- ललित गर्ग 
 पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, मिशन समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार, हिंदी ब्लिट्ज व नूतन सवेरा के सम्पादक नंदकिशोर नौटियाल अब हमारे बीच नहीं है, सुनकर विश्वास नहीं होता, एक गहरी रिक्तता का अहसास हो रहा है। उनके निधन से राष्ट्र की हिंदी पत्रकारिता के तेजतर्रार, निष्पक्ष एवं राष्ट्रीयता को समर्पित एक युग का अवसान हो गया। 

वे हिंदी भाषा आंदोलन के एक सक्रिय सेवक एवं आन्दोलनकारी जुझारू व्यक्तित्व थे। लगभग 80 वर्षों के सक्रिय जीवन में उन्होंने न केवल पत्रकारिता के उच्च आदर्शों और मूल्यों के लिए बल्कि अनेक राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में अपने आपको नियोजित किये रखा। उन्होंने संस्कृति एवं संस्कारों को अक्षुण्ण बनाये रखने की चेतना को झंकृत कर उन्हें युग-निर्माण की दिशा में आधार बनाया। उनकी कलम में तोप, टंैंक एवं एटम से भी कई गुणा अधिक ताकत थी और इस ताकत का उपयोग उन्होंने समाज एवं राष्ट्र-निर्माण के निर्माणात्मक कार्यों में किया। नंदकिशोर नौटियाल के निधन को पत्रकारिता के एक युग की समाप्ति कहा जा रहा है। 

क्या यह पत्रकारिता कोे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों की शंृखला के प्रतीक के रूप में कहा जा रहा है कि इस समाप्ति को पत्रकारिता में शुद्धता की, मूल्यों की, निष्पक्षता की, आदर्श के सामने कद को छोटा गिनने की या सिद्धांतों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने की समाप्ति समझा जा रहा है। नंदकिशोर नौटियाल ने जहां मानव-मूल्यों में आस्था पैदा करके स्वस्थ समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं राजनीति एवं प्रशासन के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं अनीति के खिलाफ पत्रकारिता को सशक्त हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। वह पत्रकारों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसके लिए पत्रकारिता एक मिशन रही है। इसलिए पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक दायित्व और स्वस्थ राजनीतिक वैचारिकता को उन्होंने पूरे प्राणपण के साथ निभाया। 

वक्त के चाहे कितने ही तेज झोंके आये हों, कितने ही तूफान उठे हों, लेकिन वह अपने कर्तव्य पथ पर सदा अडिग बने रहे और आगे बढ़ते रहे। वे समाज एवं राष्ट्र में समन्वय, सौहार्द, समरसता एवं एकता के लिये निरन्तर जूझते रहे। सस्ती लोकप्रियता एवं अर्थलोलुपता से हटकर उन्होंने पत्रकारिता के आदर्श मूल्यों को स्थापित किया, जो कभी धूमिल नहीं हो सकते। नंदकिशोर नौटियाल भारतीय पत्रकारिता जगत के भीष्म पितामह थे। उन्होंने मुंबई में रहते हुए व ब्लिट्ज का संपादन करते हुए स्वर्गीय आर. के. कंरजिया के साथ पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए थे। 

उन्होंने सारा जीवन सादगीपूर्वक बिताया और उत्तराखंड के गठन के बाद बद्रीनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष के रूप में बद्रीनाथ मंदिर के उद्धार में भी चार चांद लगाए। उन्होंने देश को कई यशस्वी पत्रकारों की एक लंबी कड़ी उपलब्ध कराई। ब्लिटज और नूतन सवेरा के संपादक के रूप में उन्होंने देश को कई ऐसे समाचार दिए जो वर्षों तक खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए चर्चित रहे। 

पं. नंदकिशोर नौटियाल का जन्म 15 जून 1931 को आज के उत्तराखंड राज्य में पौड़ी गढ़वाल जिले के एक छोटे से पहाड़ी गांव में पं॰ ठाकुर प्रसाद नौटियाल के घर हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा गांव में और दिल्ली में हुई। देश-दुनिया के प्रति जागरूक नौटियालजी छात्र जीवन के दिनों में ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। दिल्ली की छात्र कांग्रेस की कार्यकारिणी के सदस्य के तौर पर उन्होंने 1946 में बंगलोर में हुए छात्र कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में भाग लिया था। 1946 में ही नौसेना विद्रोह के समर्थन में जेल भरो आंदोलन में शिरकत किये थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी जीवनयात्रा 1948 से शुरू हुई। नवभारत साप्ताहिक (मुंबई), दैनिक लोकमान्य (मुंबई) और लोकमत (नागपुर) में कार्य किया। 1951 में दिल्ली प्रेस समूह की सरिता पत्रिका से जुड़े। 

दिल्ली में मजदूर जनता, हिमालय टाइम्स, नयी कहानियां और हिंदी टाइम्स के लिए कई साल कार्य किया। सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न रहते हुए भी नौटियालजी ने पत्रकारिता और लेखन को अपना व्यवसाय बनाया। अनेक साप्ताहिक पत्रों और पत्रिकाओं के लिए काम करते हुए 1962 में उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ तब आया, जब मुंबई से साप्ताहिक हिंदी ब्लिट्ज निकालने के लिए उसके प्रथम संपादक मुनीश सक्सेना और प्रधान संपादक आर के करंजिया ने उन्हें चुना। मेरा नौटियालजी से निकट सम्पर्क रहा। ‘अणुव्रत’ के सम्पादक के तौर पर कार्य करते हुए निरन्तर उनसे प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिलता रहा। मेरे आग्रह पर वे अणुव्रत लेखक सम्मेलन में भाग लेने एवं आचार्य तुलसी के दर्शनार्थ मुम्बई से लाडनूं आए। 

उन्हें पान के साथ जर्दा खाने का नशा था। जैन विश्वभारती के परिसर में मैंने आचार्य तुलसी से मुलाकात से पहले कहा-‘‘अब पान थूक दो।’’ नौटियालजी ने अल्हड़ता से कहा-‘‘क्यों थूक दूं?’’ मुझे पान खाना अच्छा लगता है इसलिए खाता हूं। आचार्यजी पान नहीं खाते तो मैं क्या करूं? जब उन्होंने आचार्य श्री तुलसी के दर्शन किए, उस समय उनके दोनों गाल पान से भरे हुए थे। आचार्यश्री ने अर्थभरी दृष्टि से उनको देखा और पूछा-‘‘इनके लिए पान की व्यवस्था कहां हुई?’’ आचार्यश्री के इस एक प्रश्न से नौटियालजी को भीतर तक झकझोर दिया। उन्हें आत्मग्लानि हुई और उसी समय सदा के लिए पान खाना छोड़ दिया। उन्होंने बड़े विश्वास से कहा कि यह आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व और उनकी वाणी का जादू था कि मेरा रूपांतरण हो गया। 

मैं नास्तिक से आस्तिक और व्यसनी से व्यसनमुक्त बन गया। पंजाब समस्या के समाधान का वातावरण निर्मित करने में आचार्य तुलसी की भूमिका ने भी उन्हें बहुत प्रभावित किया और वे राजस्थान के छोटे से ग्राम आमेट में उनका आभार व्यक्त करने आये। एक प्रसंग और उद्धरणीय है। एक बार किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा-‘‘आप आचार्य तुलसी के बारे में इतना लिखते हैं, अन्य संप्रदाय के आचार्यों के बारे में क्यों नहीं लिखते?’’ नौटियालजी ने कहा-‘‘मैं आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हूं। मैं उनके बारे में अधिक इसलिए लिखता हूं कि वे आदमी को आदमी बनाते हैं और दूसरा कोई आदमी को आदमी बनाने वाला हो तो बताओ, मैं उनके बारे में लिखूंगा।’’ उस सज्जन ने पूछा-‘‘आचार्यश्री ने किसको आदमी बनाया, उनका नाम बताओ, मैं उसे देखना चाहता हूं।’’ नौटियालजी ने उत्साह के साथ कहा-‘‘इसका जीता-जागता उदाहरण मैं हूं। 

एक समय था, जब मैं शराब पीता था। जर्दा, तंबाकू भी खाता था लेकिन उनकी प्रेरणा से आज मैं इन सब बुराइयों से मुक्त हूं। आचार्य तुलसी ने सचमुच मुझे आदमी बना दिया।’’ इस तरह उनके जीवन के सारे सिद्धांत मानवीयता की गहराई से जुड़े थे और वे उस पर अटल भी रहते किन्तु किसी भी प्रकार की रूढि या पूर्वाग्रह उन्हें छू तक नहीं पाता। वे हर प्रकार से मुक्त स्वभाव के थे और यह मुक्त स्वरूप् उनके भीतर की मुक्ति का प्रकट रूप था। ‘ब्लिट्ज’ साप्ताहिक के बन्द हो जाने के बाद 1993 में नौटियालजी ने पूरे जोश-खरोश के साथ ‘नूतन सवेरा’ साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। ‘नूतन सवेरा’ ने नौटियालजी के कुशल संपादन में शीघ्र ही देश-भर में अपनी पहचान बनायी। ‘नूतन सवेरा’ ने मानवीय मूल्यों, भारतीय संस्कृति तथा जनपक्षीय पत्रकारिता की हिंदी ‘ब्लिट्ज’ की पंरपरा को आगे बढ़ाने में भारी योगदान किया है। 

राष्ट्रहित के मुद्दों पर नौटियालजी की दो टूक टिप्पणियों के बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। ‘नूतन सवेरा’ के माध्यम से वह राष्ट्रभाषा हिंदी की अस्मिता के लिए तन-मन-धन से संघर्षरत थे। राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई के उपाध्यक्ष की हैसियत से भारत में पहली बार महासंघ के अन्य वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ बंबई हाई कोर्ट में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने की याचिका दायर की है जो लंबित है। पत्रकारिता के अलावा नौटियालजी प्रगतिशील राजनीति और समाजसेवा के क्षेत्र में भी बदस्तूर सक्रिय थे। वह महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के स्थापनाकाल से ही सदस्य रहे और इस समय इसके कार्याध्यक्ष हैं। उनके कार्यकाल में पहली बार 2002 में पुणे में अकादमी ने भव्य अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगम आयोजित किया तथा पहली बार 2008 में मुंबई, 2009 में नागपुर तथा नांदेड़ में सर्वभारतीय भाषा सम्मेलन संपन्न किया जिसमें 22 भाषाओं के विद्वानों ने भाग लिया। 

साहित्यिक और पत्रकारिता प्रतिनिधिमंडलों के सदस्य के तौर पर नौटियालजी ने अमरीका, कनाडा, उत्तर कोरिया, लीबिया, इटली, रूस, फिनलैंड, नेपाल, सूरीनाम आदि देशों की यात्रा कर हिन्दी को दुनिया में प्रतिष्ठापित करने की दिशा में अनूठा उपक्रम किया। उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलनों में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। नौटियालजी को हिंदी साहित्य सम्मेलन का साहित्य वाचस्पति सम्मान, आचार्य तुलसी सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पत्रकार भूषण सम्मान, शास्त्री नेशनल अवार्ड, लोहिया मधुलिमये सम्मान समेत रोटरी, लायंस आदि अनेक राष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त हुए। उनके निधन पर हम भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। 



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