धारावाहिक उपन्यास
- रामबाबू नीरव
अपनी नासिका तक घूंघट काढ़े हुई श्वेता शबाना के सहारे धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर रही थी. सभी रसिकों की नजरें उस पर ही टिकी हुई थी. उन दोनों के पीछे इस कोठे की अन्य लड़कियां भी नीचे आ रही थी. घूंघट सिर्फ श्वेता ने ही काढ़ रखा था. क्योंकि मुंह दिखाई की रश्म उसकी ही होनी थी. श्वेता और शबाना के साथ साथ अन्य लड़कियों ने भी अनुपम शृंगार किया था. उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे आकाश से देव- कन्याएं अवतरित हो रही हों. जवानों का दिल धड़क उठा, बुजुर्गों के ूदिल में बेचैनी होने लगी. धनंजय और रंजन का तो हाल ही बेहाल था. जैसे जैसे श्वेता नीचे आती जा रही थी, वैसे वैसे लोगों के दिल की धड़कनें बंद होती हुई सी महसूस होने लगी थी. जब श्वेता हॉल में आकर अपनी मां के समक्ष खड़ी हुई तब उसके पांव कांप रहे थे. बड़ी सख्ती से उसने अपनी आंखों में लरजने वाले ऑंसुओं को रोक रखा था.
"बैठ जा बेटी....!" उसकी कलाई थाम कर गुलाब बाई ने उसे अपने बगल में बैठा लिया. शबाना मखमली कपड़े से सजी हुई एक थाली लाकर श्वेता के सामने रख दी. उस थाली में चांदी का तवक चढ़े हुए पान के बीड़े रखे थे. आज का यह पान काफी कीमती था. शबाना श्वेता के बाएं पार्श्व में आकर बैठ गयी और उसके कान में फुसफुसाती हुई कुछ बताने लगी. लग रहा था इन क्रिया-कलापों में वह पूर्णतः पारंगत हो. अन्य लड़कियां भी उन तीनों के पीछे जाकर कतार से बैठ चुकी थी. अब सारे रसिकों की नजरें श्वेता पर ही टिकी हुई थी. सभी बड़ी बेचैनी से पहलू बदलते हुए सोच रहे थे - "पता नहीं वह भाग्यशाली कौन होगा जिसे श्वेता का घूंघट उलटने का सौभाग्य प्राप्त होगा.?"
"राजा साहब " गुलाब बाई की आवाज सुनकर सभी चौकन्ने हो गये. -"आज की महफ़िल के सरताज आप ही हैं, आगे बढ़िए हुजूर और श्वेता का घूंघट उठाइए." राजा साहब की तो बांछे खिल गयी. वे उत्फुल्लित भाव से उठे और श्वेता के सामने आकर खड़े हो गये. भय से श्वेता का सर्वांग कांपने लगा और संकोच से वह अपने आप में सिमट गई. दिल में एक दर्द उठा और मुंह से सर्द आह निकल पड़ा. लेकिन ऑंसू न बहे. वह दिल ही दिल में सोचने लगी - "अफसोस करने से ही अब क्या होने वाला है. उसे जो बनना था बन गयी. तकदीर का लिखा कोई मिटा तो नहीं सकता न.!"
उसके सामने खड़े कुंवर वीरेंद्र सिंह जी ने एक ही झटके में उसका घूंघट उलट दिया. लज्जा के मारे उसकी आंखें मूंद गयी. और राजा जी के मुंह से निकल पड़ा -
"सुदर, अति सुन्दर ! गुलाब बाई चॉंद का टुकड़ा है तुम्हारी बेटी."
"सब हुजूर के करम हैं." गुलाब बाई खुशी से झूम उठी. हॉल में बैठे सारे के सारे लोग चकित भाव से अपलक श्वेता को निहारते रह गये. श्वेता की खुबसूरती को देखकर किसी के मुंह से आह निकला, तो किसी के मुंह से वाह निकला. कोई माशाअल्लाह कह उठा, तो कोई सुभानल्लाह. मगर धनंजय के मुंह से कुछ भी न निकला. वह मुग्ध भाव से श्वेता के अनुपम सौंदर्य का रसपान करने लगा.
राजा साहब ने अपनी अंगुली से हीरा जड़ी हुई अंगूठी निकालकर श्वेता के माथे के चारों ओर घुमाने के बाद उसके सामने रखी हुई थाली में रख दिया. उस अंगूठी की कीमत एक लाख से कम न रही होगी. गुलाब बाई की ऑंखें चमक उठी. -"बेटी राजा जी को पान दो." अपनी मां की आवाज सुनकर श्वेता ऐसे चौंक पड़ी जैसे सोते से जागी हो. उसने पान का एक बीड़ा उठाकर राजा जी की ओर बढ़ा दिया. फिर वह तवायफों बाली शोखी अख्तियार करती हुई कुछ इस अदा से राजा साहब को कोर्निश की कि वे घायल होकर तड़पने लगे. गुलाब बाई और शबाना उसके इस अंदाज को देखकर चकित रह गयी. उन दोनों को कतई यह उम्मीद न थी कि श्वेता इतनी जल्दी कोठों के तहजीब से वाकिफ हो जाएगी. राजा साहब के बाद नवाब साहब आये और उन्होंने श्वेता की खुबसूरती पर अपने गले का चैन न्यौछावर कर दिया. उनके बाद बारी थी सेठ जगत नारायण वर्णवाल की. सेठ जी ने बहुत सोच-विचार करने के पश्चात सौ सौ की एक गड्डी निकाल कर थाली में रख दिया. किसी को भी उम्मीद न थी कि सेठ जी आज के दिन ऐसी दरियादिली दिखाएंगे. जब अवस्थी जी मुंह दिखाई की रश्म पूरी करने के लिए अपनी जगह से उठे तब उसका दिल तेजी से धड़क उठा. वह मन ही मन अवस्थी जी को अपना गुरु मान चुकी थी. क्या आज वह अपने गुरु जी के साथ भी तवायफों वाली अदा के साथ ही पेश आएगी.? तभी अचानक वह चौंक पड़ी - अवस्थी जी ने उपहार के रूप में सुनहरे रंग का एक कलम थाली में रख दी थी और स्नेहसिक्त ऑंखों से उसकी ओर देखते हुए अमृत सुधा बरसाने लगे थे. उसने लपक कर अपने गुरु जी द्वारा दिए गए अनुपम उपहार को उठा लिया और अपने अंत: वस्त्र में छुपा लिया. फिर जैसे ही वह पान का बीड़ा अवस्थी जी की बढ़ाई कि उसका हाथ कांप गया और पान का बीड़ा नीचे गिर पड़ा. पान उठाने के बहाने वह अवस्थी जी के दोनों चरण स्पर्श करके अपनी ऑंखों से लगा ली. उसके इस कृत्य को देखकर सभी चमत्कृत रह गये. अवस्थी जी की हालत ऐसी हो गयी जैसे उन्हें कोई बहुत ही मूल्यवान वस्तु मिल गयी हो. वे हर्ष से चिल्ला पड़े -"मिल गयी, मैं वर्षों से जिसकी तलाश में लखनऊ की इस बदनाम बस्ती की खाक छानता रहा वह बहुमूल्य नगीना मुझे आज मिल गयी. तुम ही हो मेरी पश्यन्ती." अवस्थी जी ने क्या कहा और क्या नहीं, यह किसी की भी समझ में न आया, मगर श्वेता समझ गयी. अवस्थी जी ने उसकी तुलना संगीत के उस सूक्ष्म रूप (नाद) से किया था, जो मूलाधार से होकर हृदय में जाता है और इसे संगीत विधा में पश्यन्ती कहा जाता है. वाणी तथा सरस्वती के चार चक्रों में से एक चक्र पश्यन्ती भी है. लेकिन श्वेता की समझ में यह नहीं आया कि आखिर गुरुजी ने उसे पश्यन्ती कैसे समझ लिया. उधर अवस्थी जी विक्षिप्त की तरह "मिल गयी....मिल गयी, मुझे मेरी पश्यन्ती मिल गयी." का राग अलापते हुए नीचे की ओर भाग खड़े हुए. कुंवर वीरेंद्र सिंह जी भी उनकी इस हरकत को देखकर हैरान थे.
"मैं जानता था, यह आदमी पागल है." नफ़रत से अपना मुंह बिचकाते हुए देहलवी बोल पड़ा और श्वेता की थाली में दो हजार रुपए रख दिया. श्वेता की इच्छा हुई कि उसके गुरुजी का अपमान करने वाले इस आदमी के मुंह पर उसके रुपए दे मारे, मगर वह ऐसा कर न सकी. हां उसके बदले राजाजी देहलवी को झिड़कते हुए बोल पड़े -"खबरदार मुख्तार, अवस्थी जी के बारे यदि दुबारा ऐसे अल्फाज़ मुंह से निकाले तो मैं तुम्हारी ज़ुबान खींच लूंगा. तुम जानते क्या हो अवस्थी जी के बारे में, वे हिन्दुस्तान के माने हुए कहानीकार हैं." राजा जी के तेवर देखकर जहां गुलाब बाई सहम गयी वहीं नवाब साहब को भी अपने शागिर्द पर गुस्सा आ गया. वे राजाजी को शान्त करते हुए बोले -"जाने दीजिए राजा जी देहलवी अभी नादान है."
"नवाब साहब मैं भी आपकी उतनी ही इज्जत करता हूं, जितनी कि आप मेरी करते हैं, मगर इस नाखलुस इंसान को समझा दीजिए, आइंदा यहां इस तरह की गिरी हुई हरकतें न किया करे."
"समझा दूंगा हुजूर समझा दूंगा, आप बेफिक्र रहें." नवाब साहब ने बड़ी चतुराई से राजाजी के गुस्से को शांत कर दिया. उधर रंजन नाम के उस शोहदे ने आज कमाल ही कर दिया. उसने श्वेता की थाली में दस हजार की गड्डी डालकर शबाना के साथ साथ गुलाब बाई को भी हैरत में डाल दिया. एकाएक रंजन की नजर धनंजय पर पड़ गयी, जो अपनी सुध-बुध खोए हुए एकटक श्वेता को निहारे जा रहा था. वह उसके सामने आकर उसे झकझोरते हुए बोल पड़ा -"अरे धनंजय, तुम कहां खो गये हो यार, क्या मुंह दिखाई की रश्म पूरी न करोगे?"
"ऑं.....हॉं....हॉं, पूरी करूंगा, जरुर पूरी करूंगा." वह उठकर लड़खड़ाते हुए कदमों से श्वेता के समक्ष आया और अपनी जेब से हीरा जड़ित एक चन्द्रहार निकाल कर थाली में रखते हुए बोला -"सौंदर्य की इस देवी को अदने से इस सेवक की ओर से यह छोटा सा उपहार स्वीकार हो." उसकी काव्यमय रसीली बातें सुनकर श्वेता का अंग-प्रत्यंग झनझना उठा. मगर वह भी कुछ कम न थी, मोहक अदा के साथ मुस्कुराती हुई बोली -
"मेरे रूप के कद्रदान का यह बड़ा सा नजाराना सर-आंखों पर. हुजूर तशरीफ़ रखिए, अभी तो जनाब ने सिर्फ मेरी सूरत ही देखी है, अब शिरत भी देख लीजिए ."
"हां....हां वह भी देखूंगा, जरूर देखूंगा." धनंजय खड़खड़ाते हुए अपनी जगह पर जाकर बैठ गया.
मुंह दिखाई की रश्म पूरी हो चुकी थी. इस मुंह दिखाई की रश्म में ही श्वेता को पांच लाख से ऊपर के जेवर और नगद रुपए उपहार में मिले थे. गुलाब बाई निहाल हो गई. वह रूपए और गहने समेटती हुई शबाना से बोली -
"शबाना, बेटी तब तक तुम दोनों हमारे मेहमानों का मनोरंजन करो, मैं भी जल्द ही आ रही हूं."
"जो हुक्म अम्मा."
गुलाब बाई जेवर और रुपए समेट कर ऊपर चली गयी. शबाना राजा साहब की ओर देखती हुई बोली -
"कहिए हुजूर आप मेहरबानों की खिदमत में क्या पेश करूं?"
"पहले तुम एक ग़ज़ल सुनाओ फिर श्वेता सुनाएगी, उसके बाद तुमलोग अपने अपने नृत्य कौशल दिखाना."
"जैसी हुजूर की मर्जी, तो लीजिए पेश है मेरे एक पसंदीदा शायर की ग़ज़ल.
"इरशाद...." राजा जी के साथ साथ नवाब साहब के मुंह से भी निकल पड़ा. खां साहब के सितार से एक बेहतरीन धुन निकली और इस धुन पर शबाना अपनी सुरीली आवाज में गाने लगी -
"सो न जाना कि मेरी बात अभी बाकी है.....
सो न जाना कि मेरी बात अभी बाकी है
असल बातों की शुरुआत शौगत अभी बाकी है.
सो न जाना कि..."
"वाह....वाह......वाह." शबाना की फ़नकारी पर वाह वाही के साथ साथ नोट भी बरसने लगे. शबाना के बाद श्वेता भी सुनाने लगी -
"वो शिकायतें कहीं खो गयी वो वफ़ा का रंग भी ढ़ल गया,
थे वे ख्वाब कितने हंसी जिन्हें तेरी बेवफ़ाई निगल गया......"
"अरे वाह श्वेता.... वाह.... वाह तुमने तो कमाल कर दिया." सिर्फ राजाजी ही नहीं बल्कि नवाब साहब और देहलवी भी श्वेता की फ़नकारी का मुरीद बन गया. धनंजय के दिल की हालत से श्वेता अनजान न थी. वह उसकी ओर देखती हुई लगातार मुस्कुराए जा रही थी और धनंजय के दिल में कुछ चुभता हुआ सा महसूस हो रहा था. ग़ज़लों के बाद उन दोनों ने नृत्य आरंभ किया. दोनों की प्रस्तुति एक से बढ़कर एक थी, मगर इसमें कोई शक न था कि श्वेता श्रेष्ठ गायिका के साथ साथ सर्वश्रेष्ठ नर्तकी भी थी. इसी बीच गुलाब बाई भी वहां आ गयी और रूपए समेटने लगी. उन दोनों के बाद अन्य लड़कियों ने भी अपने अपने फ़न दिखाए. तब-तक रात्रि के एक बज चुके थे और गली सूनसान होने लगी थी. गुलाब बाई ने भी मुजरा समाप्त होने की घोषणा कर दी. सभी रसिक एकाएकी वहां से रुखसत हुए. गुलाब बाई साजिंदों को उनका मेहनताना देने लगी और श्वेता तथा शबाना के साथ साथ सभी नर्तकियां अपने अपने घुंघरु खोलने लगी. साजिंदे भी मेहनताना लेकर चले गये. तभी रुपए गिनती हुई गुलाब बाई की नजर अचानक उस ओर चली गयी जिधर मसनद के सहारे अधलेटा सा धनंजय एकटक खा जाने वाली नजरों से श्वेता को घूरे जा रहा था. उसका इस तरह से श्वेता को घूरना गुलाब बाई को अच्छा न लगा. वह तनिक तल्ख़ स्वर में बोल पड़ी -"धनंजय बाबू, मुजरा का प्रोग्राम खत्म हो चुका है."
"आ.... हां.... हां, प्रोग्राम तो खत्म हो गया चुका है." वह लड़खड़ाती जुबान में बोला.
"रात काफी बीत चुकी है, अब आप अपने घर जाइए. आपके माता-पिता आपका इंतजार कर रहे होंगे."
"घर....!" धनंजय के ओठों पर फीकी मुस्कान उभर आई और वह अपनी जगह से उठकर गुलाब बाई के सामने आकर खड़ा हो गया -"कौन सा घर, कैसा घर और कैसे माता-पिता? हुंह.... कैसी होती है मां की ममता और कैसा होता है पिता का प्यार, यह सब मैंने आज तक जाना ही नहीं. बाप को दौलत कमाने से फुर्सत ही नहीं और मां बेशुमार दौलत पाकर अंधी हो चुकी है. थोड़ा सा प्यार और दिल को शकुन मिले इसलिए इस कोठे पर आता हूं. अच्छा शुभ रात्रि." जाते-जाते उसने श्वेता पर ऐसा दृष्टिपात किया कि श्वेता का रोम रोम सिहर गया. श्वेता समझ नहीं पाई कि यह युवक पागल है, दीवाना है या कि सचमुच अपने मां-बाप के प्यार से महरूम.!
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क्रमशः.........!
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