विशेष आलेख

 


- रामबाबू नीरव

मध्य एशिया के लाचन जाति के तुर्क सरदार सैफुद्दीन महमूद के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म तेरहवीं शताब्दी (1253 ई०) में वर्तमान उत्तर प्रदेश के एटा (कासगंज) जिलान्तर्गत पटियाला गाँव में हुआ था. उस समय दिल्ली का सुल्तान बलबन था. अमीर खुसरो के अब्बा हुजूर लाचन जाति के ही तुर्क सरदार चंगेज़ खां की क्रूरता से तंग आकर भारत में शरणार्थी के रूप में आ गये थे. उनके अब्बा हुजूर की शादी सुल्तान बलबन के एक वजीर की बेटी बीबी दौलत नाज़ के साथ हुई थी. जब खुसरो मात्र सात साल के ही थे कि उनके अब्बा हुजूर का इंतकाल हो गया. उनकी परवरिश उनके नाना ने की. चूंकि उनका वास्ता सुल्तान बलबन के वजीर से था, इसलिए समाज में उनका खास रुतबा तथा इज्जत थी. वे किशोरावस्था से ही गीत, ग़ज़ल, नज्म, पहेलियाँ (बुझौवल) तथा कह मुकरी आदि लिखने लगे थे. वे मूल रूप से फारसी के अदीब थे, मगर हिन्दुस्तानी जुबान को तरजीह दिया करते थे. फारसी और ब्रजभाषा को एक साथ मिलाकर उन्होंने अनगिनत काव्य, गीत तथा ग़ज़लों की रचना की जो आज भी भारतीयों की जुबान पर है. उन्होंने पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली के आसपास बोली जान वाली बोलियों को मिलाकर एक नयी भाषा का आविष्कार किया जिसे उन्होंने खड़ी बोली कहा. बाद में इसी खड़ी बोली को हिन्दी साहित्य के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी का नाम दिया. आज वही खड़ी बोली हिन्दी हमारे देश की राजभाषा तथा हम हिन्दी भाषियों की मातृभाषा है. उनका पूरा नाम अब्दुल हसन यामीन उद्दीन खुसरो था. उन्हें अमीर की उपाधि से अल्लाउद्दीन खिलजी ने नवाजा था. तब से उन्होंने अपना नाम अमीर खुसरो रख लिया. उनकी सुरीली तथा मीठी आवाज को सुनकर इरान के एक शायर ने उन्हें "तूती-ए-हिन्द" की खिताब से नवाजा. तूती-ए-हिन्द का मायने होता है - "हिन्दुस्तान का तोता"

   एक बार बादशाह बलबन के भतीजे सुल्तान मुहम्मद ने उन्हें एक मुशायरे में अपना कलाम तरन्नुम के साथ पढ़ते हुए देखा, फिर तो वह उनके अंदाज-ए-बयां पर फिदा होकर रह गया. सुल्तान मुहम्मद खुसरो साहब को अपने साथ मुल्तान ले गया और उन्हें मुल्तान का दरबारी कवि बना दिया. खुद सुल्तान मुहम्मद भी शायर था, इसलिए वह खुसरो साहब का मुरीद बन गया. अमीर खुसरो सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया के शागिर्द थे. हजरत निजामुद्दीन औलिया खुसरो को दिलोजान से चाहते थे. बाद के दिनों में सुल्तान कैकुबाद ने उन्हें "मुलुक शुआरा" की उपाधि से नवाजा. मुलुक शुआरा का अर्थ होता है *राष्ट्र कवि ". खिलजी वंश के संस्थापक अलाउद्दीन खिलजी ने उन्हें अपने दरबार का दरबारी कवि बनाया . तब से लेकर अंतिम काल तक उन्होंने दरबारी कवि के रूप में आठ सुल्तानों की सल्तनत देखी. 

उन्होंने अपने काव्य तथा अन्य विधाओं में धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, भाषा, संगीत, रीति रिवाज, रहन सहन तथा जीवन के विभिन्न आयामों पर बल दिया. उन्होंने जहाँ एक ओर फारसी भाषा में बहुमूल्य कृतियाँ रची वहीं भारत की आम बोलचाल की भाषा में साहित्य सृजन कर अपनी कृतियों को जन जन तक पहुंचा दिया. जहाँ भारत के गाँव गाँव की महिलाएं उनके लोकगीत, लोकोक्ति तथा कह मुकरियां झूम झूम कर गाती हैं, वही पूरे मध्य एशिया में फारसी में लिखी गयी उनकी कृतियाँ मशहूर हैं. उनकी मुकरियों और लोक गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी बात दो सहेलियों के बीच संवाद के रूप में प्रस्तुत करते हैं. फिलहाल मैं उनके दो गीत, एक फारसी और ब्रजभाषा के समिश्रण से निर्मित तथा दूसरा विशुद्ध ब्रजभाषा (हिन्दवी) में लिखा हुआ गीत यहाँ दे रहा हूँ. फारसी और ब्रजभाषा के समिश्रण वाला वही गीत है, जिससे प्रेरित होकर गुलज़ार साहब ने गुलामी फिल्म का गीत लिखा था.

"जेहाल-ए-मस्कीं मुकुन तगाफुल

दुराय नैना बनाए बतियाॅं

कि ताबे हिजरा न दारम ऐजाॅं

न लेहु काहे लगाये छतियाॅं.

शबाने-हिजराॅं दराज़ चूं जुल्फों

रोज़े वसलत चूं उम्र कोताह

सखी पिया को जो न मैं देखूँ

तो कैसे काटूँ अंधेरी रतिया.

यकायक अज़दिल दो चश्म दादू

बस फ़रेबम बुवुर्द तबकी

किसे पड़ी है जो जा सुनाबे

पियारे पी को हमारी बतियाॅं.

चु शमअ सोज़ां जु जर्रा हैरा

ज़े मेरे आमह बगश्तक आखिर

न नींद नैना न अंग चैना

न आप आवें न भेजें पतियाॅं

न हक्के रोजे- विसाले दिलवर

कि दाद मारा फरेब खुसरो

सो पीत मन की दुकान राखो 

जो जान पाऊँ पिया की छतियाॅं."

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इस पूरे गीत का भावार्थ यह है -"मुझ गरीब की हालत से यूँ बेखबर मत बनो. ऑंखें मिलाते हो, ऑंखें चुराते हो, बातें बनाते हो. मेरी जान, जुदाई सहने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है. मुझे अपने सीने से क्यों नहीं लगा लेते? जुदाई की रातें जुल्फ की तरह लम्बी है. और मिलन के दिन जिन्दगी की तरह छोटा है. हे सखी, यदि मैं अपने पिया को न देखूँ तो डरावनी और काली रातें क्यों कर कटे. जादू भरी इन दोनों ऑंखों ने अचानक सैकड़ों बहाने बनाकर मेरा चैन छीन लिया है. किसके पास इतना समय है जो मेरे दिल के दर्द को सुने. मैं शमां की तरह जल रही हूँ और जर्रे की तरह हैरान हूँ. आखिर मैं उस निष्ठुर की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुकी हूँ. मेरी ऑंखों में न नींद है और न ही दिल को चैन है. मेरा प्रियतम इतना निर्दयी है कि ना तो खुद आता है और ना ही चिठ्ठियाँ भेजता है. प्रथम मिलन वाले दिन की कसम मेरे महबूब ने मेरे साथ फरेब किया है. मै अपने प्रेम को दिल में ही दबा कर रखती, जो यह जानती कि मेरे महबूब ने मेरे साथ धोखा किया है."

अब शुद्ध ब्रजभाषा में लिखे इस गीत में छुपे विरह वेदना की तासीर को देखिए. किस मासूमियत से दर्द भरे अंदाज में नायिका (विवाहिता स्त्री) अपने हृदय की पीड़ा सहेली को 

सुनाती है -

"जो मैं जानती विसरत विसरत हैं सैंया

घूंघट में आग लगा देती

मैं लाज का बंधन तोड़ सभी

पिय प्यार को अपने मना लेती. 

इन चुड़ियों की लाज पिया रखना

ये जो पहन लई अब उतरत नाही

मेरा ये सुहाग तुमई से है

मैं तो तुमई पे जुवना लूटा बैठी.

मोरे हार सिंगार की रात गयी

पियू संग उमंग की बात गयी. 

पियू संग उमंग मेरी आस लगी

अब आए न मोरे सांवरिया

मैं तो तनमन उन पर लूटा देती 

मुझे प्रीत की रीत न भायी सखी

मैं तो बनके दुल्हन पछताई सखी"

होती न जो दुनियाँ की शरम

मैं तो भेजके पतियां बुला लेती."

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यह गीत इतना सहज और सरल है कि न तो इसका अर्थ और न ही भावार्थ बताने की आवश्यकता है.

हॉं, उनकी कविताओं, गीतों, मुकरियों आदि में सखी या सहेली को नायिका के रूप में प्रस्तुत किया जाना, उनकी एक खास खिशेषता है. इससे उनकी रचनाओं में एक ऐसा प्रवाह आ जाता है, जो मन को मोह लेता है.

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(अगले अंक में पढ़े अमीर खुसरो साहब की मुकरियों, दोहों, लोकोक्तियों तथा उनके द्वारा इजाद किये गये भारतीय संगीत तथा वाद्ययंत्रों के बार में.)

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