विशेष आलेख

 


-रामबाबू नीरव

हजरत अब्दुल हसन यमीनुद्दीन अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम शायर थे जिन्होंने अपनी रचनाओं में फारसी और अरबी के साथ हिन्दुस्तानी भाषाओं का खुलकर प्रयोग किया. वे खड़ी बोली हिन्दी के जनक माने जाते हैं. उन्होंने खड़ी बोली को सर्वप्रथम हिन्दवी नाम दिया. उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ की जैसे- बादशाहों की जीवनी, इतिहास, नज़्म, कविताएँ, ग़ज़ल, दोहे, गीत, कौव्वाली, पहेली तथा  मुकरी आदि. हजरत अमीर खुसरो ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को न सिर्फ नजदीक से बल्कि बारिकी से देखा, परखा और अध्ययन किया. तब उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि हिन्दुस्तानियों के दिल में तभी जगह बनायी जा सकती है जब तक की इनकी लोकभाषा, लोक सभ्यता और लोक संस्कृति को न अपनायी जाये. और उन्होंने ऐसा ही किया. वे मूल रूप से फारसी के विद्वान थे और उन्होंने फारसी में बड़े बड़े ग्रंथ लिखे. बादशाहों की जीवनियाँ लिखी. इतिहास लिखे, लेकिन जो ख्याति उन्हें अपने गीतों, नज्मों, ग़ज़लों, कौव्वालियों, पहेलियों तथा मुकरियों से मिली वैसी ख्याति बड़े बड़े ग्रथों से नहीं मिली. इसका एक मात्र कारण था कि उन्होंने अपनी विधाओं का सृजन भारतीय लोक भाषाओं, जिन्हें वे स्वयं *हिन्दवी* कहकर पुकारा करते थे, में की. परिणाम यह हुआ कि उनकी हिन्दवी में लिखी गयी रचनाएँ जनमानस में पैठ कर लोकोक्ति बन गयी. जहाँ उनकी ग़ज़लें, कविताएँ, गीत और कौव्वाली लोगों के दिलोदिमाग में छा गये वहीं भारतीय महिलाओं ने उनकी पहेलियों, कह मुकरियों तथा लोक गीतों को सुबह शाम गाने और गुनगुनाने लगी. पहेलियाँ (बुझौवल), मुकरियां तथा कौव्वाली उनकी खुद की इजाद (आविष्कार) की हुई विधाएँ हैं. साहित्य की तरह भारतीय संगीत में भी उन्होंने नये नये प्रयोग किये और भारत के शास्त्रीय संगीत परंपरा को फारसी और अरबी परंपराओं से जोड़ कर न सिर्फ संगीत को शिखर तक पहुँचाया बल्कि विश्व में भारतीय संगीत को भारतीय संस्कृति में ही एक नयी पहचान दिलवायी. आइए इस लेख में हम उनकी साहित्य की तीन विधाओं के साथ साथ संगीत साधना पर भी संक्षिप्त में अध्ययन करेंगे.

सर्वप्रथम हम हिन्दी काव्य विधा दोहा पर विचार कर लें.

दोहा का दूसरा नाम सोरठा भी है. मूल रूप से दोहा अर्द्ध मात्रिक छंद है. इस छंद में मात्र दो पंक्तियाँ होती है. इसके चार चरण माने जाते हैं. इसके विषम चरणों के प्रथम तथा तृतीय  में 13-13 मात्राएँ होती हैं तथा सम चरणों के द्वितीय तथा चतुर्थ में 11-11 मात्राएँ होती है. माना जाता है कि दोहा का प्रादूर्भाव छठी शताब्दी के आसपास हुआ था. जैन मुनि हेमचन्द्र ( 1078-1162) ने इस काव्य विधा को आगे बढ़ाया, फिर अमीर खुसरो (1257-1326) संत कबीर (1398-1518), रहीम खानखाना (1556-1627) तथा बिहारी लाल (1603-1660) आदि ने इस विधा को बुलंदी तक पहुंचाया. हजरत अमीर खुसरो के कुछ दोहें देखें -

"अंगना परबत भयो, देहरी भयी विदेस, 

जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस." 

"खुसरो पाती प्रेम की, विरला बांचे कोय, 

वेद, पुराण, पोथी पढ़े, 

प्रेम बिना का होय."

"साजन ये मत जानियो, तोहे बिछड़त मोहे को चैन, 

दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन."

"खुसरो तन सराय है क्यों सोवे सुख चैन, 

कुच नगारा कुच का बाजत है दिन रैन."

   खुसरो के दोहे में, ईश्वर के प्रति भक्ति, जीवन दर्शन, मानवीय संवेदना, तथा आपसी भाईचारा यानि प्रेम की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है. खुसरो के इसी भाव को उनके बाद के संत कवियों ने भी अपनाया. खासतौर पर रहीम खानखाना के दोहे अमीर खुसरो के दोहों की अनुकृति लगती है.

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अब आइए हजरत खुसरो की इजाद की हुई अजीबोगरीब काव्य विधा "मुकरी" पर एक नज़र डालें. सर्वप्रथम हम ये समझ लें कि मुकरी है क्या? मुकरी का शाब्दिक अर्थ है - कहकर मुकर जाना. इसलिए इसे कह मुकरी भी कहते हैं. इस काव्य विधा के जनक हजरत अमीर खुसरो साहब ही हैं. यह काव्य की वह अनोखी विधा है जिसमें दो सखियों के बीच संवाद के माध्यम से पहेलियाँ (बुझौवल) बुझाई जाती है. दूसरी सहेली समझती है कि उसकी सहेली अपने साजन के बारे में पूछ रही है. परंतु अंतिम पंक्ति में पहेली का रहस्य प्रकट करती है. यानि चार पंक्तियों के इस लघु काव्य की तीन पंक्तियों में प्रश्न होता है और अंतिम यानि चौथी पंक्ति में उत्तर होता है. चूंकि पहली सहेली अपनी कही हुई बातों से मुकर कर पहेली का सही अर्थ बताती है, इसलिए इसे कह मुकरी के नाम से भी जाना जाता है. मुकरियों में मनोरंजन के साथ साथ बौद्धिक कुशलता की परीक्षा भी हो जाती है. खुसरो साहब द्वारा इजाद की गयी इस विधा को हिन्दी साहित्य के भीष्म पितामह माने जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आगे बढ़ाया, परंतु बाद के साहित्यकारों (कवियों) ने  इस विधा को हासिये पर ला दिया. हजरत अमीर खुसरो तथा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कुछ मुकरियों की तासीर देखिए -

"खा गया, पी गया

दे गया बुत्ता,

ऐ सखि साजन? 

ना सखि कुत्ता " -खुसरो

"लिपट लिपट के बाके सोई

छाती से छाती लगा के रोई

दाॅंत से दॉंत बजे तो ताड़ा

ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा." - खुसरो

"ऊंची अटारी पलंग बिछायो

मैं सोई मेरे सिर पे आयो

खुल गयी अखियां भयी आनंद

ऐ सखि साजन? ना सखि चांद." -खुसरो.

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"मुंह जब लागै तब नाही छुपा

जाति, मान, धन सब कुछ लुटा

पागल करि मोहिं करे खराब

क्यों सखि साजन? नहीं सखि सराब." -भारतेन्दु

"भीतर भीतर सब रस चूस

हंसि हंसि के तन मन धन मुसै

जाहिर बात के अति तेज

क्यों सखि साजन? नहिं सखि अंग्रेज." भारतेन्दु

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कव्वाली गायन विधा की एक शैली है जिसके प्रणेता हजरत अमीर खुसरो ही माने जाते हैं. यह विधा फारसी, तुर्की, अरबी और भारतीय गायन परंपराओं को मिलाकर एक नयी शैली बनायी गयी. यह सूफी भक्ति संगीत की एक उपशैली है. (इसलिए अक्सर इसे किसी सूफी संत के मजार पर उनकी याद में गाया जाता है.) इस गायन शैली में मुख्य गायक के अतिरिक्त सह गायकों की टोली होती है. जो कोरस (समूह गान) के रूप में न सिर्फ मुख्य गायक अथवा गायिका का साथ देते हैं, बल्कि उसका उत्साह वर्द्धन भी करते हैं. बाद के दिनों में यह गायन शैली इतनी विख्यात हुई कि इसमें दो दो टोलियों को जोड़कर कव्वाली के सवाल जवाब शैली का विस्तार किया गया. आगे चलकर इस गायन शैली में महिला गायिकाओं ने भी रूचि दिखाई और बड़े पैमाने पर महिला कौव्वालों की टीमें बनती चली गयी, जो अब भोंडे नृत्य प्रदर्शन की होड़ में लुप्त होती जा रही है. अमीर खुसरो की कुछ कौव्वालियां काफी लोकप्रिय है जिन्हें आज भी कौव्वाल मस्ती से गाते हैं -

1."छाप तिलक सब छोड़ी रे     तोसे नैना मिलाइके.

प्रेम वटी का मदवा पिलाके

मतवारी कर दीन्हि रे

मोसे नैना मिलाइके.

खुसरो निजाम* पे बलि बलि जइये

मोहे सुहागिन कर दीन्हि रे

मोसे नैना मिलाइके"

(*अमीर खुसरो के उस्ताद हजरत निजामुद्दीन औलिया) 

2. काहे को ब्याहे ओ लखि बाबुल मोरे

      भईया को दियो महल

      दो महले

      हमको दियो विदेस

      ओ लखि बाबुल मोरे

      हम तो बाबुल तोरे

      बगिया की कलियाँ

      घर घर बांचे संदेश

      लखि बाबुल मोरे."

   हजरत अमीर खुसरो साहब ने कई भारतीय वाद्ययंत्रों का भी आविष्कार किया था जिसमें प्रमुख है - सितार और तबला.

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समाप्त

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