भक्तिकाल के मुस्लिम कवि

 (प्रथम किश्त) 

  -रामबाबू नीरव

ब्रजभाषा के सर्वमान्य कवियों के रूप में अपने ग्रंथ "काव्य निर्णय" में भिखारीदास ने जिन कवियों का उल्लेख किया है, उनमें रहीम खान-ए- खाना, रसखान तथा रसलीन से पहले आलम को स्थान दिया है. "हिन्दी साहित्य का इतिहास (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) तथा "कविता कौमुदी"  (मिश्र बंधु) जैसे ग्रंथों से ज्ञात होता है कि आलम नाम से दो कवि हो चुके हैं. एक आलम मुगल बादशाह अकबर यानि रहीम, रसखान, सूर और तुलसी के समकालीन  सूफी कवि थे, जिन्होंने "माधवानल कामकंदला" की रचना की और दूसरे आलम बादशाह औरंगजेब के दूसरे पुत्र मुआज्जम शाह के समय में हुए तथा वे बादशाह मुआज्जम के आश्रित थे. परंतु अधिकांश विद्वानों ने "माधवानल कामकंदला" को मुआज्जम के समकालीन यानि द्वितीय आलम की रचना मानते हैं. इससे सिद्ध होता है कि आलम नाम के दो नहीं बल्कि एक ही कवि हुए हैं. वैसे भी कवि आलम की पारिवारिक पृष्ठ भूमि की विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है. हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार उनका रचना काल सन् 1640 ई० से लेकर 1660 ई० के बीच का है. उनका जन्म एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनके जन्म स्थान के बारे में भी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है, परंतु चूंकि ये औरंगजेब के द्वितीय पुत्र बादशाह मुआज्जम के आश्रित थे, इसलिए इनका जन्म स्थान दिल्ली या दिल्ली के आसपास ही कहीं होना चाहिए. आचार्य शुक्ल के अनुसार उनके कवि बनने से पूर्व का उनका नाम लालमणि त्रिपाठी था. अन्य विद्वानों के अनुसार उनकी जन्म तिथि सन् 1623 ई० माना गया है. परंतु उनकी मृत्यु कब हुई थी, इसकी जानकारी यथेष्ट रूप से कहीं भी उपलब्ध नहीं है.

*आलम की प्रेमिका*

कहा जाता है कि आलम पहले हिन्दू (ब्राह्मण) थे, उनका नाम लालमणि त्रिपाठी था. वे यदाकदा छिटपुट कवित्त लिख लिया करते थे. यानि वे पूर्णतया कवि नहीं थे. उनके पड़ोस में ही एक रंगरेज (कपड़ा रंगने वाली एक मुस्लिम सम्प्रदाय की जाति) रहता था. उस रंगरेज की एक बेटी थी. जिसका नाम था शेख. वह अति सुन्दर तथा वाचाल थी. बातों में वह किसी को जीतने नहीं देती थी. लोग उसे शेख रंगरेजिन कहकर पुकारा करते थे. वह अपने पिता के पुश्तैनी धंधा में हाथ बंटाया करती थी. यानि वह भी कपड़े रंगा करती थी. एकबार लालमणि त्रिपाठी ने अपनी पगड़ी उसे रंगने के लिये दिया. उसकी पगड़ी की एक खूंट पर छोटी सी पर्ची बंधी थी. शेख रंगरेजिन उस पर्ची को खोलकर पढ़ने लगी. उसपर लिखा था -

"कनक छरी सी कामिनी, काहेको कटि छीन?" यह लालमणि त्रिपाठी का अधूरा कवित्त था, जिसे शेख रंगरेजिन ने इस पंक्ति से पूरा कर दिया -

"कटि कंचन को काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन।" अब पूरा कवित्त

इस प्रकार हो गया -

"कनक छरी सी कामिनी  

 काहे को कटि छीन, 

 कटि कंचन को काटि विधि, कुचक मध्य धरि दीन।"

अर्थात : कामिनी सोने की छड़ी की तरह है, परंतु उसकी कमर इतनी पतली क्यों है? (आलम) वह इसलिए है क्योंकि विधाता ने उसके कमर के सोने को काटकर स्तनों में भर दिया है." (शेख रंगरेजिन) यानि शेख रंगरेजिन भी कविताएँ लिखा करती थी. जब त्रिपाठी जी अपनी पगड़ी लेने आये तब शेख ‌रंगरेजिन ने मुस्कुरा कर उनका स्वागत किया और उनकी पगड़ी उन्हें दे दी. परंतु उसने यह नहीं बताया कि उनके अधूरे कवित्त को उसने पूरा कर दिया है. घर आकर लालमणि त्रिपाठी ने उलट पलट कर अपनी पगड़ी देखी तो उसके खूंट पर वही पर्ची बंधी हुई मिल गयी. जब उन्होंने अपने अधूरे कवित्त को पूर्ण रूप में देखा तब वे समझ गये कि इसे शेख रंगरेजिन ने ही पूर्ण किया है. उसी पल से वे शेख के दीवाने हो गये. वे शेख के प्रेम में इस कदर खो गये कि उन्हें अपने आप की भी सुध न रही. उधर शेख रंगरेजिन भी मन ही मन उन्हें चाहने लगी थी. मगर त्रिपाठी जी का तो हाल ही अजीब था. जब उन्हें अनुभव हुआ कि वे शेख के बिना नहीं रह सकते तब वे उसके घर पहुंचे और उसके पिता से बोले -"मैं आपकी बेटी से शादी करना चाहता हूँ."

"क्या....?" त्रिपाठी जी के इस बेबाकी पर शेख के पिता दंग रह गये.

"जी हाँ, मैं शेख को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूँ."

"मगर हुजूर आप हिन्दू हैं और हमलोग मुसलमान." शेख के पिता ने आपत्ति जताई.

"तो क्या हुआ, दो प्रेमियों के बीच धर्म-मजहब दीवार नहीं बन सकता." त्रिपाठी जी ने जिद पकड़ ली. कहा जाता है कि लालमणि त्रिपाठी मुगल दरबार के आश्रित थे और तत्कालीन बादशाह कुतुबुद्दीन मुहम्मद मुआज्जम के निकटवर्ती थे. इसलिए शेख के पिता इंकार न कर सके और उन्होंने इस शर्त पर अपनी रजामंदी दे दी कि त्रिपाठी जी को कलमा पढ़कर इस्लाम कबूल करना होगा. शेख की मुहब्बत में पागल बने लालमणि त्रिपाठी ने इस्लाम धर्म कबुल कर लिया और लालमणि त्रिपाठी शेख रंगरेजिन से निकाह करके लालमणि से आलम शेख बन गये. शेख से निकाह करने के बाद आलम की रचनाओं में प्रवाह आ गया. और वे प्रेमोन्मद की तरंग में बह कर रचनाएँ करने लगे. विद्वानों के अनुसार वे रीतिकालीन कवि होते हुए रीतिमुक्त काव्य की रचना किया करते थे. अन्य मुस्लिम कवियों की तरह वे भी भगवान श्रीकृष्ण के ही भक्त थे. रसखान तथा सूरदास की तरह शेख आलम ने भी भगवान श्रीकृष्ण के बाल लीलाओं का बड़े वात्सल्य भाव से चित्रण किया है.

"जसुदा के अजिर विराजे मोहन जू, 

अंग रज लागै छबि छाजै सुपाल की। 

छोटे छोटे आछे पग घुंघरू घूमत घने, 

जासों चित हित लागै सोभा बाल जात की। 

आछी बतियाॅं सुनावै छिनु छाड़िबो न भावै, 

छाती सो छपावै लागै छोह वा दयाल की। 

हेरि ब्रज नारि हारी वारि फेरि डारी सब, 

आलम बलैया लीजै ऐसे नंदलाल की।"

इस तरह के अनेकों पद हैं, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप और वात्सल्य भाव के दर्शन होते हैं.

उनकी रचनाओं में "माधवनल कामलता' "श्याम सनेही" "सुदामा चरित" तथा "आलम केलि"

प्रमुख है. माना जाता है कि आलम और उनकी पत्नी दोनों मिलकर रचनाएँ किया करते थे. शोधकर्ताओं का कहना है कि "आलम केलि" के अधिकांश कवित्त शेख रंगरेजिन के ही लिखे हुए हैं. वे अपनी पत्नी से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने अपनी पत्नी का नाम अपने नाम से पहले लगा लिया और इसतरह उनका पूरा नाम हो गया "शेख-ऊल-आलम".

माना जाता है कि शेख सिर्फ कवयित्री ही नहीं थी, बल्कि हाज़िर जवाबी भी थी. चूंकि आलम बादशाह कुतुबुद्दीन मुहम्मद मुआज्जम के आश्रित थे, इसलिए यदाकदा बादशाह की मुलाकात शेख रंगरेजिन से हो जाया करती थी. एकबार मुआज्जम ने मजाक में पूछ लिया -"क्या आलम की बीबी आप ही हैं." इस पर शेख रंगरेजिन ने तपाक से जबाब दिया.

"सही फरमाया हुज़ूर ने जहान की अम्मा (माँ) मै ही हूँ." (जहान आलम और शेख के बेटे का नाम था.) उसकी इस हाजिरजबाबी पर बादशाह मुआज्जम लाजवाब हो गये.


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क्रमशः------------!

(अगले अंक में पढ़ें बादशाह मुआज्जम तथा शेख आलम की वास्तविकता तथा आलम के कुछ चुनिंदा पद)

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