मालदीव संस्मरण- 




"वही गम,वही शाम,वही तन्हाई है", 
फिर भी दिल को समझाने यह यादें चली आयी है।

"Costa Victoria cruise' पर यात्रा की कुछ यादें। अभी कुछ दिनों पूर्व महाराष्ट्र में आए तूफ़ान से लड़ते,विकराल समुंद्र से जूझते हुए अथाह सागर के जल में जब एक समुंद्ररीय जहाज को देखा,तो विगत दिनों में अपनी 'समुद्रीय-यात्रा' याद आ गयी और जब लिखने बैठी,तो ऐसा लगा कि बीच-बीच में यादों से रूबरू होते हुए 'कलम' रूक-रूक कर चलती रही ।" हमारे ग्रुप के सभी सदस्यों की यह पहली समुद्रीय यात्रा थी। दुबई से निकल कर हम लोग सुबह 5.30 से 6 बजे के करीब कोच्चि पहुँचे। टूरिस्ट बस आने में देर थी,तो एयरपोर्ट पर ही नियमित मार्निंग वाक के साथ ही सुबह का 'मंत्र-जाप' सम्पन्न किए। उसके बाद तो चाय की तलब लगी लेकिन चाय की झलक तक का कहीं अता-पता नही था।


हम लोग वहीं रूक कर अगले गंतव्य तक पहुँचने के लिए बस का इंतजार करने लगे। ग्रुप की एक सदस्या जिनके पाँव में बहुत दर्द था,वो अधिक देर तक खड़े रहने में शारीरिक रूप से सक्षम नही थीं, तो मैंने बिना कुछ सोचे ही उन्हें सामने के बैग पर बैठने के लिए बोल दिया,उन्हें बैठे हुए अभी पाँच मिनट भी नही हुआ होगा और उस बैग का मालिक तेज़ कदमों से चलता हुआ आया और उन्हें धक्का देते हुए इतनी तेजी से बैग को खींचा कि अगर मैं उन्हें नहीं पकड़ी होती,तो वो औंधे मुँह जमीन पर गिर गयी होतीं। "यह दृश्य देख कर मैं हतप्रभ रह गयी कि जो सज्जन एक दिन पहले मांसाहार पर लेक्चर दे रहे थे,उन शाकाहारी सज्जन की हरकत क्या बोल रही है... ?"


थोड़ी देर इधर-उधर टाइम पास करने के बाद बस आयी और हम सब लोग उस टूरिस्ट बस में बैठ कर बंदरगाह के लिए चल पड़े,अभी थोड़ी दूर ही पहुँचे थे कि- "कुछ लोग सफेद लुंगी पहले खड़े दिखाई दिए,जो गुड़,मुड, गुड़मुड आवाज में कुछ बोलते हुए बस को रोकते हैं। "क्यों...?" "क्योंकि आज भारत बंद है।" बस का ड्राइवर उस शख्स से अपनी साउथ इंडियन भाषा में कुछ बोलता है,उतनी देर में तो भीड़ से एक नेतानुमा शख़्स आकर बस की चाबी निकाल लिया। बस ड्राइवर,बस से उतर कर कुछ बात करता और फिर बस को लेकर आगे बढ़ता है। वहाँ पहुँचने पर मौसम का तो कुछ ऐसा मिजाज था,जैसे मई-जून का तपता महीना हो। 


भयंकर गर्मी और उस बंदरगाह पर पीने के लिए पानी तक की व्यवस्था नहीं।टूट-फूट के साथ सुरक्षित एक शौचालय अवश्य वहाँ मौजूद मिला। "उफ्फ्फ..." इमिग्रेशन के लिए लगने वाले जरूरी काग़ज़ात को कम्प्लीट करके,आस-पास लगी दुकानों का जायज़ा लेने के लिए पहुँचे और एक दुकानदार से पानी और चाय के लिए पूछे, तो उसने अपने पास से पीने के लिए पानी तो दे दिया लेकिन आज यहाँ पर चाय कही नही मिलेगी उसका 'नो बोर्ड' दिखा दिया। बंदरगाह के तट पर स्थापित स्थानीय दुकानों से कुछ खरीदारी करने के बाद प्रस्थान का समय हो गया है और हम सब लोग समुद्रीय जहाज में Enter होते हैं। भारत बंद के कारण सुबह से बिना कुछ खाए-पिए ही अब दिन के दो बज चुके थे। रात की फ्लाइट में भी ढंग से कुछ खाने को नही मिला था। भूख के मारे आंते कुलबुला रही थीं। 


क्रूज़ पर पहुँचते ही जब पता चला कि लंच टाइम स्टार्ट है और वह समय 3 से 3.30तक ही रहता है,फिर शाम की चाय शुरू हो जाएगी। जैसे और जिस हालत में थे,उसी हालत में पहले लंच लिए,फिर अपने रूम की तरफ जो लखनऊ के भूल-भूलइय्या से कम नहीं था,क्योंकि समुंद्रीय जहाज पर बने यात्री कमरे नंबर के सिरियल से होतें हैं और उसे ढूँढना बहुत मुश्किल काम था। रूम में सामान पहले ही पहुँच कर इंतजार कर रहा था। एकदम बंद कमरा..., साथ में बेटी थी और उसे कमरे से बाहर का नज़ारा भी देखना था। एक-दो सहयात्री तो उसी समय नाराज़ हुए और टूर प्रबंधक से..., अपने कमरों को बदलकर,उस कमरों को लिए जिसमें से समुंद्रीय नज़ारा भी दिख रहा था। "मैंने बेटी को समझाया कि..., कमरे से बाहर निकल कर समुंद्रीय दृश्य ही तो देखना है। 


तरो-ताजा होकर शाम पाँच बजे तक वापस रेस्तरां में पहुँचे। पहले दो बार तो ग्रीन टी लिए, पीते ही ऐसा लगा जैसे थके-मुर्झाए शरीर में जान आ गयी हो। स्नान के बाद और वह भी शाम को चाय मिल जाए तो फिर क्या बात है। Cruise पर खाने-पीने के इतने आयटम की खाने वाला थक जाए लेकिन न आयटम खत्म हो और न ही मन भरे। उधर से फ्री होकर फिर खुली जगह पर पहुँचे,जहाँ से समुंद्र का साम्राज्य दूर-दूर तक दिखाई दे रहा था। Cruise का यह पहला सफर अत्यंत रोमांच से भर रहा था। थोड़ी देर में Cruise स्टार्ट हुआ, तो ऐसा लगा कि हम सब समुंद्र की लहरों से बात करते हुए,उसके लहरों को पार करते हुए समुंद्र के सीने पर सवार होकर चल रहें हैं। अथाह समुंद्र जिसका दूर-दूर तक कहीं किनारा न दिख रहा हो,समुंद के ऊपर जहाज और उस जहाज में हम तीन हजार यात्री और चारो तरफ पानी ही पानी। देखते ही देखते सूरज भी हम सबका साथ छोड़ कर किसी और देश चला गया और चारो तरफ सायं-सायं करता हुआ गुप्प अंधेरा छा गया। बीच-बीच में अनजाना सा भय आकर जरूर थोड़ी देर डरा जाता था। भय की वजह से तरह-तरह के विचार आना स्वाभाविक था लेकिन वो भयावह विचार सिर्फ़ दिल-दिमाग पर थोड़ी देर तक के लिए रहा,उसे भगा कर समुंद्र की उठती-गिरती लहरों को देखते हुए रात का भोजन लिए और निंदिया रानी के आगोश में चले गये। 

थकान के बाद भी सुबह अपने समय से उठे लेकिन तब तक वहाँ सूर्य निकल चुका था,फिर दूसरे दिन सूर्योदय देखने के लिए और जल्दी उठे,वह भी इतनी जल्दी कि उस दिन सूर्य देवता ही अभी तक नींद की सुस्ती में थे,फिर वहीं टहलते और नियमित मंत्र का जप करते हुए सूर्य देवता का इंतजार करती रही। सूर्य देवता के आते ही उनके दर्शन और मानसिक रूप से जल अर्पित किए। वहाँ रोज हर फ्लोर पर अलग-अलग एक्टिविटी होती थी। आपको स्वीमिंग करना है, जकूज़ी करना है। योगा करना है। खेलना है। यह आपकी च्वाइस पर निर्भर था।वहाँ हम कुछ सखियों ने जकूज़ी का आनंद उठाया और उसमें अंताक्षरी खेलते हुए बच्चों की तरह मस्ती किए। 

शाम होते ही,कल्चरल प्रोग्राम शुरू होते थे, कलाकारों द्वारा होता था लेकिन ओपन फ्लोर पर सब टूरिस्ट भी डांस करते थे।" जहाज पर ही 'पूर्णिमा-तिथि' आयी और उस तिथि पर कभी-कभी समुंद्र में ज्वारभाटा भी आता है,जब वहाँ पर ऐसा किसी ने कहा,तो लगा कि...., उसी दिन अंतरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस था और 'परिकल्पना परिवार' की तरफ से 'अंतरराष्ट्रीय काव्य समारोह' रखा गया था। यात्रा में शामिल साहित्यकारों, सुधीजनों के साथ काव्य गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसे सुनकर श्रोताओं को भी खूब आनंद आया। वहाँ पर मैंने 'नायिका के लम्बे-घने केश' शीर्षक से अपनी एक कविता का पाठ किया,जिसे वहाँ बैठे श्रोताओं ने भी खूब पसंद किया। इस तरह से खाते-पीते,उठते-बैठते 'Cruising' का तीन दिवसीय सफर कब निकल गया, कुछ पता ही नही चला। वहाँ से चलने का जब समय हुआ,तो फिर उसी अथाह समुंद्र के बीच में जहाज से आकर दूसरी बोट एकदम चिपक कर लग गयी और हम सब यात्री अपनी-अपनी जान को अपनी मुठ्ठी में जकड़ कर बोट में सवार हुए और फिर समुंद्र के ऊपर खुले बोट में करीब 15मिनट का सफर तय करते समुंद्र का नजारा देखते हुए मालदीव पहुँचे,जहाँ पर जनवरी माह में भी बहुत गर्मी थी। 

जिस होटल में रूके थे, उसका मालिक बहुत ही खराब दिमाग का इंसान था, इतना खराब कि उसके जैसा इंसान अभी तक कभी नहीं मिला था। थोड़ी देर आराम करने के बाद,शाम को उठकर फिर समुंद्र के किनारे पहुँचे...। मीठी सी संध्या अब धीरे धीरे रात में तब्दील हो चुकी थी। नीचे समुंद्र का जल और उपर आसमान में चंद्रमा की चमक दोनों का मिलन हो रहा था, हिलोरें लेती हुई लहरों से जब चंद्रमा की किरणें मिलती,तो उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि चंचल चाँदनी समुंद्र के अंदर समा जाना चाहती हो। समुंद्र की लहरों संग डूबती-उतराती हुई चंद्रमा की किरणें को देखकर बरबस ही- 'मैथिली शरण गुप्त जी',कि यह पंक्तियां याद आ गयी थीं। "चारू चंद की चंचल किरणें,खेल रही हैं जल-थल में। स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है,अवनि और अम्बर तल में।"

समुंद्रीय जल में उतरते हुए चंद्रमा की किरणों का अलौकिक सौन्दर्य देखकर वहाँ बैठे-बैठे उस दृश्य पर मेरी कलम ने भी अंदर उठते भावों से मिल कर एक सुन्दर कविता से मुलाकात कर लिया और एक कविता का सृजन कर लिया। 
साथ प्रस्तुत कविता का भी आनंद लीजिए- 

।।कविता-समुंद्र सी जिन्दगी।।

समुद्रीय लहरों-सी कभी खामोश,तो कभी बल-खाती है जिंदगी।
कभी खारापन लिए तो कभी मीठी सी लगती है जिंदगी....।

कभी ख़्वाहिशों का बोझ, तो कभी मधुर मुस्कान-सी है जिंदगी। खोए हुए सपनों की कुछ अन-छुई, अन-सुनी आहटों-सी जिंदगी। 

कभी सुकून-सी तो कभी दर्द भरी बोझ सी लगती है जिंदगी।
कभी लम्हातों की चादर ताने कुम्भकर्णी-सी लगती है जिंदगी।

कभी दुःखते मंजरों को थामे 'चक्रवर्ती तूफ़ान-सी जिंदगी। 
कभी मंद-मंद फुहारों की मद्धिम बरसात-सी लगती है जिंदगी।

कभी फुहारों-सी मूक अल्फ़ाज़ तो कभी शोर मचाती है जिंदगी।
समुंद्र-सी शोर मचाती तो कभी खामोश-सी लगती है जिंदगी....। 

कभी समझदार इशारों सी कभी ना-समझ सी लगती है जिंदगी। किनारों का मंजर ऐसा,जिसके कभी नहीं मिलते मझधार-सी जिन्दगी। 

उलझे-सुलझे उलझनों की कंटक भरे बेमिसाल-सी राहों में कोशिशों की हिसाब लगाती हुई बेहिसाब-सी जिंदगी...। 
नादान भावों के तूफानी पलों को शब्दों में पिरोती अन-कही सी जिंदगी, 

कलरव करती समुद्री तूफान-सी अथाह सागर है जिंदगी। 
हाँ सच है, कल-कल समुद्री तूफ़ान-सी अथाह है जिंदगी...।। 

आइए कविता से आगे बढ़ते हैं। दूसरे दिन भोर में जब समुंद्र के किनारे पहुँचे तो इतना मनमोहक दृश्य था। मंद-मंद मुस्कुराती पवन चल रही थी, हौले-हौले रात की स्याही सूर्य के तेज़ किरणों के साथ सुबह में तब्दील होने को आतुरता के साथ आगमन हो रहा था। किनारे-किनारे टहलते हुए मैंने भी 'समुंद्र देवता' से कुछ यादगार चिन्ह माँगे,तो थोड़ी देर में ही 'समुंद्र देवता' लौटती हुई लहरों रूपी हाथ से मुझे दो पत्थर यादगार स्मृति के रूप में दिए थे।जिसमें एक पाषाण 'मानव-हस्त' आकृति लिए हुआ था,तो पाषाण दूसरा टुकड़ा 'माँ के गोद में बच्चा' को लिए हुए ममत्व भरा आकृति में था।जिसे अपने आँचल में पाकर अभिभूत हो गयी थी। 

यह थी 'Costa Victoria cruise' और 'मालदीव यात्रा' का संस्मरण,अगले संस्मरणात्मक विवरण में आप लोगों से फिर मुलाकात होगी,तब तक के लिए विदा लेती हूँ। 

डाॅ.क्षमा सिसोदिया
Kshamasisodia@gmail.com 
 
Next
This is the most recent post.
Previous
Older Post

0 comments:

Post a Comment

 
Top