भक्तिकाल के मुस्लिम 


(प्रथम किश्त) 

 - रामबाबू नीरव

"कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इंह लगी आयी।। 

भा निरभर तेन्ह पायब पर से। पावा रूप रूप के दरसे  ।।"

"मानसरोवर में स्नान करने को आयी पद्मिनी को देखकर मानसरोवर हर्षित है. जो उसे चाहिए था, वह उसे मिल गया. पारस जैसे रूप की स्वामिनी पद्मिनी यहाँ आयी है, उसके पाॅंव रखने मात्र से सरोवर निर्मल हो गया. उसने (सरोवर ने) जो रूप पाया है, वह उसी के (पद्मिनी के) दर्शन का परिणाम है."

पद्मिनी जाति की नारी के अनुपम सौंदर्य का एक दूसरा उदाहरण देखें -

"जैस्मिनकि ये पनि हारी सो रानी केहि रूप।"

"पद्मिनी जाति की रूप और स्वरूप वाली पनिहारिने सरोवर पर पानी भरने के लिए आती हैं. वे कमल के गंध जैसी सुगंधित हैं, इसीलिए भौंरे उन्हें कमल समझकर उन पर मंडराते हैं. उनकी कमर सिंह की भांति है, नयन मृग की तरह, चाल हॅंस की तरह तथा बोली कोयल की तरह है." पद्मिनी स्त्रियों के रूप गुण का ऐसा मनोहारी चित्रण पंद्रहवी शताब्दी में लिखे गये एक खंडकाव्य से लिए गये हैं, जिसका नाम है *पद्मावत* इसकी भाषा अवधी है, वही अवधी, जिसमें रामचरित मानस लिखा गया है. इस खंडकाव्य के रचयिता हैं सुप्रसिद्ध सूफी (संत) मलिक मुहम्मद जायसी. "हिन्दी साहित्य का इतिहास" के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस खंडकाव्य को सुप्रसिद्ध संत कवि गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य की*रामचरितमानस* के समकक्ष माना है. परंतु *पद्मावत* की रचना *मानस* से लगभग चार दशक पूर्व हो चुकी थी. इस पर विशेष चर्चा मैं आगे करूँगा. पहले मलिक मुहम्मद जायसी का परिचय जान लेना जरूरी है. जायसी भक्ति काल के निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के उच्च कोटि के कवि थे. वे सरल हृदय तथा उदार प्रकृति के सूफी संत थे. वे मलिक वंशज थे. अब यहाँ "मलिक" शब्द के बारे में कुछ जान ले. असल में मलिक किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, बल्कि एक पदवी का नाम है. उन दिनों मिस्र में सेनापति अथवा प्रधानमंत्री को मलिक कहा जाता था. वहीं इरान में जमींदारों को मलिक कहा जाता था. एक और मान्यता के अनुसार लगभग 12 हजार सेना के रिसालेदार (सेना नायक) को मलिक कहा जाता था. भारत में खिलजी वंश के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा की हत्या करवाने के लिए मिस्र के निगलाम प्रान्त से कुछ मलिकों को भारत में बुलवाया था. इनका काम हो जाने के बाद ये लोग यहीं के वाशिंदें हो गये. ये लोग अपने नाम के आगे मलिक लगाया करते थे. उन्हीं मलिकों के वंश में पंद्रहवी शताब्दी में मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म हुआ था. मलिक मुहम्मद जायसी के पूर्वज अशरफी खानदान के चेले थे. चूंकि इनका जन्म सन 1492 ई० में उत्तर प्रदेश के अमेठी रियासत के निकट जायस नामक नगर में हुआ था, इसलिए वे अपने नाम के पीछे यानि तख्लुस के रूप में जायसी लगाया करते थे, इसलिए उनका पूरा नाम हो गया "मलिक मोहम्मद जायसी." अपने जन्म स्थान और जन्म दिन के बारे में उन्होंने इस चौपाई में लिखा है -

 "जायसी नगर मोर स्थानू। 

नगरक नांव आदि उदयानू।

तहाँ दिवस दस पहुंचे आएऊॅं। भा वैराग बहुत सुख पाएऊॅं।"

इस चौपाई से यह ज्ञात होता है कि जिस नगर में उनका जन्म हुआ था, उसका प्राचीन नाम उदीयान रहा होगा. वहाँ एक पाहून (मेहमान/अतिथि) के रूप में दस दिनों के लिए आए. (अपनी पूरी जिंदगी को उन्होंने दस दिनों की जिंदगी माना है.) यानि उन्होंने अपने नश्वर जीवन का आरंभ किया था. फिर वैराग्य की प्राप्ति होने के पश्चात उन्हें असीम सुख की प्राप्ति हुई थी." 

आज भी उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में जायस नाम का नगर विद्यमान है. जो प्राचीन काल में उद्यान नगर अथवा उज्जालिक नगर के नाम से जाना जाता था. इसी नगर के कंथाना खुर्द नामक महल्ले में जायसी का जन्म हुआ होगा, ऐसा स्थानीय लोगों का मानना है. अपने जन्म के बारे में वे एक जगह और लिखते हैं -"भा अवतार मोर नौ सदी। 

तीस बरिख ऊपर कबि बदी." इसके आधार पर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः 800 हि० से लेकर 900 हि० यानि 1397 ई० और 1494 ई० में किसी समय हुआ होगा. तथा 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने काव्य रचना आरंभ किया होगा. अपने विख्यात खंडकाव्य "पद्मावत" का रचना काल उन्होंने 947 हि० अर्थात 1540 ई० बतलाया है. पद्मावत के अंतिम अंश (653) के अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि पद्मावत लिखते समय वे अति वृद्ध हो चुके होंगे. जायसी के पिता एक मामूली जमींदार (कृषक) थे और खेती किया करते थे. उनका नाम मलिक राजे अशरफ था. मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने गुरु का भी कई जगहों पर उल्लेख किया है. उनके कथनानुसार सैयद अशरफ, जो मशहूर सूफी थे उनके लिए उज्ज्वल पथप्रदर्शक बने. सैयद अशरफ ने उनके जीवन में प्रेम का दीपक जला कर उनके हृदय को निर्मल कर दिया. 

 माना जाता है कि जायसी कुरूप और एक ऑंख के काने थे. इस संबंध में उन्होंने लिखा है -"मुदमद बाईं दिसि लगा सरवन एक ऑंख."

कहा जाता है कि युवावस्था में उन्हें चेचक (शीतला) हो गया था. इसी चेचक के कारण उनकी बाईं ऑंख कानी तथा बायां कान बहरा हो गया था. इस वजह से वे देखने में कुरूप लगने लगे थे.

एक किंवदंती के अनुसार  बादशाह शेरशाह सूरी ने एकबार उन्हें अपने दरबार में बुलवाया और उनके कुरूप चेहरे को देखते ही ठहाका मार कर हॅंस पड़ा. इस पर जायसी शान्तचित भाव से बोले -

"मोहिका हससि, कि कोह रहि." यानि तुम मुझ पर हॅंसे  याकि उस कुम्हार (ईश्वर) पर जिसने मुझे बनाया है." इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि जायसी अपने जीवन काल में कभी भी शेरशाह या किसी भी मुगल बादशाह के दरबार में नहीं गये. हाँ, वे अमेठी रियासत के राजा रामसिंह के मुरीद अवश्य थे. (मलिक मुहम्मद जायसी तथा राजा रामसिंह के संबंध की कहानी अगले अंक में दी जाएगी). 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने  मध्यकाल के कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी को  प्रमुख स्थान दिया है. उन्होंने  "जायसी ग्रंथावली का संपादन करते समय जायसी को प्रथम श्रेणी के; कवि होने का प्रमाण पत्र दिया है. इससे पूर्व इस रूप में हिन्दी साहित्य के किसी भी विद्वान ने उन्हें इतना बड़ा सम्मान नहीं दिया था. शुक्ल जी ने उन्हें मध्यकाल (भक्तिकाल) के सर्वश्रेष्ठ तथा लोकप्रिय संत कवि तुलसी दास जी के टक्कर का कवि मानते हुए उनके खंड काव्य पद्मावत को भी मानस के टक्कर का ग्रंथ माना है. उनके अनुसार भले ही जायसी का रचना क्षेत्र सीमित रहा हो परंतु उनके काव्य की प्रेम वेदना अपरिमित और अनूठी है.

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क्रमशः.......! 

(अगले अंक में पढ़े, जायसी ए्वं राजा रामसिंह की अंतरंगता तथा राजकुमारी पद्मावती की कहानी.)

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