भक्तिकाल के संत और कवि
-रामबाबू नीरव
गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस मानस की कथा काफी प्रचलित है और इस कथा को बच्चा बच्चा जानता है, इसलिए उस कथा को दुहराना आवश्यक नहीं है. रामचरितमानस के कुछ प्रसंगों तथा दोहों पर काफी टीका टिप्पणी आरंभ से ही होती रही है और इस पर पक्ष तथा विपक्ष में काफी विवाद भी होता आया है. संभवतः भविष्य में भी होते रहेंगे. इसलिए उस तरह के विवादित प्रसंगों पर कुछ लिखने की मैं आवश्यकता नहीं समझता. इस सम्बन्ध में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आलोचना प्रसिद्धि की ही होती है. अपनी कृति रामचरितमानस के साथ साथ तुलसीदास जी भी इतने विख्यात हो चुके थे कि अपनी कृतियों के साथ साथ वे स्वयं भी आलोचकों के निशाने पर आ गये. मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि रामचरितमानस को लेकर वे अपने जीवन काल में भी कट्टरपंथियों के तीव्र विरोध का सामना कर चुके थे. मैं इस विवादित प्रसंग में पड़ना नहीं चाहता और सीधा गोस्वामी जी और बादशाह अकबर के रिश्तों पर आता हूँ. कुछ विद्वानों का मानना है कि बादशाह अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास जी से किसी बात से नाराज होकर उन्हें कारागार में डलवा दिया था. परंतु मेरी समझ से यह घटना सत्य नहीं है. पहले आप इस पूरी घटना की कहानी जान लीजिए फिर मैं अपनी सफाई में तर्क प्रस्तुत करूँगा. कथा इस प्रकार है-
"एकबार गोस्वामी जी प्रातः काल की बेला में यमुना घाट से स्नान करके लौट रहे थे. उधर से कुछ लोग एक महिला को साथ लिए हुए आ रहे थे. असल में उस महिला के पति का स्वर्गवास हो चुका था और उसे अपने पति के साथ सती होने के लिए ले जाया जा रहा था. उस महिला ने गोस्वामी जी को देखकर उनके चरणों में सादर प्रणाम किया. गोस्वामी जी ने अनजाने में उस स्त्री को "अखंड सौभाग्यवती भवऽ" का आशीर्वाद दे दिया. उनके आशीर्वाद को सुनकर उस स्त्री के साथ साथ अन्य लोग भी स्तब्ध रह गये. स्त्री रोती हुई बोली -"गोस्वामी जी, मैं तो विधवा हो चुकी हूँ और अभी अपने पति के साथ सती होने के लिए श्मशान जा रही हूँ. फिर आपने मुझे अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद कैसे दे दिया?" सच्चाई जानकर गोस्वामी जी को पश्चाताप होने लगा. मगर स्त्री के साथ चल रहे लोगों ने उन्हें घेर लिया और कहने लगे -"आपने इस महिला को अखंड सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया है, इसलिए यह आपका दायित्व बनता है कि आप इसके पति को जीवित कर दीजिए." तुलसीदास जी फेर में पड़ गये. वे अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए बोले -
"देखिए, मैं ऐसा नहीं कर सकता, मैं कोई जादूगर नहीं हूँ."
"आप जादूगर नहीं हैं, परंतु भगवान श्रीराम के भक्त तो हैं. उनसे कहिए कि वे इसके पति को जीवित कर दें." उन लोगों की जिद के समक्ष तुलसीदास जी पराभूत हो गये और बोले -"ठीक है, मुझे वहाँ ले चलो, जहाँ इस स्त्री के पति का शव रखा हुआ है." सभी लोग उन्हें शव के समीप ले आये. गोस्वामी जी ने कहा -" आप सभी लोग अपनी अपनी ऑंखें बंद कर लो." कहते हैं उनकी आज्ञा का पालन करते हुए सबों ने अपनी अपनी ऑंखें बंद कर ली. परंतु एक व्यक्ति जो थोड़ा अभिमानी स्वभाव का था, उसने अपनी ऑंखें बंद नहीं की, बल्कि बंद करने का नाटक करते हुए तुलसीदास जी के क्रियाकलापों को देखने लगा. तुलसी दास जी ने अपने प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हुए मृत व्यक्ति को जीवन दान देने की विनती की. कहते हैं पलक झपकते वह व्यक्ति "राम राम" कहते हुए उठकर बैठ गया. तथा वह व्यक्ति जिसने अपनी आँखें बंद नहीं की थी, तत्काल ही अंधा हो गया. तुलसी दास जी के इस चमत्कार को देखकर सभी उनकी जय जयकार करने लगे. वह स्त्री तो एकदम से भावविभोर होकर उनके चरणों में लोटने लगी. अब तुलसी दास जी के इस चमत्कार की कथा चारों ओर फैल गयी. बादशाह अकबर के मंत्री राजा टोडरमल, जो गोस्वामी तुलसीदास जी के परमप्रिय मित्र थे, ने भी इस कथा को सुना और बादशाह को भरे दरबार में सुना दिया. बादशाह अकबर ने तुलसीदास जी से मिलने की इच्छा प्रकट की. राजा टोडरमल के कहने पर तुलसीदास जी बादशाह के समक्ष उपस्थित हुए. बादशाह ने उनसे कहा -"गोस्वामी जी, हमें भी कोई चमत्कार दिखाईये."
इसपर गोस्वामी जी ने कहा "क्षमा करें हुज़ूर, मैं कोई जादूगर या मदारी नहीं हूँ, जो आपको चमत्कार दिखाऊँ."
"तो फिर, आपने मुर्दा को जिन्दा कैसे कर दिया?" बादशाह ने थोड़ी नाराजगी
दिखाते हुए पूछा.
"किसने कहा कि मैंने मुर्दा को जिन्दा कर दिया. सब मेरे प्रभु श्रीराम जी की कृपा है."
"अपने रामजी को ही कहिये, कोई चमत्कार दिखा दें."
"ऐसा नहीं होता, प्रभु श्रीराम किसी के गुलाम नहीं हैं, जो मैं कहूँ और वे चमत्कार दिखाने लग जाएं." कहते हैं यह सुनकर बादशाह अकबर को बेतरह गुस्सा आ गया. और उन्होंने तुलसी दास जी को गिरफ्तार करने का हुक्म दे दिया. तत्काल गोस्वामी जी को गिरफ्तार कर लिया गया. और उन्हें दिल्ली किला में कैद कर दिया गया. (कुछ लोगों के अनुसार उन्हें फतेहपुर सिकरी के किला में बंद किया गया था.) बताया जाता है कि उसी कैद के दौरान उन्होंने हनुमान चालीसा लिखा था. और हनुमान जी की कृपा से ही हजारों बंदरों ने आकर किला को घेर लिया तथा उत्पात मचाने लगे. बंदरों के उत्पात को देखकर बादशाह घबरा गये और विवश होकर उन्हें, गोस्वामी जी को छोड़ देना पड़ा".
मेरे समझ से यह कथा बिलकुल ही तथ्यहीन तथा मनगढंत है. बादशाह अकबर, जो सभी धर्मो को सम्मान दृष्टि से देखते हुए संतों, विद्वानों तथा कवियों का सम्मान किया करते थे, जिनकी उदारता तथा सहिष्णुता पूरी दुनिया में विख्यात थी, वे ऐसी निष्ठुरता कर ही नहीं सकते थे. उन्होंने अपनी उदारता तथा संत कवियों के प्रति सम्मान का उदाहरण प्रस्तुत किया था जिसका उदाहरण मैं पूर्व में दे चुका हूँ. कुछ उदाहरण यहाँ भी दे रहा हूँ, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन्होंने तुलसी दास जी को कैद नहीं किया होगा.
तुलसीदास और सूरदास के ही समकालीन थे अष्टछाप के कवि नंदन दास. तानसेन के मुखारविंद से उनके श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धायुक्त गीतों को सुनकर बादशाह अकबर भावविभोर हो गये और उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की. उन्होंने अपने दूत उनके पास भेजा. पहले तो कुंभनदास ने दरबार में जाने से अस्वीकार कर दिया, परंतु अकबर के दूतों के काफी आरजू मिन्नतें करने के पश्चात वे अनमने भाव से दरबार में आये. परंतु वहाँ आने के पश्चात बादशाह अकबर के वैभव को देखकर उन्हें स्वयं की फटेहाली पर आत्मग्लानि हुई और उन्होंने अपनी हीनता तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति को अभिव्यक्त करनेवाले इस पद को सुनाया -
"संतन को कहाँ सीकरी सों काम!
आवत जात पहनियां टूटी, विसरि गयो हरिनाम।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिवे परी सलाम।।
कुंभनदास लाल गिरिधर विनु और सवै बेकाम।।"
अर्थात, हे राजा, हम संतों को भला सीकरी (फतहपुर सिकरी) के राजा से क्या काम? जिस राजा से मिलने आते वक्त पांव के जूते टूट जाते हैं और भगवान का नाम लेना भी भूल जाना पड़ता है, और जिन राजाओं के सुख और वैभव को देखकर मन में दु:ख उपजता है, यानि ग्लानि का अनुभव होता हो और जिन्हें सलाम करना पड़ता हो, अपने गिरधर (श्रीकृष्ण) के समक्ष ऐसे सभी राजा बेमतलब हैं।"
कहते हैं उनके इस पद को सुनकर बादशाह अकबर इतने आह्लादित हुए कि उन्होंने उनका न सिर्फ आदर सत्कार किया बल्कि ढ़ेर सारा उपहार ( सोने की अशर्फियां) भी देना चाहा परंतु संत कुंभनदास ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया.
इस कथा से भी बादशाह अकबर की दरियादिली तथा संत कवियों के प्रति उनके मन में सम्मान की जो भावना थी, वह परिलक्षित होती है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने किसी भी परिस्थिति में तुलसी दास जैसे महान संत को कारागार में नहीं डाला होगा. यह सब मजहब के नाम पर उन्हें बदनाम करने का एक षडयंत्र मात्र है.
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क्रमशः......!
(अगले अंक में पढ़े संत कवि रहीम खानखाना की त्रासदी पूर्ण जिन्दगी तथा उनकी रामभक्ति की कहानी)
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