भक्तिकाल के मुस्लिम कवि
(प्रथम किश्त)
-रामबाबू नीरव
"मानुस हौं तो वही रसखानि, बसौं मिली गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो पशु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मॅंझारन ।।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारण ।
जो खग हौं तौं बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन।।"
उपरोक्त सवैया कृष्ण भक्त रसखान की है. जो मुस्लिम होते हुए भी अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे परम भक्त बने जो दुबारा जन्म लेने की बात (जबकि इस्लाम में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है.) करते हुए कहते हैं - "यदि मुझे अगले जन्म में मनुष्य योनि मिले तो मैं वही मनुष्य बनूं, जिसे गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले. जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण गैया चराया करते थे. यदि मेरा जन्म पशु योनि में हो, तब मेरा जन्म ब्रज या गोकुल गाँव में ही हो ताकि मुझे नित्य नंद के गायों के बीच विचरन करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके. यदि मुझे पत्थर योनि मिले तो मैं उसी पत्थर का एक भाग बनूँ, जिसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र का घमंड चूर करने के लिए अपने हाथ पर छाते की भाॅंति उठा लिया था. (गोवर्धन पर्वत), यदि मेरा जन्म पक्षी योनि में हो तो भी मैं ब्रज में ही जन्म लूं ताकि मैं यमुना तट पर खड़े हुए कदम्ब वृक्ष की डालियों में निवास कर सकूँ."
हिन्दी साहित्य के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम, हरिभक्त कवियों के लिए कहा था -"इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए." उन कवियों में से श्रीकृष्ण भक्त रसखान का नाम सर्वोपरि है. श्रीकृष्ण के भक्त बोधा और आलम भी रसखान की श्रेणी में ही आते हैं. रसखान भी रहीम दास, सूरदास तथा तुलसी दास की तरह ही मुगल बादशाह अकबर के काल में ही हुए थे. परंतु उनके जन्म को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं. अधिकांश विद्वानों का मानना है कि रसखान का जन्म 1548 ई० में दिल्ली के निकट स्थित पिहानी नामक ग्राम में हुआ था. ़ वहीं कुछ विद्वानों के अनुसार उनका जन्म 1558 ई० में उत्तर प्रदेश के जिला हरदोई के निकट स्थित एक गाँव में हुआ था. माना जाता है कि उनकी मृत्यु 1628 ई० में वृन्दावन में हुई थी. उनकी मृत्यु तिथि पर सारे विद्वान एक मत हैं. वहीं एक तीसरे मत के अनुसार उनका जन्म हिन्दुस्तान में नहीं बल्कि अफगानिस्तान के शहर काबुल के एक जागीरदार के घर में 1578 ई० में हुआ था और बचपन में उनका नाम सैय्यद इब्राहिम था. रसखान यानि रस का खान उनका सरनेम था. लेकिन डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार रसखान का जन्म 1548 ई० में ही दिल्ली के निकट स्थित पिहानी गाँव के एक सम्पन्न पठान परिवार में हुआ था और उनके बचपन का नाम सैयद इब्राहिम खान था. डा० द्विवेदी के अनुसार वे दिल्ली से ही बृन्दावन आये थे. सैयद इब्राहिम के माता पिता के नाम भी अज्ञात हैं. उनके बारे में सिर्फ इतनी ही जानकारी उपलब्ध है कि उनके पिता एक जागीरदार थे. उनके परिजन मुस्लिम होते हुए भी हिन्दुओं के देवी देवताओं के उपासक थे. सैयद इब्राहिम खान को भी भगवत भक्ति अपने ही परिवार से विरासत में मिली थी. जो आगे चलकर उनकी कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गयी. रसखान ने बृंदावन में रहकर निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की - प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, इनकी ये दो पुस्तकें अधिक लोकप्रिय हैं. इनदोनों के अतिरिक्त उन्होंने दान लीला, अस्तेयम तथा अन्य पदों की रचना की थी. "प्रेम वाटिका" में उन्होंने राधा को जहाँ प्रेम रूपी उद्यान की मालिन तथा श्रीकृष्ण को माली मानकर उनके प्रेम के गूढ़ तत्वों का सूक्ष्म निरूपण करते हुए प्रेम की पहचान, प्रेम के प्रभाव, प्रेम की प्रीति तथा प्रेम की पराकाष्ठा को परिभाषित किया है. वहीं उन्होंने अपनी दूसरी कृति "सुजान रसखान" में गोपियों तथा राधा को अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित दिखाया है.
*सैयद इब्राहिम से रसखान बनने की कथा*
सैयद इब्राहिम खान की कृष्णभक्त "रसखान" बनने की अनेकों कथाएँ हैं. इनमें से किस कथा को सत्य माना जाए और किसे झूठ, इसका आकलन करना बहुत ही मुश्किल है. इसलिए संक्षिप्त में उन सभी कथाओं का रसास्वादन अपने पाठकों को करवा देना मैं उचित समझता हूँ, ताकि पाठक उनमें से सही कथा का चुनाव, स्वयं कर सकें.
"भक्त कल्पद्रुम" में वर्णित एक कथा के अनुसार सैयद इब्राहिम खान एक बार अपने सुफी (मुस्लिम संत) गुरु के साथ बृन्दावन, श्रीकृष्ण की रासलीला स्थली पर गये. वहाँ पहुँचने पर अचानक वे बेहोश हो गये. उनके मुस्लिम अध्यात्मिक गुरु समझ गये कि इब्राहिम की प्रीति भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ गयी है, वे अपने शिष्य को श्रीकृष्ण की लीलास्थली में छोडकर वापस चले गए. बृन्दावन में ही इब्राहिम की भेंट बल्लभ सम्प्रदाय के संचालक गोस्वामी विट्ठलनाथ से हुई, जो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे. गोस्वामी विट्ठलनाथ ने इब्राहिम को वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित कर वल्लभ परिवार का सदस्य बना लिया. उसी समय से सैयद इब्राहिम श्रीकृष्ण की भक्ति में काव्य लिखने लगने. उनका झुकाव अपने आराध्य श्रीकृष्ण के निर्गुण और सगुण दोनों स्वरूप की ओर था. परंतु उन्होंने सगुण स्वरूप को ही प्राथमिकता दी. उनके भक्ति काव्य के माधुर्य से विट्ठलनाथ इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनका नया नाम "रसखान" रख दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ होता होता है - *रस का खान* इस कथा के अनुसार वे तब से मृत्यु- पर्यन्त तक बृन्दावन में ही रहकर अपने प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति करते हुए काव्य का सृजन करते रहे.
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क्रमशः.........!
(अगले अंक में पढें रसखान की अन्य कथाएँ तथा उनके सवैये.)
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