-डॉ. रवीन्द्र प्रभात 

क ऐसा सुमधुर गीतकार जिनके गीतों-गज़लों में जहां शब्दों के बजने की ध्वनि सुनाई देती है, वहीं मुहावरे व लोकोक्तियों की समान रूप से झनझनाहट भी। जिनके लेखन का सरोकार जहां प्रकृति और शृंगार के साथ-साथ संसार के सबसे कमजोर तबके और हाशिये पर खड़े समाज के साथ दृष्टिगोचर होता है वहीं अपने-आपके साथ भी। आत्म प्रचार से हमेशा दूर रहकर सैकड़ों बेशकीमती काव्य का सृजन करने वाले सादगी व मिलनसार स्वभाव के इस प्रखर गीतकार का नाम है हृदयेश्वर जिनकी सबसे बड़ी पूंजी है कोमलता से काव्य के विभिन्न आयामों में अभिव्यक्ति। 

प्रत्येक रचनाकार की अपनी रूचियाँ, प्रवृतियाँ और वैचारिक संपदा उसकी रचनात्मकता की पूँजी होती है। वे चूँकि समाज के निम्न मध्यवर्गीय जनजीवन से संबद्ध रहे हैं, इसलिए वे समाज के पारिवारिक एवं सामाजिक सरोकारों से निरंतर जुड़े रहे हैं और साधारण जनजीवन के जो चहुँमुखी संघर्ष हैं, उससे उनका अनुभव के स्तर पर निकटतम संपर्क रहा हैं, इसी कारण निम्न मध्यम वर्गीय जीवन का लेखन हीं उनकी रचना का विषय है। उनका मानना है कि विचार से ही साहित्य की उत्पति होती है, लेकिन वहुमूल्य विचारों से नहीं। क्योंकि साहित्य तो सतत् है, वाद तो कालाँतर में जड़ होते चले जाते हैं। लेखक की रचनाएँ कालातीत होती है। वह किसी भी भौगोलिक बंधन, भाषा बंधन को पार कर जाती है। कोई भी वाद अभी तक वैचारिकता के इतिहास साहित्य जैसा कालजयी बन सका हो, यह प्राय: देखने में नहीं आता है। 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी हृदयेश्वर आज ऐसी अजीम शख़्शियतों में शुमार हैं जिन्हें हमेशा अपने मित्रों से घिरे रहना और किसी भी आयुवर्ग के साथ सहजता से घुल-मिल जाना अच्छा लगता है। हृदयेश्वर जी से मेरी मुलाक़ात वर्ष 1992 के पूर्वार्द्ध में सीतामढ़ी की एक प्रखर कवयित्री और लेखिका आशा प्रभात के निवास पर आयोजित एक कवि गोष्ठी में हुई। वहीं पता चला कि वे नलकूप विभाग में कार्यरत हैं और उनका स्थानांतरण सीतामढ़ी हो गया है। उस गोष्ठी में उन्होने एक गीत का सस्वर पाठ किया, शीर्षक था "कभी डिठौने भर शब्दों से गोरे-गोरे गाल लिखे, कभी एक पल के मिज़ान से पिछले बारह साल लिखे... ।" मैं मंत्रमुग्ध हो गया इस गीत को सुनकर। यह गीत मुझे लगभग तीन दशक बाद भी आज कंठस्थ है। धीर-धीरे जब मैंने उन्हें पढ़ा और महसूस किया तो उनको जान पाया और ये भी जान सका कि हर कोई हृदयेश्वर नहीं हो सकता। 

उनके साथ मैं बड़ी अंतरंगता के साथ सदैव जुड़ा रहा हूँ। एक बार मैंने मज़ाक-मज़ाक में पूछा, कि आप इतना अच्छा कैसे लिख लेते हैं? यह सुनकर उन्होने ज़ोर का ठहाका लगाया और कहा कि "सच कहूँ प्रभात, तो लेखन एक नशा है और एक बार यह नशा लग जाए तो दूसरी चीजों पर ध्यान केंद्रित करना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा लेखन व्यक्ति को आलसी भी बना देता है और इससे दिलचस्प कोई दूसरा काम नहीं लगता। और जब मन इसमें रम ही गया है, तो अच्छी अच्छी पंक्तियाँ सामने आएगी ही।" 

उस समय मैं सीतामढ़ी में एक वित्त रहित कॉलेज में भूगोल पढाता था। जब भी समय मिलता हृदयेश्वर जी से मिलने मैं सीतामढ़ी स्थित उनके पानी टंकी वाले निवास पर जा धमकता और घंटों उनसे साहित्य के विभिन्न विषयों पर संवाद स्थापित करता। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्षों तक चला। फिर बाद में वहाँ से उनका स्थानांतरण हाजीपुर हो गया और मैं एक नई नौकरी के सिलसिले में वाराणसी आ गया। फिर वर्षों तक संवाद की स्थिति नहीं बन पायी। सीतामढ़ी प्रवास में उन्होने मुझे साहित्य के मिजाज से अवगत कराया और मुझे गजल लिखने का सलीका सिखाया। वे अक्सर कहते थे कि "प्रभात, एक कवि के लिए यह जानना वेहद जरूरी है, कि कथ्य और शिल्प आखिर है क्या? आज विश्व निरंतर अपनी भौगोलिक सीमाओं में छोटा होता जा रहा है। अनेक भाषाओं, विचारों और संस्कृतियों का संगम उस रूप में विस्तार पा रहा है, फलस्वरूप अनुभवों की दृष्टि से कथ्य की अनेक धाराएँ प्रवाहित हो रही है। शिल्प का संबंध शैलीगत है जैसे किसी मनुष्य की वाणी से हम उसे पहचान लेते हैं उसी प्रकार शैली या शिल्प के द्वारा हम किसी रचनाकार के व्यक्तित्व का परिचय पा लेते हैं। बड़े रचनाकार अपने कथ्य के साथ अपने शिल्प में भी एक विशेष किस्म का अलगाव अथवा भिन्नता प्रदर्शित करते हैं कथ्य के साथ कथन का स्वरूप भी रचनाकार के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हैं।" उनके बताए गए सारगर्भित विचार आज भी मेरा मार्गदर्शन करते रहते हैं। उस समय वे हमेशा कुछ नया लिखने में विश्वास रखते थे। वे कहते थे, कि "कोई भी विचारवान लेखक अपनी किसी भी रचना को श्रेष्ठतम और अंतिम नहीं मानता है। इसलिए जबतक आगामी लेखन की संभावनाएँ बनी रहे तबतक और भी अधिक मूल्यवान और बेहतर लिखने की अपेक्षा बनी रहनी चाहिए।" 

गीतकार हृदयेश्वर का मानना है, कि "गीत का लेखन बड़ा ही कठिन कार्य है। बहुत कम साहित्यकारों ने इस पर अपनी क़लम चलाई है। छोटी रचना, छोटे-छोटे वाक्य, आसान शब्द, लयात्मकता एक अच्छे गीत की पहचान है। उसकी लघुता ही उसकी प्रमुख विशेषता है।" हृदयेश्वर अपने गीतों में जिन शब्दों को पिरोते हैं, वे हमारे आसपास ही बिखरे होते हैं। लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले। यह अलग बात है, कि इन शब्दों पर लोगों का तवज्जो नहीं जाता, मगर सच तो यह है कि उनके गीतों में ‘आम’ से लगने वाले ये शब्द प्रयुक्त होते ही ‘ख़ास’ हो जाते हैं। हालांकि गीत तो बहुत से बहुत लोगों ने लिखे हैं, मंचों पर भी एक से बढ़कर एक सितारा कवि, गायक आए और गए मगर जो नज़ाकत हृदयेश्वर के गीतों में मैंने देखी है वह बेमिसाल है। मुझे उनके गीतों में जीवन, प्रेम, मृत्यु, अवसान, अस्तित्व और मनुष्य की सांसारिक अर्थवत्ता की झलक साफ-साफ दिखती है। गीतों के लिए जैसी भाषा, जैसे भाव, जैसे शिल्प की जरूरत होती है, उन्हें वह नैसर्गिक रूप से सुलभ रहा है। करुणा की डाल पर प्रेम के फूल और दर्शन के फल, अपने हाथ लिए यह मस्त फ़क़ीर, जीवन दर्शन और इंसानियत का पाठ, एक ही साँस में गाता है। प्रेम और दर्द के बीच दर्शन का तड़का, उनके गीतों की विशेषता है।  

हृदयेश्वर हिन्दी गीतिकाव्य तथा नवगीत के स्थापित हस्ताक्षर हैं। इनका जन्म 10 जनवरी 1946 को पूर्वी चम्पारण के ग्राम ऊँचीभटिया में हुआ। इनकी अनेकों प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुयी हैं। अनेक साहित्यिक पत्रों के सम्पादन में इन्होने सहयोग किया है। ‘आँगन के ईच-बीच’, ‘बस्ते में भूगोल’ व ‘धाह देती धूप’ / यहाँ तक हम आ गए हैं (गीत संग्रह) तथा ‘मुंडेर पर सूरज’ (काव्य संग्रह) इनकी प्रकाशित कृतियाँ है। इन्हें बिहार सरकार के प्रतिष्ठित राजभाषा सम्मान (2002) व रामइकबाल सिंह ‘राकेश’ स्मृति समिति, मुजफ्फरपुर (बिहार) के ‘गंध ज्वार सम्मान’ सहित कई स्तरों पर सम्मानित किया गया है। 

हृदयेश्वर सच्चे अर्थ में हिंदी के लोकमन के कवि एवं गीतकार हैं। समकालीन हिन्दी गीतिकाव्य के वे मात्र हस्ताक्षर भर नहीं हैं बल्कि अपने समय की सामूहिक चेतना के संरक्षक भी हैं। उनकी रचनाओं में न केवल अपनी निजी भावनाओं का दर्द व्यक्त हुआ है, बल्कि इस युग के मुद्दों पर भी उन्होने निर्विवाद रचनात्मक टिप्पणी की है । उनकी रचनात्मकता का इलियट के साथ समानता की खोज शायद बेमानी हो, किन्तु मेरा मानना है कि उनकी रचनात्मकता कहीं न कहीं इलियट से मेल जरूर खाती है। इस संदर्भ में इलियट के प्रसिद्ध लेख ‘ट्रेडिशन एंड इंडिविज़ुअल टैलेंट’ (1921- दि सैक्रेड वुड) का स्मरण होना स्वाभाविक है। जिसमें टी.एस. इलियट का यह कहना कि ‘लोकमन एक दिन में नहीं बनता’ को उद्धृत करना मैं आवश्यक समझता हूँ और मैं इसी परिप्रेक्ष्य में ऐसा मानता भी हूँ कि हृदयेश्वर जैसा गीतकार एक दिन में नहीं बनता। इसमें न तो कोई अतिशयोक्ति है और न शक की कोई गुंजायश ही।

 - वेब पत्रिका परिकल्पना समय (हिन्दी मासिक) के प्रधान संपादक 

संपर्क : एन-1/107, सेक्टर- एन, संगम होटल के पीछे, अलीगंज, लखनऊ-226024 (उ.प्र.)

0 comments:

Post a Comment

 
Top