उत्तर भारत के कई राज्य बार-बार बाढ़ की विभीषिका झेलते हैं, लेकिन हर बार नुकसान झेलने के बावजूद स्थायी समाधान की दिशा में ठोस पहल नज़र नहीं आती। 2023 की बाढ़ के बाद भी करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों की सफाई, नालों की निकासी और जल प्रबंधन की योजनाएं अधूरी पड़ी रहीं। नतीजा यह कि 2025 में एक बार फिर लाखों किसान अपनी मेहनत की फसल डूबते देख मजबूर हुए। सवाल यह है कि जब बाढ़ का खतरा बार-बार दस्तक देता है तो हमारी नीतियां क्यों स्थायी हल नहीं तलाश पातीं?

---डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा में 2025 की बाढ़ कोई अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदा नहीं थी। यह वही त्रासदी है, जिसकी पुनरावृत्ति राज्य 1978, 1988, 1995, 2010 और हाल ही में 2023 में झेल चुका है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। केवल पिछले दो वर्षों में 657 करोड़ रुपये बाढ़ प्रबंधन पर खर्च किए गए, फिर भी इक्कीस जिलों के सैकड़ों गांव पानी में डूबे रहे, साढ़े चार लाख से अधिक किसानों की छब्बीस लाख एकड़ से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई, हजारों परिवार बेघर हो गए और तेरह लोगों की जान चली गई। हर बार यह सवाल उठता है कि आखिर सरकारें और तंत्र क्यों एक ही गलती बार-बार दोहराते हैं और पिछले अनुभवों से सबक क्यों नहीं लेते।

बाढ़ कोई अचानक आई विपत्ति नहीं है, बल्कि एक अनुमानित और बार-बार आने वाला खतरा है। नदियों का उफान, बरसाती नालों का रुख बदलना और निकासी व्यवस्था का ध्वस्त होना ऐसी समस्याएं हैं, जो पहले से ज्ञात हैं और जिनका समाधान वर्षों से टलता आ रहा है। 2023 की बाढ़ के बाद सरकार ने बड़े दावे किए थे कि स्थायी समाधान के लिए ड्रेनेज सुधार, तटबंध मजबूत करने और नालों की गहराई बढ़ाने का काम प्राथमिकता पर होगा। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकांश योजनाएं अधूरी रहीं और जो शुरू हुईं वे भ्रष्टाचार या लापरवाही की भेंट चढ़ गईं।

इस अव्यवस्था का सबसे गहरा असर किसानों पर पड़ा है। खरीफ सीजन की धान, बाजरा और गन्ने जैसी फसलें पूरी तरह चौपट हो गईं। औसतन एक किसान को प्रति एकड़ पंद्रह से बीस हजार रुपये का नुकसान हुआ। इसके साथ ही पशुधन की मौतें, घरों के ढहने और बुनियादी ढांचे के टूटने से हालात और बिगड़ गए। उद्योग जगत भी इससे अछूता नहीं रहा। अंबाला और यमुनानगर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में कारखानों और गोदामों में पानी भर गया, जिससे करोड़ों का नुकसान हुआ और हजारों मजदूर रोजगार से वंचित हो गए।

इस स्थिति के पीछे प्रशासनिक लापरवाही सबसे बड़ा कारण है। हरियाणा सरकार के पास न तो गांव-स्तरीय निकासी योजना है और न ही कोई स्थायी रणनीति। मानसून से पहले नालों की सफाई करने की बजाय दिखावटी काम किए जाते हैं। कई जगह ड्रेनेज सिस्टम सालों से जाम पड़े हैं। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों और नालों का प्रवाह जस का तस है। इसके अलावा सिंचाई विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल का अभाव स्थिति को और गंभीर बना देता है। हर विभाग अपने-अपने दायरे में काम करता है, लेकिन समन्वय के अभाव में कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आता।

जल प्रबंधन विशेषज्ञों का मानना है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिए व्यापक और दीर्घकालिक रणनीति बनाना अनिवार्य है। डॉ. शिव सिंह राठ जैसे विशेषज्ञ स्पष्ट कहते हैं कि नदियों की नियमित ड्रेजिंग, बरसाती नालों का वैज्ञानिक पुनर्निर्माण और गांव स्तर तक जल निकासी प्रणाली का निर्माण ही स्थायी समाधान दे सकता है। पर्यावरणविदों का भी यही तर्क है कि नदियों के तटों पर अनियंत्रित अतिक्रमण और अवैध निर्माण बाढ़ की विभीषिका को और बढ़ा देते हैं। जब तक नदियों को उनका प्राकृतिक बहाव नहीं लौटाया जाएगा, तब तक यह त्रासदी बार-बार लौटकर आती रहेगी।

किसानों और आम लोगों की पीड़ा आंकड़ों से कहीं ज्यादा गहरी है। हजारों परिवार महीनों तक राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है, महिलाओं और बुजुर्गों की सेहत बिगड़ती है और मजदूर वर्ग बेरोज़गारी का शिकार हो जाता है। इस बार भी छह हजार से ज्यादा गांव पानी में डूबे और करीब अट्ठाईस सौ लोग विस्थापित हुए। कल्पना कीजिए, जब इतनी बड़ी संख्या में लोग अपने घर-बार से उजड़ते हैं, तो उनकी मानसिक और सामाजिक स्थिति किस हद तक डगमगा जाती होगी।

सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब 2010 और 2023 जैसी बड़ी बाढ़ें आ चुकी थीं, तो 2025 में वही गलती दोहराने का औचित्य क्या था। असल कारण साफ हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने इस मुद्दे को कभी चुनावी एजेंडा नहीं बनने दिया। सरकारों का दृष्टिकोण हमेशा अल्पकालिक रहा। हर साल राहत और पुनर्वास पर खर्च होता रहा, लेकिन स्थायी संरचनाओं पर निवेश नहीं हुआ। इसके साथ ही भ्रष्टाचार और संसाधनों की बर्बादी ने हालात और बदतर कर दिए।

अगर सचमुच स्थायी समाधान चाहिए तो राज्य को ठोस कदम उठाने होंगे। एक स्वतंत्र नदी प्रबंधन आयोग का गठन करना होगा, जो नदियों और नालों की सफाई, तटबंध निर्माण और निगरानी जैसे काम नियमित रूप से करे। हर पंचायत स्तर पर ड्रेनेज योजना तैयार की जानी चाहिए और उसका कड़ाई से पालन सुनिश्चित होना चाहिए। तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सैटेलाइट मैपिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित पूर्वानुमान और रीयल-टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम लागू करना होगा। स्थानीय लोगों की भागीदारी से नालों की सफाई और तटबंधों की देखरेख सुनिश्चित करनी होगी। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि राहत पैकेज पर अरबों रुपये खर्च करने के बजाय स्थायी ढांचे और संरचनाओं पर निवेश किया जाना चाहिए।

दरअसल बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, यह मानवीय लापरवाही और नीतिगत असफलता का परिणाम भी है। हरियाणा ने नौ बार बाढ़ झेली, लेकिन हर बार केवल आंकड़े गिनने और वादे करने तक ही बात सीमित रही। किसानों की पीड़ा, उद्योगों का नुकसान और विस्थापित परिवारों की त्रासदी हमें यह बताती है कि अब आधे-अधूरे उपायों से काम नहीं चलेगा। सरकार और समाज को मिलकर व्यापक, वैज्ञानिक और दीर्घकालिक बाढ़ प्रबंधन नीति अपनानी ही होगी, वरना 2027 या 2030 में फिर यही खबर पढ़नी पड़ेगी—“एक और बाढ़, एक और नुकसान और एक और अधूरा वादा।”

Next
This is the most recent post.
Previous
Older Post

0 comments:

Post a Comment

 
Top