमें. यदि इस लड़ाई में वह शहीद भी हो जाए तो उसे परवाह नहीं. समाज में व्याप्त कुरीतियों को बदलने के लिए किसी न किसी को तो शहादत देनी ही होगी "

सुनंदा की ऐसी ओजस्वी बातें सुनकर मैं दंग रह गयी. इतनी सारी बातें यह सीख कहां से गयी. मैंने तो सोचा था कि यह मेरे तप्त हृदय पर शीतल जल का छिड़काव कर मेरे उत्ताप को कम कर देगी, मगर इसने तो उसे और भी बढ़ा दिया. 

"कुछ मत सोच माया, अपने जीवन को‌ नर्क मत बनने दे. इससे अच्छा मौका तुम्हें नहीं मिलेगा, जा भाग जा अरविन्द के साथ."

"सुनंदा, मेरे भाग जाने से भैय्या की इज्जत....!"

"चुप, इस संसार का हर प्राणी सिर्फ अपने लिए जीता है. तुम्हारे भाग जाने के बाद यहां क्या होगा और क्या नहीं, इसकी चिंता तू क्यों करती है? तू किसके साथ भागी है, इसकी खबर किसी को भी नहीं होगी. अर्पणा भाभी भी यही चाहती है कि तू उनकी भाभी बन जाए." 

"तो क्या अरविन्द को....?" मैं भौंचक सी होकर उसे घूरने लगी. 

"हां, उन्होंने न सिर्फ अरविन्द को ही नहीं बल्कि तुम्हें समझाने के लिए मुझे भी बुलवाया है."

"ओह.....!" मेरे मुंह से दर्दनाक उच्छवास निकल पड़ा और मैं सुनंदा की गोद में मुंह छुपा कर पुनः रोने लगी.  

               ∆∆∆∆∆

क्रमशः.....!

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