धारावाहिक उपन्यास 


- रामबाबू नीरव 

श्वेता अपने कमरे में आकर औंधे मुंह बिछावन पर गिर पड़ी. उसके पीछे पीछे शबाना भी आ गयी और स्नेह से उसके बाल सहलाती हुई बोली -"तुम्हें क्या हो गया  श्वेता, तुम वहां से भाग क्यों आयी?"

"शबाना.... यदि कोई शोहदा मुझे छेड़ेगा तो मैं अपनी जान दे दूंगी." वह उठकर बैठ गयी.

"तू तो बेकार ही दु:खी हो रही है. आज के दिन किसी साले हरामखोर की ऐसी हिम्मत नहीं हो सकती कि वह तुम्हें छेड़े. अम्मा ने आज सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करवाया हुआ है. चल उठ." शबाना उसकी बांह पकड़कर जबरदस्ती कारीडोर पर ले आयी और वे दोनों पुनः पाए की ओट में छुपकर नीचे का नजारा देखने लगी. शबाना  के दीदार के लिए आए हुए रसिकों में बेचैनी का आलम था. अचानक कुंवर वीरेंद्र सिंह नवाब साहब की ओर देखते हुए आग्रह पूर्ण स्वर में बोल पड़े -"नवाब साहब, एक इल्तिज़ा है आप से."

"राजाजी, इस नाचीज़ को आप शर्मशार क्यों कर रहे हैं ? आप तो राजा हैं, सीधा हुक्म कीजिए. बंदा ने अपना सर कलम करके आपके कदमों में न डाल दिया, तो मेरा नाम बदल दीजिएगा." नवाब साहब एकदम से कुंवर जी के कदमों में निसार हो गये. 

"अरे नहीं नहीं....!" राजा साहब हंस पड़े -"मैं इतना जालिम नहीं हूं कि बिना वजह किसी का सर कलम करवा दूं. असल में मैं कहना ये चाह रहा था कि जब तक प्रोग्राम के शुरू होने में देर है, तब तक क्यों न शेरों शायरी का एक दौर हो जाए." 

"माशाअल्लाह, हुजूर ने मेरे  दिल की बात कह दी." नवाब साहब के बदले मुख्तार अहमद देहलवी उछलने लगा -"तो उस्ताद जी, हो जाए....!" देहलवी नवाब साहब को उकसाते हुए बोला. उधर पाए की ओट में छुपी हुई श्वेता भी रोमांचित हो गयी और उसके अधरों  पर मोहक मुस्कान थिरकने लगी. कारण यह था कि शेरों-शायरी में उसकी भी खासी दिलचस्पी थी. हालांकि  वह शायरा नहीं थी, मगर दिल्ली के मुशायरों में अक्सर जाया करती थी. उसकी उत्सुकता बढ़ गयी और वह गौर से नवाब साहब की ओर देखने लगी. 

"जब आप कद्रदानों की ऐसी ही ख्वाहिश है, तो लीजिए बंदा हाजिर है." भला ऐसे खुशगवार मौके को नवाब साहब हाथ से कैसे निकल जाने देते. वे किसी मजे हुए उस्ताद शायर की तरह बैठ गये और कुंवर वीरेंद्र सिंह जी की ओर देखते हुए अदब से बोले:-"राजाजी, आज की इस गुलेबहार महफ़िल में मैं अपना पहला शेर आपको नज़र करता हूं. तो लीजिए मुलाहिजा फरमाएं."

"इरशाद....नवाब साहब." कुंवर जी ने हंसते हुए उनकी हौसला अफजाई की.

"अर्ज़ किया है के दोस्तों से हमने वो सदमे उठाए जाने पर....!"

"वाह....वाह क्या बात है उस्ताद जी." देहलवी नवाब साहब की हौसला अफजाई में कुछ ज्यादा ही उछलने लगा. राजा जी के मुंह से भी वाह.... निकल गया. श्वेता की भी इच्छा हुई वाह..... वाह.... करने की, मगर उसने खुद को सख्ती से रोक लिया. 

"शुक्रिया.... शुक्रिया मेरे अज़ीज़." चारों ओर से दाद पाकर नवाब साहब फूलकर कुप्पा हो गये. -"दोस्तों से हमने वो सदमे उठाए जाने पर, दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा. " 

"वाह....वाह....!" की करतल ध्वनि से पूरा हॉल गूंज उठा. नवाब साहब को उम्मीद न थी कि उनका यह शेर ऐसा गुल खिलाएगा. सबों को झुक-झुक कर सलाम करते हुए वे अपनी खुशी का इजहार करने लगे -"शुक्रिया जनाब, आदाब. राजा जी, यदि इजाजत हो तो एक और शेर अर्ज़ करूं?"

"इरशाद.....!" राजा जी के साथ साथ अन्य शेरों-शायरी के शौकीन लोग चिल्ला पड़े. 

"आदमी का साथ देता है तहिदस्ती में कौन...!"

"क्या.... क्या कहा आपने.?" युवाओं की टोली में से उचक कर नवाब साहब की ओर देखते हुए अचानक धनंजय बोल पड़ा. उसका इस तरह से बीच में टपकना नवाब साहब तथा देहलवी के साथ साथ अन्य बुजुर्गों पर नागवार गुजरा. सभी तीखी नजरों से उसे घूरने लगे. मगर श्वेता बेतरह चौंक पड़ी. धनंजय  को संजिदा देखकर उसे लगा कि यह युवक नवाब साहब की शान में शेखी नहीं बघार रहा है. 

"लौंडा एक भी लफ्ज़ का मतलब नहीं समझता होगा, मगर इसकी गुस्ताखी तो देखो.?" नवाब साहब जलभुन कर ओठों ही ओठों में बुदबुदाने लगे. फिर वे थोड़ा खीझे हुए अंदाज में धनंजय की ओर देखते हुए बोल पड़े-"बर्खुरदार, हमने कहा - आदमी का साथ देता है तहिदस्ती में कौन.... तहिदस्ती का मतलब मुफलिसी....अब मुफलिसी का मतलब हमसे न पूछना....!" नवाब ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दी. उनकी नाराजगी को देखकर धनंजय मुस्कुराते हुए बोला - "नवाब साहब, आप तो नाराज़ हो गये, चलिए शेर पूरी कीजिए."

"आदमी का साथ देता है तहिदस्ती में कौन, कर गया साहिल किनारा खुश्क जब दरिया हुआ."

"वाह....वाह..... वाह ! नवाब साहब आपका जवाब नहीं." कुंवर वीरेंद्र सिंह झूम उठे. देहलवी भी उन्हें दाद देने में पीछे न रहा. श्वेता भी वाह कर उठी, मगर उसकी आवाज मुंह में ही दब कर रह गयी. तभी धनंजय की धीर-गंभीर आवाज सुनकर राजा साहब बुरी तरह से चौंक पड़े. वह नवाब साहब को चुनौती देते हुए बोल रहा था -"नवाब साहब यदि इजाजत हो तो यह ख़ाकसार भी कुछ अर्ज़ करे." 

धनंजय की बात सुनकर राजा जी और अन्य लोग तो हैरान थे ही उधर बालकनी में खड़ी श्वेता और शबाना भी हैरान रह गयी. इस कोठे पर शेरों-शायरी का प्रोग्राम हमेशा हुआ करता था, मगर शबाना ने आजतक धनंजय को शेर पढ़ते हुए नहीं सुना. आज यह नवाब साहब जैसे पहुंचे हुए शायर को चुनौती दे रहा है, यह हैरत की बात तो है ही. कहीं यह खिलंदड़ सचमुच में बंडलवाजी तो नहीं मार रहा है. मगर श्वेता की उत्सुकता काफी बढ़ गयी. वह देखना चाहती थी कि यह युवक आखिर कैसा धमाल मचाना चाहता है.?

"नहीं हर्गिज नहीं....!" नवाब साहब की जगह देहलवी गला फाड़कर चिल्ला पड़ा -"यह हम जैसे अदीबों की महफ़िल है, तुम जैसे टुच्चों की नहीं." देहलवी की ऐसी हिमाकत देखकर नौजवानों का खून खौलने लगा. क्रोध से कांपते हुए वह अपनी जगह से उठा और देहलवी के सामने आकर किसी शक्तिशाली बम की तरह फट पड़ा -"तुमने टुच्चा किसे कहा वे.... क्या जानता नहीं, हमलोग कौन हैं, तेरे जैसे फटीचर लोग हमारे आगे पीछे घूमा करते हैं."

"ऐ देखो जुबान संभाल कर बातें करो." देहलवी भी  तैश में आ गया. उन दोनों के तेवर देखकर गुलाब बाई बुरी तरह से घबरा गयी. तब-तक रंजन देहलवी के गिरेबान में हाथ डाल चुका था. वक्त की नजाकत देखते हुए कुंवर जी को हस्तक्षेप करना पड़ गया. उन्होंने रंजन को पकड़ लिया और देहलवी को झिड़कते हुए बोल पड़े -"देखो मुख्तार यह कोठा किसी की जागीर नहीं है. इस कोठे पर कुछ बोलने का जितना हक नवाब साहब और तुम्हें है, उतना ही हक मुझे और धनंजय को भी है. तुम्हें यह गुमान कैसे हो गया कि यहां सिर्फ नवाब साहब और तुम ही अदीब हो, बाकी सबके सब जाहिल हैं.?" फिर वे धनंजय की ओर‌ देखते हुए बोले -"धनंजय तुम्हें जो कुछ भी सुनाना हो बेहिचक और बेखौफ होकर सुनाओ."

"जो हुक्म राजा जी " धनंजय राजा साहब का शह पाकर फूला न समाया. नवाब साहब और देहलवी का चेहरा देखने लायक था. उधर शबाना और श्वेता भी खुशी से झूम उठी. 

"शुक्रिया राजाजी." खास शायराना अंदाज में चहकते हुए धनंजय ने राजा जी को सलाम किया -"मेरा पहला शेर आपको नज़र है. अर्ज़ किया है के...." सभी दंग रह गये धनंजय के इस अंदाज-ए-बयां पर. शबाना तो बेहोश होते होते बची और श्वेता का दिल बांसों उछलने लगा. 

"इरशाद.....!" राजा जी के मुंह से निकला.

"स्याहबख्ती में कब कोई किसी का साथ देता है.....!"

"अरे वाह रे धनंजय....!" खुशी के मारे राजाजी उछल पड़े. उन्हें उम्मीद न थी कि धनंजय इस तरह से किसी मजे हुए शायर के रूप में अपना जलवा बिखेरते हुए नवाब साहब को मात देगा. धनंजय के अंदाज-ए-बयां को देखकर नवाब साहब और मुख्तार अहमद देहलवी का सारा गुमान बर्फ़ की तरह ठंडा पर गया.  और वे दोनों अपनी अपनी बगलें झांकने लगे.  धनंजय पूरे जोशो-खरोश के साथ शेर मुक्कमल करने लगा -

"स्याहबख्ती में कोई कब किसी का साथ देता है,

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इंसान से."

",वाह.... वाह..... वाह....!" धनंजय के इस शेर पर वाह ....वाही की बौछार होने लगी. रंजन तो इतना खुश हुआ कि वह उठकर उसकी बलाएं लेने लगा. नवाब साहब और देहलवी जल-भुन कर कबाब बन गये। उधर शबाना एकबार फिर बेहोश होते-होते बची और श्वेता के होंठों के साथ साथ चंचल आंखें भी मुस्कुराने लगी. 

"राजा जी, अब मेरी बारी है." धनंजय को निगल जाने वाली नज़रों से घूरते हुए देहलवी चिल्ला पड़ा.

"अरे तो तुम्हें रोका किसने है, आ जाओ मैदान में.!" राजा जी ने हंसते हुए कहा. देहलवी सचमुच अपने आस्तीन चढ़ाते हुए मैदान में कूद पड़ा.

"बागवां ने आग दी जब आशियाने को मेरे....!"

"वाह.... वाह.... बहुत अच्छे मेरे शागिर्द, पढ़ते जाओ."

"शुक्रिया उस्ताद जी, तो अर्ज़ किया है के... बागवां ने आग दी जब आशियाने को मेरे, जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे." देहलवी अपने गुमान में ऐंठते हुए इस तरह धनंजय की ओर देखने लगा गोया कहना चाह रहा हो -"पट्ठा अगर है हिम्मत तो मेरे इस शेर का जवाब दो."

"गुस्ताख़ी माफ़ हो देहलवी साहब, आपकी शान में शेखी बघारुं इतनी हिम्मत इस नाचीज़ में कहां, मगर क्या करूं यह नादां दिल है ऐसा कि मानता ही नहीं, इसलिए अर्ज़ किया है कि 

"दुनिया वालों ने‌ फकत उसे हवा दी‌ थी साहिल, लोग तो घर के ही थे आग लगाने वाले."

"वाह धनंजय." राजा जी खुशी से लवरेज होते हुए बोले -"आज की यह महफ़िल तुम्हारे नाम."

"मेहरबानी आपकी राजा जी." बड़े अदब के साथ धनंजय ने राजा जी का अभिवादन किया.

 "मगर धनंजय ये साहिल कौन है.?" राजा जी ने पूछा.

"इसी ख़ाकसार का तखल्लुस यानी सरनेम है हुजूर "

"ओहो....तुम तो छुपे रुस्तम निकले." राजा जी ठहाका लगा कर हंसने लगे. 

"राजा जी, ये शेरो-शायरी का दौड़ कब खत्म होगा?" अचानक अवस्थी जी ने ऊबते हुए राजा जी को टोक दिया.

"गुलाब बाई, अब कितनी देर लगेगी." कुंवर वीरेंद्र सिंह भी अंदर ही अंदर ऊब चुके थे, उनकी नजरें गुलाब बाई पर टिक गयी.

"हुजूर के हुक्म का ही इंतजार था." फिर वह कारीडोर की ओर देखती हुई चिल्लाईं -"शबाना, श्वेता को लेकर जल्दी से नीचे आ जाओ."

"अभी लेकर आयी अम्मा." शबाना ने भी ऊंची आवाज में ही उत्तर दिया. महफ़िल में एकदम से खामोशी छा गयी और सभी रसिकों की नजरें कारीडोर पर जाकर स्थिर हो गयी.

           ∆∆∆∆∆

क्रमशः..........!

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