लेखक: अरुण तिवारी
हम 21वीं सदी के इस दूसरे दशक के अंतिम वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं। इस वक्त की दो सबसे बड़ी सामाजिक चुनौतियां हैं: हताशा और तनाव। इन चुनौतियों के फलस्वरूप प्रमुखता से उभरते दृश्य चार हैं: अशांति, आत्मघात, विस्थापन और युद्ध। ये दृश्य, पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से फैल रहे हैं। ये दृश्य, काफी गंभीर और कष्टदायक हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ चिंतित है कि लोग आपस में लड़ क्यों रहे हैं ? उसकी चिंता यह भी है कि लोग एक देश से उजड़कर, दूसरे देशों में क्यों जा रहे हैं ? यूरोपीय नगरों के मेयर चिंतित हैं कि उजडे़ लोग आकर उनके यहां क्यों बस रहे हैं ? जहां एक ओर भूखे, बीमार, लाचार लाखों परिवार, रोज़गार और शांति की तलाश में अपनी जड़ों से उजड़ने को मज़बूर हैं, वहीं दूसरी ओर जिन इलाकों में वे विस्थापित हो रहे हैं; वहां क़ानून-व्यवस्था की समस्यायें खड़ी हो रही हैं। सांस्कृतिक तालमेल न बनने से भी समस्यायें हैं। इन समस्याओं और चिंताओं में तीसरे विश्व युद्ध के बीज स्वयमेव मौज़ूद हैं। ज्यादातर प्रचार यही है कि इस अंतर्राष्ट्रीय उजाड़ का कारण आतंकवाद, सांप्रदायिक विभेद, सीमा-विवाद अथवा आर्थिक तनातनी है। किंतु सच यह नहीं है। सच यह है कि बढ़ती हवस, बढ़ता उपभोग, घटते प्राकृतिक संसाधन तथा दूसरे के संसाधन पर कब्जे की नीयत ने ये हालात पैदा किए हैं। इन संसाधनों में पानी सबसे प्रमुख है। यकीन न हो तो दुनिया के मानचित्र पर निगाह डालिए।
एक नज़ीर सीरिया
आज टर्की-सीरिया-इराक विवाद ने शिया-सुन्नी और आतंकवादी त्रासदी का रूप भले ही ले लिया हो, किंतु वास्तविकता यही है कि विवाद की शुरुआत इफरेटिस नदी के पानी को लेकर ही हुई। इफरेटिस नदी, टर्की से निकलकर सीरिया होते हुए इराक तक जाती है। टर्की का दावा है कि इफरेटिस नदी में आने वाले कुल पानी में 88.7 प्रतिशत योगदान तो अकेले उसका ही है। फिर भी वह तो मात्र 43 प्रतिशत पानी ही मांग रहा है। दूसरा पक्ष देखिए। इफरेटिस के प्रवाह में सीरिया का योगदान 11.3 प्रतिशत और इराक का शून्य है; जबकि पानी की कमी वाले देश होने के कारण सीरिया, इफरेटिस के पानी में 22 प्रतिशत और इराक 43 प्रतिशत हिस्सेदारी चाहता है। गौर करने की बात यह भी है कि सीरिया और इराक में पानी की कमी के अनेक कारणों में सबसे प्रमुख कारण, टर्की द्वारा इफरेटिस और टिग्रिस नदी पर बनाये बांध ही हैं। किंतु टर्की इस तथ्य की उपेक्षा करता है।
वस्तुस्थिति यह है कि टर्की ने मूल नदी जल बंटवारा संधि (1987) का उल्लंघन करते हुए 15 अप्रैल, 2014 के बाद से इफरेटिस नदी के प्रवाह में कटौती करनी शुरु की और अपनी दादागीरी जारी रखते हुए 16 मई, 2014 को सीरिया और इराक के हिस्से का पानी छोड़ना पूरी तरह बंद कर दिया। परिणामस्वरूप, नदी किनारे की खेती योग्य भूमि रेगिस्तान में तब्दील होती गई। सीरिया, दुनिया में सबसे पुरानी खेती का देश है। नदी जल विवाद ने ऐसे देश के एक बडे़ भू-भाग में खेती कार्य को दुष्कर बना दिया। इस कठिनाई ने खेतिहरों को जड़ से उखड़ने को मज़बूर किया। हज़ार-दो हज़ार नहीं, करीब 20 लाख की आबादी उजड़ी। उजड़ने वाले बगदाद गये; लेबनान गये; फिर ग्रीस, टर्की से होते हुए जर्मनी, यू के, स्वीडन, नीदरलैण्ड, ऑस्ट्रिया, बेल्ज़ियम और यूरोप के देशों तक पहुंचे।
आज सीरिया में पानी का संकट इतना गहरा है कि सीरिया की करीब 70 प्रतिशत आबादी पीने के पानी की कमी से जूझ रही है। जब पीने को पानी ही पर्याप्त नहीं, तो भूख का इंतज़ाम कहां से हो ? आज, सीरिया के करीब 20 लाख से ज्यादा लोग अपनी भूख का इंतज़ाम खुद करने में सक्षम नहीं हैं। लगभग इतने ही यानी सीरिया में करीब 20 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल से बाहर हैं। हर पांच में से चार आदमी, गरीब है। विस्थापित लोगों में से चार लाख तो ऐसे हैं कि जो जीवन सुरक्षा के बुनियादी साधनों से महरूम हैं। सोचिए कि यह सब क्यों हुआ ?
यदि हम इफरेटिस नदी में 17.3 अरब क्युबिक मीटर जल की उपलब्धता आंकडे़ देखें तो समझ में आता है कि संबंधित तीनो देशों में पानी की मांग ज्यादा है और इफरेटिस नदी में पानी कम है।  अतः मांग-आपूर्ति के इस असंतुलन के कारण भी तीनों देशों के भीतर तनाव बढ़ना ही था; सो बढ़ा। दूसरी ओर सीरिया विस्थापितों द्वारा वाया टर्की, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन जाने की प्रक्रिया ने पूरे रास्ते को खटास से भर दिया। टर्की और इराक के लोगों द्वारा सीरिया के विस्थापितों के घरों और ज़मीनों पर कब्जे की हवस ने पूरा माहौल ही तनाव और हिंसा से भर दिया। इस हवस ने हिंसा को टर्की में भी पैर पसारने का मौका दिया। जिन्हे उजाड़ा था, वे ही सिर पर आकर बैठ गये। अब कोई टर्की से पूछे कि सीरिया और इराक में विस्थापन की बुनियाद किसने रखी ? टर्की द्वारा इफरेटिस और टिग्रिस पर बांधों ने ही तो। इफरेटिस बांध परियोजना निर्माण के दौरान विस्थापित तो दो लाख टर्की नागरिक भी हुए। नतीजा ? टर्की आज खुद भी एक अस्थिर देश है। आप देखिए कि शिया-सुन्नी तनाव की आंच सिर्फ इफरेटिस के देशों तक सीमित नहीं रही, यह जर्मनी भी पहुंची। जर्मनी के हनोवर में पिछले दो साल में चार बार तनाव हुआ। उक्त चित्र से चिंतित होते हुए हमें यह बार-बार याद रखने की ज़रूरत है कि दुनिया में फैली इस अशांति की जड़ में कहीं न कहीं पानी है। फिलस्तीन, इसका दूसरा उदाहरण है।
फिलस्तीन बनाम इज़रायल
फिलस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्त्रोतों को जाकर देखिए। उनके 85 प्रतिशत पानी का उपयोग, इज़रायली ही कर रहे हैं। वे अक्सर इज़रायली किबुत्जों के नियंत्रण में हैं। एक ओर फिलस्तीन में बाहर से आकर बसे इज़रायलियों के पास बड़े-बडे़ फार्म हैं; हरे-भरे गार्डन हैं; स्वीमिंग पूल हैं। इज़रायलियों के पास सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी है; दोहन के लिए मशीने हैं तो दूसरी ओर, ग्रामीण फिलस्तीनियों को बहता पानी तक नसीब तक नहीं है। वे जो पानी पी रहे हैं, वह विषैली अशुद्धियों से भरा है। वे किडनी में पथरी जैसी कई जलजनित बीमारियों के शिकार हैं। उनका ज्यादातर पैसा, समय और ऊर्जा इलाज कराने में जा रहे हैं। फिलस्तीनियों के पास ज़मीने हैं, लेकिन वे इतनी सूखी और रेगिस्तानी हैं कि वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते। वे मांसाहारी हैं, लेकिन मांस उत्पादन को भी तो पानी चाहिए। यही वजह है कि एक आम फिलस्तीनी, एक दुःखी खानाबदोश की जिंदगी जीने को मज़बूर हैं।
खानाबदोश फिलस्तीनियों को खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा की कितनी ज़रूरत है; यह बात आप इसी से समझ सकते हैं कि अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए वे कभी-कभी लूट भी करने लगे हैं। मज़बूरी में उपजी इस नई हिंसात्मक प्रवृति के कारण वे कभी-कभी सीरिया-सुन्नी और फिलस्तीनी-शिया के बीच संघर्ष का हिस्सा भी बन जाते हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इज़रायली और फिलस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। आज फिलस्तीनियों की तुलना में इज़यरायली लोग चार गुना अधिक पानी का उपभोग कर रहे हैं; बावजू़द इसके फिलस्तीन कुछ नहीं कर पा रहा है। अभी पिछली जुलाई के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति श्रीमान ट्रंप के दखल से एक द्विपक्षीय समझौता हुआ भी तो आप देखेंगे कि यह समझौता इज़रायल को किसी भी तरह बाध्य नहीं करता कि वह पश्चिमी तटीय फिलस्तीन के जल संकट के निदान के लिए कुछ आवश्यक ढांचागत उपाय करे। ऐसे में टकराव तो होगा ही।
व्यापक चित्र
सीरिया, टर्की, इराक, फिलस्तीन, इजरायल के ये टकराव तो नज़ीर मात्र हैं। तलाश करें तो स्पष्ट होगा कि मध्य एशिया और अफ्रीका के करीब 40 देशों में कायम सामुदायिक अस्थितरता का मूल कारण पानी ही है। जॉर्डन, केन्या, यूथोपिया, सोमालिया, सूडान, ब्राजील... सब जगह यही चित्र है। समय बीतने के साथ-साथ यह चित्र और गहरा रहा है। जैसे-जैसे दूसरे देशों में शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है, अशांति बढ़ रही है। सत्ता में बने रहने की राजनैतिक चालें, पानी से उपजे इस चित्र को वर्ग और सांप्रदायिक विभेद तथा राष्ट्रवादी नारों के रंग भरकर पेश कर रही हैं। ये चालें दुनिया को हिंसा और युद्ध के जिस रणक्षेत्र की ओर ले जा रही हैं, कहिए कि क्या यह पानी की खातिर विश्व युद्ध का कुरुक्षेत्र नहीं है ? क्या भारत इससे अछूता है ? अपने आसपास निगाह डालिए।
कितना दुष्प्रभावित भारत ?
मार्च - 2019 में दिल्ली की वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र की झुग्गी बस्ती में पानी के झगडे़ में एक की हत्या कर दी गई। पानी की आपूर्ति में कमी और बिल में बढ़ोत्तरी के विरोध जयपुरवासी सड़क पर उतरे। शिमलावासियों के नलों में तीसरे दिन आते पानी का आक्रोश, स्वयं हिमाचल के महामहिम राज्यपाल के मन में दिखा। उत्तराखण्ड के 92 में से 71 नगर आक्रोशित हुए कि उन्हे मानक से बहुत कम पानी मिला। अप्रैल में राजनेता आंदोलित हुए कि गैरसैंण को उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी बनाओ। उन्हे ये एहसास ही नहीं कि कल को उनसे उग्र आंदोलन, गैरसैंण की मात्र 12 हज़ार की आबादी भी करेगी। चूंकि उसे अभी प्रति व्यक्ति प्रति दिन मात्र 27 लीटर पानी मिल ही रहा है। यदि कल को गैरसैंण राजधानी बन गई, तो मांग-आपूर्ति से उपजे जल संकट और बेचैनी का क्या होगा ? मामला संसाधनों का होगा; राजनेता इसे गैरसैंणी बनाम गैर गैरसैंणी बनाकर पेश करेंगे। मराठी बनाम बिहारी और दिल्ली बनाम बिहारी के राजनैतिक प्रहसनों को याद कीजिए।
यह भूलने की बात नहीं है कि पानी से जुड़ी ऐसी कई बेचैनी भारत संबंधी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण बनती रही हैं। सतलुज नदी बंटवारे के कारण हरियाणा-पंजाब के बीच तलवारें खिंचती आपको याद ही होंगी। कावेरी जल विवाद का आक्रोश हमने बीते मार्च-अप्रैल के दौरान संसद में भी देखा और सड़कों पर भी। न संसद चली और न चेन्नई में आईपीएल मैच हुआ। मानसरोवर स्थित मूल स्त्रोत से निकलने वाली सिंधु नदी के लद्दाख क्षेत्र में कब्जे की चीनी साजिशों से हम वाकिफ हैं ही। भारत आने वाले तिब्बती प्रवाहों में चीन द्वारा परमाणु कचरा डालने तथा बांध बनाकर पानी रोकने की करतूतें पुरानी हैं। नवंबर, 2017 में भारत-चीन के बीच में इस बात को इस आशंका को लेकर गहमा-गहमी हुई कि चीन, भारत आने वाले प्रवाह के मार्ग को अपनी मोड़ने के लिए  1000 किलोमीटर लंबी सुंरग बना रहा है। चर्चा थी कि यह सुरंग, तिब्बत से लेकर चीन के ज़िगजियांग क्षेत्र के तकलीमाकन रेगिस्तान तक जायेगी।

गौर करने की बात है कि जल बंटवारे को लेकर पाकिस्तान के साथ हमारे विवाद हैं। नेपाल मूल की नदियों में नेपाल द्वारा छोड़े गये पानी से भारत में होने वाली तबाही को लेकर हम चिंतित रहते ही हैं। हमारे नेता म्यांमार के रोहिंग्या और बांग्ला देश से भारत आये शरणार्थियों के मसले को हिंदू बनाम मुसलमां के अंदाज में उठाते रहते हैं, तो बांग्ला देश नाखुश रहता है कि हम गंगा में ठीक नहीं कर रहे।
 
हम क्या करें ?

संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व जल विकास रिपोर्ट-2018 कह रही है कि दुनिया के 3.6 अरब लोग यानी आधी आबादी ऐसी है, जो हर साल में कम से कम एक महीने पानी के लिए तरस जाती है। पानी के लिए तरसने वाली ऐसी आबादी की संख्या, वर्ष 2050 तक 5.7 अरब पहुंच सकती है। 2050 तक दुनिया के पांच अरब से ज्यादा लोग के रिहायशी इलाकों में पानी पीने योग्य नहीं होगा। इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि दुनिया में पानी के विवाद और इसके कारण विनाश, विस्थापन और अशांति के चित्र अभी और नीचे उतरेंगे; गांव-नगर, फैक्टरी-खेती, समंदर-बांध, तालाब-नल आपस में लडेंगे। प्रश्न है कि हम क्या करें ? युद्ध की शक्ति बढ़ायें अथवा शांति के प्रयास ?
जल-स्वावलम्बन से संभव शांति

मेरा मानना है कि अशांति पानी से उपजी है तो शांति का मार्ग भी पानी में ही तलाशना चाहिए। किंतु भारत के पानी संकट का समाधान, इज़रायली पानी प्रबंधन का मॉडल नहीं हो सकता। वह अत्यन्त मंहगी तक़नीक और दूसरे के पानी पर कब्जे की दादागीरी पर आधारित मॉडल है। भारत का जल प्रबंधन दूसरे के संसाधन की ओर ताकने की बजाय, अपने पास जो है उसी से जीवन चलाने वाला होकर ही शांतिप्रद हो सकता है। पानी के मामले में इसके लिए अनुशासित उपयोग को अपनी आदत बनाना चाहिए। कम पानी और वर्षा आधारित खेती-बागवानी को अपनाना चाहिए। उपभोग घटाना चाहिए; एक बार उपयोग किए संसाधन को अन्य कार्य में सदुपयोग का चित्र फैलाना चाहिए। जितना पानी कुदरत से लें, उसे वैसा और उतना पानी संचित करके लौटाना चाहिए। हर मकान, गांव, नगर, देश की खोपड़ी पर पानी बरसता है; उसे संचित करके हम ऐसा कर सकते हैं। सतही जलसंरचनाओं को शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण से मुक्त करने इसमें सहायक होगा। तय मानिए कि प्रकृति से लेन-देन का यह समीकरण जैसे ही संतुलित होगा, दुनिया के बीच रिश्ते का समीकरण स्वतः संतुलित हो जायेगा। यही नैतिकता है और हर रिश्ते का शांति पथ भी।

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