`रहगुजर´ अति संवेदनशील ग़ज़लकार उमाशंकर लोहिया का सद्यः प्रकाशित संग्रह है ,जो अभिधा प्रकाशन से छप कर आया है। इस संग्रह में कुल 101 ग़ज़लें और 101 रुबाइयां हैं जो भाव पक्ष और कला पक्ष दोंनो ही रूपों में उत्कृष्टता की दृष्टि से एक ही सिक्के के दो पहलू प्रतीत होते हैं।

समकालीन हिंदी ग़ज़ल में अपनी अलग पहचान बना चुके उमाशंकर लोहिया खास करके अपनी ग़ज़लों के लिए उन विषयों का चयन करते हैं जिन्हें अन्य रचनाकार सूक्ष्म या अति सामान्य समझ कर छोड़ देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसे कुछ शेर देखें :

 बात दहेज-उन्मूलन की रस्म बन गई है ,

अर्थियाँ दुल्हनों की सजाने लगे हैं लोग।


कहने को शेष है बात गीता-कुरान की ,

चेहरा हर शख्स का यहाँ काजल सना है ।


गुम हो गये वो कनखियों के इशारे ,

फकत यादों का ज़हर है और मैं हूँ।


अगर गौर करें तो उमाशंकर लोहिया , हिंदी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत की परंपरा का बखूबी निर्वहन करते हुए नज़र आते हैं। लोहिया जी की ग़ज़लों के हर शेर विशेष अर्थ का बोध कराते हैं। इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक समस्याओं को रेखांकित करती हैं। इस संदर्भ में कुछ शेर देखें :


कब खिलेंगे चमन में गुलाब के फूल,

अब मुरझाने लगे हैं ख्वाब के फूल।


जिंदगी तुम्हें जी रहा हूं मैं इंसान की तरह,

मुझे मजबूर न कर जीने को बेइमान की तरह।


 शोषित पीड़ित अभिशप्त जनों को ,

 रोटी कपड़ा छप्पर - छानी दे।


 लूटा है चमन को बनकर मेहरबां कोई ,

 किसे सुनायें ग़ज़ल है नहीं राजदां कोई 


 जश्ने-आजादी के परचम फहरा लिये बहुत ,

 लिख रहा तिरंगे पे सवालिया निशां कोई।


मजहब के नाम पे दहशत क्यूँ सरेआम है ,

मुकम्मल हो ईमां तेरा खुदा का पयाम है।


तुझ में खुदा खुद है फिर भी खोजता है खुदा,ने एक राहों पर चलना ही खुदा का मुकाम है 


 कुल मिलाकर कहें तो उमाशंकर लोहिया की ग़ज़लें सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध कड़े शब्द अख्तियार करती है। इन्होंने न केवल ग़ज़लें लिखी हैं अपितु उसे निरंतर जीने का साहस भी दिखाया है। संग्रह के तमाम ग़ज़लों से गुजरते हुए आपको शेरों में कहन की सरलता तथा अपनी दृष्टि को पुरजोर तरीके से रखने का हुनर हर वक्त नज़र आयेगा। इनकी ग़ज़लों में कथ्य की कोरी भावुकता नहीं अपितु यथार्थ की कठोर अभिव्यक्ति है। यही वज़ह है कि इन ग़ज़लों से गुजरते हुए पाठक की अपनी पीड़ा का भान होता है।इनकी ग़ज़लों में  दुख, क्लेश, भूख, बेरोजगारी, नैतिकता का ह्रास, टेक्नोलॉजी की वज़ह रिश्तों के बीच आने वाली कृत्रिमताएँ इत्यादि का प्रमुखता से उभरकर आया है।

उमाशंकर लोहिया की रचनाधर्मिता नयी पीढ़ी के ग़ज़लकारों के लिए प्रेरणा है। संग्रहित ग़ज़लों की भाषा सरल व सटीक है। इसके अलावा जो इसे और भी पठनीय बनाता है वो है इसकी वास्तविकता। अर्थात कवि ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कथन "साहित्य समाज का दर्पण है" को पूरी ईमानदारी से आत्मसात करके शेरों को गढ़ा है।

पुस्तक- रहगुजर 

ग़ज़लकार-  उमाशंकर लोहिया 

समीक्षक- अविनाश भारती 

प्रकाशन - अभिधा प्रकाशन 

मूल्य - 250 रुपये /-

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