अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी (वर्तमान भागलपुर) समस्त आर्यावर्त में विख्यात थी. यहाँ दूर दूर से पर्यटक तथा व्यापारी भ्रमण एवं व्यापार के लिए आया करते थे. इन परदेशियों तथा नगरवासियों के मनोरंजन हेतु नगर के उत्तरी छोर पर उच्च कोटि की नृत्यांगनाओं (गणिकाओं) की नृत्यशालाएं थी. उन्हीं नृत्यांगनाओं में से एक थी सावंती. वह न सिर्फ कुशल नृत्यांगना थी, बल्कि अपूर्व सुन्दरी और सिद्धहस्त गायिका भी थी. युवावस्था से वह अब प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर रही थी, फिर भी उसका सौंदर्य मलिन न होने पाया था. उसकी एक षोड्षी कन्या थी, जिसका नाम था शान्ता. (द्रष्टव्य: महाराज रोमपाद की दत्तक पुत्री {महाराज दशरथ की पुत्री} का नाम भी शान्ता था.) नगर विभूषणा सावंती की पुत्री शान्ता भी अपनी माँ की तरह ही अनुपम सुन्दरी, कुशल नृत्यांगना तथा चतुर गणिका के सारे गुणों से परिपूर्ण थी. वह अप्सराओं की भांति चपला और सुरसरिता थी. इन दोनों मॉं-पुत्री की ख्याति आर्यावर्त के पूरे जनपद में विख्यात थी.
जब अंगदेश के गुप्तचरों ने महामात्य को उन दोनों मॉं-पुत्री के बारे में पूरी जानकारी दी, तब वे प्रसन्नता से झूम उठे. महाराज रोमपाद भी इस सुखद संवाद को सुनकर आनंद विभोर हो उठे और उन दोनों को शीघ्र ही राजदरबार में उपस्थित करने की आज्ञा दी. दूसरे दिन ही सावंती अपनी पुत्री शान्ता के साथ भरी हुई सभा में उपस्थित हुई. चूंकि उसे सभा में उपस्थित होने का प्रयोजन नहीं बताया गया था, इसलिए मन ही मन वह डरी हुई थी. परंतु महाराज रोमपाद के साथ साथ सभी सभासदों एवं विशिष्ट नागरिकों के म्लान मुखमंडल को देखकर उसे समझते देर न लगी कि मामला अंगदेश के ऊपर छाये भयंकर अकाल की विभीषिका से जुड़ा है. महाराज ने सावंती तथा उसकी पुत्री शान्ता की ओर आग्रहपूर्ण भाव से देखते हुए महामात्य को अपनी बात रखने का इशारा किया. महामात्य सावंती को इंगित करते हुए विनीत स्वर में बोले -"हे, अंगदेश की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना. आपको तो विदित ही है कि हमारे देश पर देवराज इन्द्र की कुदृष्टि पड़ी हुई है, जिस कारण विगत कई वर्षों से बारिश नहीं हुई, परिणाम स्वरूप देश में भयंकर अकाल पड़ चुका है. प्रजा त्राहिमाम कर रही है. हमारे महाराज दुश्चिंता के कारण कई माह से सो नहीं पाये हैं." महामात्य कुछ देर के लिए रूक गये. उनकी बातें सुनकर सावंती का हृदय हाहाकार करने लगा. पूरी सभा में मरघट जैसा सन्नाटा पसर चुका था. महामात्य ने पुनः कहना आरंभ किया -"महाराज ने देश तथा प्रजा के हित के लिए अनेकों यज्ञ, पूजा पाठ का आयोजन करवाकर देवराज इन्द्र को प्रसन्न करने का यत्न किया, परंतु सब व्यर्थ साबित हुआ. एक ऋषि ने भरी सभा में बताया कि यदि विभांडक ऋषि के बाल ब्रह्मचारी पुत्र ऋष्यशृंग के पावन पांव अंगदेश की राजधानी इस चम्पा नगरी की धरती पर पड़ जाए तब अंगदेश देवराज इन्द्र के कोप से मुक्त हो जाएगा. परंतु विडम्बना यह है कि विभांडक ऋषि ने अपने पुत्र को कहाँ छुपा कर रखा है, यह किसी को भी ज्ञात नहीं और फिर ऋषि ने यह भी कहा था कि ऋष्यशृंग को बलपूर्वक नहीं बल्कि प्रेमभाव से यहाँ लाना होगा और यह कार्य कोई चतुर गणिका ही कर सकती है. इसलिए महाराज की ओर से मैं अंगदेश का महामात्य आपसे विनती.....!"
"नहीं महामात्य महोदय ऐसा कहकर मुझ पर पाप मत चढ़ाइए." उन्हें रोकती हुई सावंती विकल स्वर में बोल पड़ी. फिर वह महाराज की ओर देखती हुई आदरभाव से बोली -"महाराज की जय हो....! यह हमारा सौभाग्य होगा कि हम पतिता मानी जाने वाली मॉं-पुत्री अपने राज्य और राज्य की प्रजा के हित के लिए कुछ कर सकें. यदि इस कार्य को सफलता पूर्वक निष्पादन करते समय, हमें अपने प्राणों की आहूति भी देनी पड़ जाये तो हम सहर्ष दे देंगे."
"आपकी बातें सुनकर, मुझे हुई देवि!" महाराज उत्फुल भाव से बोल पड़े.-"इस कार्य को सम्पन्न कराने में महामात्य अच्युत वर्द्धन जी आपको भरपूर सहयोग करेंगे. आपको जिस चीज़ की भी आवश्यकता हो नि:संकोच महामात्य जी को बोल दें."
"जो आज्ञा देव." सावंती अपनी पुत्री के साथ महाराज की अभ्यर्थना करने के पश्चात दरबार से बाहर चली गयी.
अपने भवन में आने के पश्चात दोनों मॉं-पुत्री गहन चिंतन में डूब गयी. उन दोनों ने महाराज के समक्ष स्वीकार तो कर लिया था, परंतु यह कार्य इतना सहज और सरल न था जितना कि उन दोनों ने समझ लिया था. यह विख्यात हो चुका था कि स्वयं विभांडक ऋषि सम्पूर्ण स्त्री जाति से घृणा करने लगे थे. ऐसी स्थिति में उनके आश्रम में जाने का अर्थ, उनके कोप का भाजक बनना था. परंतु महाराज को आश्वासन देने बाद पीछे हटना भी संभव न था. अब जो होगा देखा जाएगा. दोनों मॉं-पुत्री ने हर हाल में इस कार्य को पूर्ण करने का मन ही मन दृढ़ संकल्प ले लिया.
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नृत्यांगना सावंती और महात्मा अच्युत वर्द्धन की देखरेख में महामती नदी के तट पर चार विशाल नौकाएं बनवायी गयी. फिर उन चारों नौकाओं को जक साथ जोड़कर महा विशाल नौका का रूप दे दिया गया. उस नौका पर ऋषि मुनियों की पर्ण कुटीर का निर्माण किया गया. पर्ण कुटीर के सामने सुन्दर बागीचा बनाया गया तथा पर्ण कुटीर को पेड़ पौधों से इस तरह आच्छादित कर दिया गया कि वह विशाल नौका अब किसी तेजस्वी ऋषि का आश्रम जैसा दिखने लगा. परंतु आश्रम सदृश्य दिखने वाले उस नौका के पर्ण कुटीरों का भीतरी कक्ष में मखमली बिछावन के साथ साथ विलासिता के सारे साधन उपलब्ध थे. लगभग बीस की संख्या में नृत्य गीत और संगीत में निष्णात युवा नर्तकियों के साथ सावंती और शान्ता भी सवार हुई. उनकी सुरक्षा के लिए राज्य की ओर से सैनिक भी साधुओं के छद्म भेष में एक गुप्त कक्ष में छुप गये. जहाँ सावंती ने एक प्रौढ़ ऋषि का रूप धारण किया था, वहीं उसकी पुत्री शान्ता तथा सभी नर्तकियां तरुण ऋषि के छद्म रूप में थी. (कुछ पुराणों के अनुसार ऋष्यशृंग को चम्पा नगरी में लाने के लिए स्वयं महाराज रोमपाद (लोमपाद) की दत्तक पुत्री शान्ता ही गयी थी, परंतु अधिकांश पुराणों में शान्ता नाम की गणिका का जिक्र आया है, इसलिए मैं भी शान्ता नाम की गणिका का ही उल्लेख कर रहा हूँ.) ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सावंती कोई सिद्ध ऋषि हो. उसने केशरिया वस्त्र धारण कर रखा था. गले में रुद्राक्ष की माला थी. चेहरे पर घनी दाढ़ी तथा बालों का जुड़ा बनाकर उसमें भी रुद्राक्ष की माला बांध रखी थी. उसकी पुत्री शान्ता का रूप भी ऐसा ही था. हाँ, उसके तथा अन्य नृत्यांगनाओं के चेहरे पर दाढ़ी मूंछे नहीं थी इसलिए वे सभी तरुण संन्यासी दिख रहे थे. उस आश्रम रूपी नौका को महामती नदी की तेज धारा में उतारा गया. कुछ कुशल नाविक उस नौका को खेते हुए पूरब दिशा में, उस ओर ले जाने लगे, जिधर विभांडक ऋषि का आश्रम था.
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क्रमशः......!-
-रामबाबू नीरव
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