थियेटर का प्रोग्राम अब पूरे शबाब पर आ चुका था. अमित खन्ना ने गलत नहीं कहा था, इस थियेटर कम्पनी के सभी कलाकार एक से बढ़कर एक थे. खुद अमित खन्ना भी तो किसी से कम न था. उसकी उच्च स्तरीय उद्घोषणा के दर्शक कायल हो गये. कंचन की तरह उसे भी वाह वाही के साथ साथ अच्छी खासी बख्शीश भी मिली. बख्शीश पाकर खन्ना के जैसे पंख उग आये और वह आकाश की अनंत ऊंचाई को छूने की कोशिश करने ‌लगा - 

"दोस्तों, हमारी कम्पनी हिन्दुस्तान के कोने-कोने में अपनी कामयाबी का परचम लहराने के बाद आपके ‌शहर में आयी है. सचमुच आप लोग सिर्फ कलाप्रेमी ही नहीं बल्कि दिलदार भी हैं. आप लोगों की दरियादिली को इस नाचीज़ का सलाम. तो आइए हमारे अगले फ़नकार हैं बाबू मोशाय यानी समीर बदायुनी. समीर दादा सदाबहार अभिनेता शम्मी कपूर साहब की याद ताजा करने आ रहे हैं. तो दोस्तों समीर दादा के लिए हो जाए जोरदार तालियां." इसके साथ ही जंगली स्टाइल में स्टेज पर कूद पड़े समीर दा.

"या हू.......या हू.....!

याहू.....चाहे कोई मुझे जंगली कहे,

कहने दो जी कहता रहे,

हम प्यार के तूफानों में घिरे हैं 

आओ प्यार करें.....या हू....!"

समीर दा के इस "या हू" पर प्रथम श्रेणी के युवा दर्शक अपनी अपनी सीट पर उछलने कूदने लगे. या हू गीत के समाप्त होते ही समीर जंगली से राजकुमार बन गया -

"जानेवाले जरा होशियार 

यहां के हम हैं राज कुमार 

ओएऽऽ होएऽऽ 

आगे पीछे हमारी सरकार 

यहां के हम हैं राजकुमार.....!"

समीर दा का यह गीत अभी समाप्त ही हुआ था कि पायल की झंकार करती हुई आ गयी मीनाक्षी. परियों जैसे श्वेत परिधान में वह इतनी आकर्षक दिख रही थी कि बरबस ही दर्शक उसकी ओर मुखातिब हो गये. वह मनभावन नृत्य करती हुई मुस्कुराने लगी. संगीत का सुर बदल गया और समीर दा के गाने का अंदाज भी-

"ऐ फूलों की रानी बहारों की मल्लिका 

तेरा मुस्कुराना गजब हो गया... न दिल होश में हैं न हम ह़ोश में हैं 

नजर का मिलाना गजब हो गया."

मंच पर समीर दा और मीनाक्षी का ऐसा मनमोहक कार्यक्रम चल रहा था, मगर अभय को कुछ होश ही ‌न था. वह सिर्फ और सिर्फ कंचन के ख्यालों में खोया हुआ सुखद स्वप्नलोक में विचरण कर रहा था. ठंड भी काफी थी. उससे तीन कुर्सियां आगे बैठे थे मोहनबाबू, त्रिपाठी जी, अमित खन्ना और एस. एन. मूर्ति जी. वे सभी ठंड से सिकुड़े हुए समीर और मीनाक्षी का कार्यक्रम देख रहे थे. कभी कभी मोहन बाबू उचटती हुई नजरों से अभय को देख लिया करते. अपने  जीवन के पचास बसंत  देख चुके मोहनबाबू काफी अनुभवी थे. अभय के दिल की हालत उनसे छुपी न रही सकी. क्षणभर के मुलाकात में कंचन और अभय के बीच बन गयी इस घनिष्ठता को देखकर वे अंदर ही अंदर मर्माहत हो चुके थे. अभय ने‌ जो अपनी अंगूठी निकालकर कंचन को पहनाया था, यह भी मोहन बाबू की नजर में अच्छा न था. 

अभय इस शहर के सबसे आला खानदान से ताल्लुक रखता था. और कंचन थी इस थियेटर की मामूली सी नर्तकी. इन दोनों का कोई मेल ही न था. अगर कंचन ने अभय का दिल तोड़ दिया तो गजब हो जाएगा.

"कॉफी.....!" अचानक कंचन की आवाज सुनकर अभय की तंद्रा भंग हो गयी. उसके सामने कॉफी का ट्रे लिये हुई कंचन खड़ी थी. वह आश्चर्यचकित रह गया. कंचन उसके लिए कॉफी भी लाएगी इसकी रत्ती भर भी आशा न थी उसे. ट्रे में कॉफी के छः कप थे. अभय समझ गया कि अन्य कप मोहन बाबू और उनके साथ बैठे अन्य लोगों के लिए है. 

"थैंक्स कंचन जी." कंचन का आभार व्यक्त कर रहे हुए वह विनम्र  स्वर में बोला -"कंचन जी, कॉफी पहले मोहन बाबू और उनके साथ बैठे वरिष्ठ लोगों को देना चाहिए था."

"हां हां, उन लोगों को भी देती हूं, पहले आप तो लीजिए."

"नहीं पहले उन लोगों को दीजिए, वे लोग बड़े हैं."

"वे लोग बड़े हैं, मगर आप अतिथि हैं."

"जिद छोड़िए कंचन जी, जाइए पहले उन्हें दीजिए." मजबूर हो गयी कंचन. वह ट्रे लिए हुई आगे बढ़ गयी. मोहन बाबू अभय की सारी गतिविधियों को देख रहे थे. उसकी इस व्यवहार कुशल शिष्टाचार को देखकर वे भाव-विभोर हो उठे. वे समझ नहीं पाए कि ऐसा सज्जन युवक आखिर जीतन बाबू से झगड़ क्यों पड़ा था.? उन्होंने चुपचाप कप ले लिया. त्रिपाठी जी, खन्ना और एस. एन. मूर्ति ने भी उनका अनुसरण किया. कंचन पुनः अभय के पास आ गयी और कॉफी का एक कप उसके हाथ में थमाने के बाद दूसरा कप स्वयं लेकर अभय के बगल में बैठ गयी. वे दोनों चुपचाप कॉफी की चुस्की लेने लगे. उधर मंच पर समीर और मीनाक्षी की अदाकारी पर दर्शक झूम रहे थे. तभी समीर और मीनाक्षी की ओर इशारा करती हुई कंचन बोल पड़ी -

"उन दोनों को जानते हैं आप ?"

"भला मैं क्या जानूं....मैं तो अपनी जिंदगी में पहली बार थियेटर देख रहा हूं." अभय ने मासूमियत से जबाब दिया.

"ओह....मैं तो भूल ही गयी थी. खैर बताती हूं." अपनी भूल पर अफसोस प्रकट करतीं हुई कंचन उन दोनों का परिचय देने लगी -" वो लड़का समीर है. मूल रूप से बंगाली है, मगर इसके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बदायुनी शहर में आकर बस गये थे, इसलिए इसने अपना तख़लुस....!"

"यह तख़लुस क्या होता है ?" अभय ने बीच में ही कंचन को टोकते हुए पूछा.

"आप इतना भी नहीं जानते." मुक्त भाव से हंस पड़ी कंचन.

"ऊं हूं.....!" एक दम से भोलानाथ नजर आने लगा अभय. 

"तख़लुस का मतलब होता है उपनाम यानी सरनेम. जैसे आपके नाम के पीछे लगा है न राज, ठीक वैसे ही समीर ने अपने नाम के पीछे  लगाया हुआ है बदायुनी. लेकिन हम लोग प्यार से उसे बाबूमोशाय कहकर पुकारा करते हैं. जितना ही वह उम्दा कलाकार हैं उतना ही अच्छा इंसान भी हैं."

"वाह बहुत तारीफ हो रही है समीर की?" अभय ने परिहास के टोन में कहा.

"क्यों जलन हो रही है ?"  उसके मनोभाव को भांप कर कंचन पुनः हंस पड़ी.

"नहीं नहीं वो बात नहीं है." अभय झेंपते हुए बोला -" अब उस लड़की के बारे में भी तो कुछ बताओ ?"

"उसका नाम मीनाक्षी है. वह नर्तकी के साथ साथ गायिका भी है. एक्टिंग भी बहुत अच्छा करती है. हीर-रांझा सोहिनी-महिवाल नाटक में वह हीर और सोहनी की भूमिका निभाती है."

"और तुम क्या बनती हो.?" अचानक अभय आपसे तुम पर आ चुका था. उसका तुम कहकर पुकारना कंचन को अच्छा लगा. 

"मैं लैला बनती हूं."

"ओह....!" अभय ने एक दीर्घ सांस लिया. उधर तालियों की गड़गड़ाहट से समीर दा और मीनाक्षी का स्वागत हो रहा था और इधर अभय के दिल में हलचल मची हुई थी. अब अपने दोस्तों के बिना उसे यह खुशगवार माहौल फीका फीका सा लगने लगा. वह कंचन से आरज़ू करते हुए बोला -

"कंचन, एक बात कहूं ?"

"हां हां बेतकल्लुफ़ कहिए." कंचन के ऑंखों की पुतलियां नाचने लगी.

"प्लीज़ मेरे उन तीनों दोस्तों को भी यहां बुलवा दीजिए. उनके बिना मेरा मन नहीं लगता."

"बस इतनी सी बात, अभी बुलवा देती हूं." कंचन उठकर मोहन बाबू के पास चली गयी. उनसे गुफ्तगू करने के बाद वह फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गयी. 

"एक बात और कहनी थी.?"

"अब कौन सी बात लह गयी जनाब?"

"जैसे मैंने आपको तुम कहना शुरू किया है, वैसे ही तुम भी मुझे तुम कहो, अच्छा लगेगा."

"मुझसे ऐसा न होगा?"

"तो मैं चला जाऊंगा.'

"ओहो तो जनाब तुनक मिजाज भी हैं. तो चलो आज से तुम मेरे लिए भी तुम हो" इसके साथ ही कंचन खिलखिला कर हंस पड़ी. उसकी  हंसी में साथ दिया अभय ने भी. उसी समय स्टेज पर अपना लाल दुपट्टा लहराती हुई धमाल मचाने आ गयी कल्पना थियेटर की शोख और चुलबुली अदाकारा शहनाज़. -

"हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का हो मोरा लाल दुपट्टा मलमल का.....हो जी, 

हो जी." शहनाज़ की खास तवज्जो जीतन बाबू और उनके दोस्तों की ओर थी. अपनी शोख अदाओं से उसने जीतन बाबू, पारस बाबू, डाक्टर साहब तथा वकील साहब को ऐसा सम्मोहित किया कि वे सब लट्टू की तरह नाचने लगे. फिर तो जीतन बाबू की मंडली ने शहनाज़ पर इतने रूपए लुटाए कि वह निहाल हो गई. 

"अरी हमरी रानी शहनाज़" वीआईपी गैलरी से जीतन बाबू चिल्ला पड़े -"उ गीतवा सुनाओ, ससुरी के यादें नहीं आ रहा है....उ कौन गीतवा था पारस बाबू , छमिया बाई जो सुनाती थी.?"

"अंगुली में डंहले बिया नगिनिया....!" पारस बाबू धीमे स्वर में बोले.

"हां हां.....उहे...उहे...." जीतन बाबू अपनी सीट पर उछलने लगे-"अंगुली में डंसले बिया नगिनिया...."

"शुक्रिया हुजूर." शहनाज़ शोख अदा के साथ जीतन बाबू की टीम को सलाम करती हुई बोली -"आप लोगों की फरमाइश सर ऑंखों पर. यह लोक गीत मेरी भी पसंदीदा है तो लीजिए पेशे खिदमत है यह गीत." संगीत का सुर बदला और इसके साथ ही शहनाज़ मोहतरमा शमशाद बेगम की आवाज में गाती हुई थिरकने लगी. -

"अंगुली में डंसले बिया नगिनिया हेऽऽऽ ननदी, पिया के जगा दऽऽ

पिया के जगा दऽऽ

तनि दियवा जला दऽऽ

पिया के जगा दऽऽ

तनिक दिया चला दऽऽ

रही रही उठेला लहरिया

 हेऽऽ ननदी,

डक्टर वैद्य बोला दऽऽ....

अंगुली में डसले बिया नगिनिया हेऽऽ ननदी......!"

निहाल हो गये जीतन बाबू और उनके सारे दोस्त. वे लोग नीलहा कोठी में छमिया बाई से अनेकों बार इस लोक गीत को सुन चुके थे. लेकिन जो कशिश शहनाज़ की आवाज में है, वो छमिया बाई में न थी. पंडाल के अन्य दर्शकों को भी शहनाज़ ने‌ अपनी शोख अदाओं से अपना मुरीद बना लिया. शहनाज़ के बाद इठलाती, बलखाती और अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेरती हुई एक किशोरी आ गयी. अपनी अंगुली की अंगूठी की ओर  इशारा करती हुई वह गा रही थी -

"अल्ला....अल्ला.... वो ले गया चांदी छल्ला......!

मैं भी उसका दिल ले लूंगी 

हाय इंसा अल्लाह....!"

उसके साथ आयी अन्य नर्तकियां भी उसके सुर से सूर मिलाने लगी 

"अल्ला..... अल्ला ले गया छल्ला."

"इस लड़की को पहचानते हैं आप?" अभय की ओर देखती हुई कंचन ने पूछा.

"न.... नहीं तो ! कौन है यह? "इसका नाम गुलनाज है, यह शहनाज़ की बेटी है."

"क्या कहा शहनाज़ की बेटी?" आश्चर्य से अभय स्टेज पर ठुमके लगा रही गुलनाज को देखने लगा. यह नन्ही सी लड़की तो अपनी अम्मी से दो कदम आगे थी.

"क्यों आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है."

"शहनाज़ की उम्र उतनी तो नहीं लगती?"

"यह थियेटर है अभय बाबू, मेकअप और तीव्र रौशनी की चकाचौंध में नर्तकियों की उम्र छुप जाया करती है."

"तो फिर, तुम्हारी उम्र क्या होगी?"

"पचास वर्ष !"

"क्या.....?" अभय की ऑंखे हैरत से फैली की फैली रह गयी. -"तुम झूठ बोलती हो."

"तो ठीक है." कंचन हंसती हुई उठकर खड़ी हो गयी -"आप यहां बैठकर मेरी उम्र का अंदाजा लगाते रहिए, मैं तो चली....!"

"कहां चली.?" अभय ने अनजाने में उसकी कलाई थाम ली. कंचन को ऐसा लगा जैसे उसके अंग प्रत्यंग में विद्युत सी प्रवाहित होने लगी हो."

"ग्रीन रूम में." अपनी कलाई छुड़ाती हुई बोली कंचन -"गुलनाज के बाद मेरा ही प्रोग्राम है. इस बार मैं विकास आनंद के साथ धमाल मचाने आ रही हूं." कंचन ग्रीन रूम की ओर चली गई. उसके जाते ही अभय के तीनों दोस्त पीछे के रास्ते से वहां आ गये और अभय के बगल की खाली कुर्सियों पर बैठ गये.

"थैंक्स अभय." अभय की बाईं ओर वाली कुर्सी पर बैठते हुए दिलीप चापलूसी भरे स्वर में बोला -"तुमने हमलोगों को यहां बुलवा कर बहुत भारी उपकार किया है. उन साले बूढ़ों के साथ हमारा दम घूट रहा था."

"हां यार, हमारा भी यही हाल हो रहा था." शेखर भी चापलूसी करने में पीछे न रहा. अभय कुछ न बोला. चुपचाप स्टेज पर थिरक रही गुलनाज की ओर देखता रहा. सभी गुलनाज को बख्शीश दे रहे थे, जीतन बाबू भी, मगर अभय की जेब में फूटी कौड़ी भी न थी.  एक बहुत बड़ी कंपनी के मालिक सेठ धनराज का एकलौता पौत्र और एमपी किशन राज का एकलौता पुत्र इस थियेटर में आकर शर्मिंदगी महसूस कर रहा था. ऐसा नहीं था कि वह पैसे का मोहताज था. मगर उसके ये चाटुकार दोस्त उसकी जेब में रुपए रहने ही नहीं दिया करते थे. उधर गुलनाज का प्रोग्राम समाप्त हुआ और स्टेज पर नजर आने लगा कंचन के साथ विकास आनंद. संगीत का सुर बदला और इसके साथ ही 

पहले कंचन की सुरीली आवाज गूंजने लगी -

"होऽऽऽओऽऽऽ 

बालम तेरी प्यार की ठंडी हो 

आग में जलते जलते 

मैं तो हार गयी रे, 

मैं तो हार गयी रे....."

इसके बाद समीर आनंद की दिलकश आवाज उभरी -

"होऽऽ लूट लिया दिल तूने मेरा

राह में चलते चलते 

नैना मार गयी रे

नैना मार गयी रे.....!"

कंचन और विकास आनंद द्वारा प्रस्तुत इस युगल गीत ने भी दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी. विकास भी अभय के दिलो-दिमाग पर छा गया. ऊंची आवाज में विकास से आग्रह करते हुए बोला 

"विकास जी प्लीज़ रफी साहब कोई फड़कता हुआ नगमा सुनाइए -

"जी शुक्रिया अभय बाबू. लीजिए आपके लिए पेश है फिल्म आरज़ू का ये गीत -

"ऐ नर्गिस-ए-मस्ताना 

समझा मुझे दीवाना 

बस इतनी शिकायत है

बस इतनी शिकायत है.....!"

विकास आनंद के इस गीत पर

कंचन  के मनभावन भाव-भंगिमाओं ने साठ के दशक की नामचीन अभिनेत्री साधना की याद दिला दी. अपना प्रोग्राम समाप्त कर कंचन और विकास मंच से नीचे उतरकर सीधा ग्रीन रूम में चले गये.

 अभय दिलीप के कान में फुसफुसाते हुए बोला -"यार शराब की तलब हो रही है."

"शराब की बोतल तो गाड़ी में है, कहो तो ला दूं." दिलीप भी उसी की तरह धीमे स्वर में बोला. 

"नहीं नहीं, यहां नहीं, मोहन बाबू देख लेंगे, चलो गाड़ी में एक एक पैग लेलेते हैं."

"हां, यही ठीक रहेगा, चलो." अभय के साथ साथ उसके तीनों दोस्त भी उठकर खड़े हो गये‌ और पीछे के रास्ते से बाहर निकल गये. मोहन बाबू चकित भाव से उन चारों को देखते रह गये.

                         ∆∆∆∆∆∆

क्रमशः.....!

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