एक बार फिर एग्जिट पोल गलत साबित हुए। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता और साख पर आँच आई है। प्रश्न यह है कि क्या मीडिया द्वारा किसी की इच्छा के अनुरूप एग्जिट पोल दिखाये जा रहे थे अथवा वास्तव में इनके सर्वे इतने लचर एवं अवैज्ञानिक रहे हैं कि सब के सब गलत साबित हो गए हैं? जो भी हो मतगणना से पहले ही आमजन के बीच यह संदेश फैल रहा था कि मीडिया का स्तर गिर गया है। वर्षों पहले ही "गोदी मीडिया" नाम से अलंकृत किया जाता रहा है। कुल-मिलाकर चाटुकारिता की पत्रकारिता करने वाली जमात को गोदी मीडिया कहा जा रहा है। जबकि इससे पूर्व भारतीय मीडिया ने न कभी चाटुकारिता का आचरण अपनाया और न ही अन्यथा जोर दबाव को स्वीकार किया। इसी निष्पक्ष तेवर के कारण लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का सम्मान प्राप्त हुआ था।
भारतीय मीडिया के तेवर शुरू से ही शोषण, अत्याचार के विरुद्ध थे तथा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जनजागरण ही शुरुआती दौर में मीडिया का प्रमुख लक्ष्य बना था। या यूँ कहें कि इन्ही उद्देश्य को लेकर भारतीय मीडिया का जन्म हुआ। अखबार निकालने के पीछे का उद्देश्य बिजनेश नहीं मिशन भाव था। मिशन भाव से किये जाने वाले कार्यो का आधार त्याग होता है। याद करिए पहले हिंदी अखबार उदन्त मार्तण्ड सहित केशरी, मूकनायक, हरिजन, यंग इंडिया, वंदेमातरम, इत्यादि को। देशभर से छपने वाले इन सैकड़ों अखबारों ने ब्रिटिश सरकार के किसी अन्यथा दबाव को स्वीकार नहीं किया भले ही कई बार बन्द हो जाना पड़ा। मुकदमे झेलने पड़े।
भारतीय मीडिया ने अपने जन्म के समय यानी आजादी से पूर्व ब्रिटिश शासन काल में ही अपनी भूमिका की महत्ता को सिद्ध कर दिया था। ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों तथा सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के विरुद्ध पीड़ितों की आवाज बल्कि यूँ कहें कि देश की आवाज बनकर स्वाधीनता आंदोलन में कलमकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी इस तरह तत्कालीन अखबार, जनजागरण का सशक्त माध्यम बन गए थे।
आजाद भारत में भी बदलते परिदृश्यों परिस्थितियों के साथ पूरे देश ने कदमताल शुरू किया किन्तु कलमकार अपने तेवर बदल नहीं सके और आजाद देश की सरकार के कार्यो की,नीतियों की आलोचना-समालोचना शुरू कर दी। लोहिया जैसे नेता, बंशीधर शुक्ल जैसे कवि साहित्यकार तो साथ में कदमताल करते अनेक अखबारों ने आजाद भारत की अपनी सरकारों की कार्यशैली और निर्णयों नीतियों पर कलम चलाई और तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार की समय-समय पर खूब खिंचाई हुई।
महत्वाकाक्षाओं द्वारा प्रेस को नियंत्रित करके के प्रयास समय समय पर किये जाते रहे हैं। 1878 में ही ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन में प्रेस एक्ट बनाया और लागू किया था जिसके निशाने पर भारतीय प्रेस विशेष रूप से थी। किन्तु भारत के वायसराय लॉर्ड मिंटो द्वितीय ने 9 फरवरी 1910 के भारतीय प्रेस अधिनियम को लागू किया, अधिनियम की धारा 12 (1) ने स्थानीय सरकारों को किसी भी समाचार पत्र या पुस्तक के खिलाफ वारंट जारी करने का अधिकार दिया। इसी प्रेस एक्ट 1910 के तहत अनेक पुस्तकों व अखबारों पर देशद्रोही मुकदमे चलाये गए और उन्हें जब्त भी कर लिया गया। आजाद भारत में जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनी तो ब्रिटिश कानून के अंकुश को हटाते हुए 1978 के प्रेस परिषद अधिनियम के तहत भारतीय प्रेस परिषद का गठन किया गया। भारतीय प्रेस परिषद भारत में एक वैधानिक, निर्णायक संगठन है जिसका गठन 1966 में भारत की संसद द्वारा किया गया था। यह प्रेस का, प्रेस के लिए और प्रेस द्वारा स्व-नियामक प्रहरी है, जो 1978 के प्रेस परिषद अधिनियम के तहत संचालित होता है।
प्रेस की धारा 19(1)(ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सरकार की आलोचना करने के अधिकार के साथ-साथ अलोकप्रिय या अपरंपरागत विचार रखने का अधिकार भी अखबार को प्राप्त हुए। इस एक्ट के बाद सरकार के नियंत्रण से अखबार मुक्त हुए। आमतौर पर सरकारों के पास आलोचना को रोकने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला सिर्फ एक कानून बचा जिसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124-ए के तहत राजद्रोह कानून के रूप में जाना जाता है। प्रेस की धारा 19(1)(ए) के तहत मिली आजादी के दायरे में रहते हुए विगत पाँच दसकों में मीडिया ने आलोचना-समालोचना की विशेष कुशलता अर्जित कर अंदरखाने की खबरों को उजागर करना शुरू किया, जो कि सत्तारूढ़ दल में जबरदस्त बेचैनी का कारण बनी। इस बेचैनी का हल खोजने में सफल कुशल राजनैतिज्ञ अपनी चतुर-चालों से मीडिया को नियंत्रित करने में सफल रहे हैं। अपनी पैनी नजरों से मीडिया की कमजोर नस को पकड़ लिया और प्रेस को नियंत्रित करने हेतु विज्ञापन की एक विशेष योजना आरम्भ की गयी। यह कमजोर नस है बढ़ती मंहगाई के दौर में आर्थिक आवश्यकताएं। सरकारों ने विज्ञापन के नाम पर भारी भरकम रकम का चारा डाल दिया। अघोषित नीति के तहत जो मीडिया-हाउस सरकार की प्रशंसा करेगा, उसी को विज्ञापन का अतिरिक्त लाभ मिलेगा।
वर्तमान तक आते आते बहुत खराब स्थिति बन गयी है। आमजन के बीच गिरती हुई मीडिया साख यानी कम हो रही विश्वसनीयता चिंतनीय है। लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहे जाने की अर्हता समाप्त होती जा रही है। जिस मीडिया-हाउस ने सरकार के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित/प्रसारित किया तो विज्ञापन मिलना बंद, और जिसने तारीफ प्रकाशित/प्रसारित किया उसको अतिरिक्त विज्ञापन का प्रोत्साहन भी। अपने तेवर को भूल, चौथे स्तम्भ होने के स्वाभिमान से दूर, विज्ञापन के लालच में फँसकर मीडिया ने अपना लिया चाटुकारिता का मार्ग। सरकार की गलत नीतियों एवं किये जा रहे जन-विरोधी कार्यो के समाचार न दिखाकर सिर्फ गुणगान करते रहना बताता है कि लोकलाज भूलकर मीडिया अब चारण-वन्दन को ही अपना अभीष्ट चुन लिया है। चुनावों के एग्जिट पोल ने तो मीडिया के कुत्सित चेहरे को उघार दिया है यानी नाकारापन साफ-साफ दिखने लगा है। अभी आत्मचिंतन के लिए बहुत देर नहीं हुई है। मीडिया-हाउसों को स्वयं आत्मावलोकन करना होगा कि वे अधिक लाभ व अधिक आय अर्जित कर रहे हैं अथवा कुशल राजनैतिज्ञों की चतुर-चाल में फँसकर मिसयूज हो रहे हैं? यदि मीडिया स्वयं आत्मावलोकन नहीं करेगी तो समय किसी को माफ नहीं करता इतिहास तय करेगा कि सच क्या है?
- - प्रदीप सारंग
9919007190
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