धारावाहिक उपन्यास 


--राम बाबू नीरव 

फार्म हाउस के मुख्य द्वार से निकल कर संध्या सड़क के किनारे आकर खड़ी हो गयी. सड़क के उस पार गोमती नदी कल कल निनाद करती हुई बह रही थी. संध्या की इच्छा हुई इस गोमती नदी में ही छलांग लगा कर अपनी जिन्दगी की कहानी को यहीं खत्म कर दे.  अभी वह ऐसा सोच ही रही थी कि अचानक चिहुंक पड़ी. किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया था. वह उछल कर एकबारगी पलट गयी. उसके सामने खड़ा धनंजय बड़ी बेशर्मी से मुस्कुरा रहा था. इस बेहया इंसान को अपने सामने देखकर उसे तनिक भी आश्चर्य न हुआ. यह सारा कुचक्र आखिर इस शैतान का ही तो रचा हुआ था. वह कुछ बोली नहीं सिर्फ क्रुद्ध नजरों से उस शैतान को घूरने लगी. 

"क्या सोच रही हो श्वेता रानी.?" अशिष्टता पूर्वक हंसते हुए उसने पूछा.

"सोच रही हूं तुम कितने मक्कार और नीच इंसान हो." वह उपेक्षा से अपने ओंठ सिकोड़ती हुई बोली, लेकिन उसकी इस उपेक्षा का रत्ती भर भी प्रभाव धनंजय के ऊपर न पड़ा. वह निर्लज्जता से हंसे जा रहा था. फिर अपनी हंसी रोककर बोला -"तुम्हें जो समझना हो समझो श्वेता रानी, मगर सच यही है कि मैं तुम से बेहद प्यार करता हूं. " 

"चुप...." इतनी जोर से चिल्लाई संध्या कि धनंजय सिटपिटा कर रह गया -"तुम अपने मुंह से प्यार का नाम लेकर इसकी पवित्रता को धूमिल मत करो. प्यार की पवित्रता के बारे में मैं तुम्हें पहले भी बता चुकी हूं."

"देखो श्वेता....!"

"रुको.....!" संध्या उसे बीच में ही रोकती हुई बोल पड़ी -"भूलकर भी मुझे श्वेता कहकर मत पुकारना."

"क्यों....?" धनंजय हैरत से उसकी ओर देखने लगा.

"क्यों कि श्वेता उसी दिन मर गयी, जिस दिन वह तुम्हारे रंगमहल से भागी थी. अब मैं संध्या हूं. यदि मुझे श्वेता ही बनना होता तो मैं फिर से गुलाब बाई के कोठे पर चली गयी होती. इस तरह दर-बदर की ठोकरें न खाती फिरती. मेरे अंदर एक नयी औरत ने जन्म लिया है, जो सारे सांसारिक ऐश्वर्य-भोग का परित्याग कर चुकी है और मैं उस औरत को मारना नहीं चाहती. समझ गये तुम." संध्या की ये तार्किक बातें धनंजय के संकीर्ण भेजे में नहीं घुसी. कुछ पल के मौन के पश्चात अपना कंधा उचकाते हुए वह लापरवाही से बोला -"तुम्हारा नाम संध्या हो या श्वेता क्या फर्क पड़ता है. मैं तुम्हें अपनाना चाहता हूं बस."

"हुंह.....!" संध्या के मुंह से एक नि:स्वांस निकला फिर वह अति गंभीर स्वर में बोली -"इस बार तुम मुझे कहां ले जाओगे.?" उसका ऐसा प्रश्न सुनकर धनंजय हक्का बक्का रह गया. इतनी आसानी से यह लड़की मान कैसे गयी.? मानेगी नहीं तो करेगी क्या, अब इसके पास दूसरा विकल्प ही क्या बचा है? वह मन ही मन उत्फुल्लित होते हुए सोचने लगा. 

"तुम जहां से भागी थी, वैसे यदि तुम वहां न जाना चाहो तो दूसरा विकल्प भी है." धनंजय अति उत्साहित होते हुए बोला.

"ठीक है चलो." एक पेड़ के नीचे खड़ी धनंजय की लग्जरी कार की ओर संध्या बढ़ गयी और आगे का दरवाजा खोलकर नि: संकोच भाव से बैठ गयी. हैरान, परेशान सा धनंजय कुछ पल तक उसकी गतिविधियों को देखता रहा, फिर वह भी ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया. संध्या के अति गंभीर और सागर की तरह शांत हो चुके चेहरे पर दृष्टिपात करके उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी. संध्या की इस अप्रत्याशित खामोशी ने उसके दिलो-दिमाग में हलचल मचा दी थी. 

"तुम एकाएक इस तरह से खामोश क्यों हो गयी?" उससे यह न गया और संध्या की ओर व्यग्र भाव से देखते हुए पूछा बैठा.

"तो क्या करूं, इस गाड़ी में ही तुम्हें अपनी आगोश में लेकर झूठे प्यार का इजहार करूं?" संध्या का यह व्यंग्य बाण तीखे तीर की तरह धनंजय के कलेजे को चीरता चला गया. आगे कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं रह गयी धनंजय की. गाड़ी के अंदर तीखी खामोशी छा गई. दोनों चुप थे, मगर उन दोनों के दिल उसी तेजी से धड़क रहे थे, जिस तेज रफ्तार के साथ गाड़ी धनंजय के रंगमहल की ओर भागी जा रही थी. 

                *****

संध्या को धनंजय की गाड़ी से उतरते देख रंगमहल की नौकरानी रूपा के साथ साथ उसका पति रघुवीर हैरान रह गया. उन दोनों ने पहली नजर में ही संध्या को पहचान लिया था. पहचानते कैसे नहीं, इस छोकड़ी के कारण ही तो जालिम धनंजय ने उन दोनों पर कहर ढ़ाया था और इतने दिनों बाद यह लड़की फिर इस शैतान के साथ इस रंगमहल में आ गयी. 

"हुंह.....!" अपना मुंह बिचकाती हुई रूपा ओठों ही ओठों में बुदबुदाने लगी. "सती सावित्री बनने का नाटक कर रही थी, सच तो यह है कि यह भी एक बाज़ारू औरत ही है." संध्या गाड़ी से उतर कर लपकती हुई रूपा के करीब आ गयी. और उससे बिंदास लिपटती हुई हंस पड़ी -"दीदी तुम्हें आश्चर्य हो रहा है न कि मैं दुबारा इस रंगमहल में कैसे आ गयी? सच पूछो तो तुम्हारा प्यार ही मुझे यहां खींच लाया है." 

"अच्छा अच्छा यह नाटक बंद करो और छोड़ो मुझे." रूपा स्वयं को उसके बंधन से मुक्त करती हुई उपेक्षा भाव से बोली. उसकी इस उपेक्षा को देखकर संध्या तड़प उठी, मगर वह जानती थी कि उन दोनों की यह उपेक्षा अकारण नहीं है. उसके साथ जो घटनाएं घटी है, उसकी जानकारी तो इन्हें है ही नहीं फिर संध्या की त्रासदी को ये लोग कैसे समझेंगे?

"अभी तुम्हें मेरे बारे में जो भी कयास लगाना हो लगा लो रूपा, लेकिन जब तुमलोग मेरी कहानी सुनोगी तब  मेरे प्रति अभी जो घृणा है वह प्यार में बदल जाएगा." संध्या फुसफुसाती हुई उसके कान में बोली फिर उससे अलग होकर गाड़ी के पास खड़े धनंजय के करीब आ गयी और उसकी कलाई थाम कर खींचती हुई सपाट स्वर में बोली -"चलो."

"कहां....!" संध्या की इस हरकत पर धनंजय एकदम से खीझ पड़ा.

"तुम अपने विलास कक्ष में."

"क्यों....?" धनंजय की खीझ और भी बढ़ गयी.

"वहीं चलकर बताऊंगी."अकबकाया हुआ सा धनंजय उसके साथ चलने को मजबूर हैं गया. उस विलास कक्ष में पहुंच कर संध्या ने दरवाजा बंद कर लिया. धनंजय को अपना पूरा शरीर सर्द होता हुआ सा महसूस हुआ. यह लड़की पागल हो गयी है क्या....ऐसी हरकतें क्यों कर रही है. उसके मस्तिष्क में सांय सांय सा होने लगा. 

"अब बोलो धनंजय, क्या मैं तुम्हारे सामने निर्वस्त्र हो जाऊं." वह अपनी साड़ी खोलने का अपक्रम करने लगी. 

"ऐ....ऐ.... क्या तुम पागल हो गयी हो." हलक फाड़कर चिल्लाने लगा धनंजय. 

"हां.... हां.... पागल हो गयी हूं मैं." धनंजय की भांति ही चिल्लाने लगी संध्या -"जब तुम मेरे प्यार में पागल हो सकते हो तो मैं भी तुम्हारे प्यार में पागल क्यो नहीं हो सकती. तुम मुझे पाने के लिए पूरे हिन्दुस्तान की ख़ाक छान सकते हो, तब मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकती. तुम्हारे मन में मेरे सुन्दर शरीर को भोगने की लिप्सा उछालें मार रही है न तो आओ शांत कर लो अपनी लिप्सा को. बुझा लो अपनी प्यास." संध्या अब लगभग अर्द्धनग्न हो चुकी थी. धनंजय ने लपक कर उसका हाथ थाम लिया.

"बस करो संध्या." एकाएक धनंजय का स्वर बदल गया. वह वेदना सिक्त स्वर में  बोला -"तुमने मेरी चाहत को ऐसा क्यों समझा." पहली बार संध्या को लगा कि उसकी इन हरकतों से धनंजय के दिल को सदमा पहुंचा है. फिर भी उसके विवेक को झकझोरने की नीयत से वह बोली -"क्यों कि तुम्हारी चाहत.... चाहत नहीं, वासना है. तुम जिसे प्यार कहते हो, वह तुम्हारा प्यार नहीं, बल्कि मेरे सुन्दर शरीर को भोगने की लिप्सा है. मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि प्रेम आत्मा की गहराई से उत्पन्न होता है. प्रेम में वासना नहीं होती. वासना तो भूख है, जो कभी नहीं मिटती. इस वासना में उत्ताप होता है, मगर प्रेम सात्विक होता है. प्रेम में पवित्रता और पूर्णता की अनुभूति है, वहीं वासना अपवित्र होने  के कारण अपूर्ण है. तुमने भौंरों को तो देखा होगा. पुष्प पर मंडराने वाले भौंरों को.... उन्हें देखकर ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है कि वे पुष्प से बेहद प्रेम करते हैं, मगर सच यह है का भौंहें पुष्प से प्रेम नहीं करते, उसका रसपान करते हैं. यही है वासना. सिर्फ अपनी संतुष्टि और तृप्ति की चाहत ही लिप्सा अथवा वासना है. प्रेम की पवित्रता कहां है, मैं तुम्हें बताती हूं. प्रेम की पवित्रता चकोर में है. वह चांद से प्रेम करता है और उसे पाने के‌ लिए उड़ता जाता है, उड़ता जाता है, तब-तक उड़ता चला जाता है, जब तक कि उसका प्रेम यानी चांद न मिल जाए. मगर उसे उसका प्यार तो नहीं मिलता हां मौत अवश्य मिल जाता है. यही है सात्विक प्रेम. तुमने दीपक पर मंडराने वाले पतंगों को भी तो अवश्य देखा होगा. उस दीपक की लौ को पाने की चाहत में वे जल जल कर भस्म हो जाया करते हैं. यही है पवित्र प्रेम की पराकाष्ठा." संध्या अचंभित रह गयी. धनंजय की आंखों से टप टप आंसू टपकने लगे थे और उसके मुंह से बेहद सर्द आवाज निकलने लगी -

-"संध्या, यह सच है कि मैं बदचलन हूं, आबारा और शराबी हूं, मगर इतना गिरा हुआ नहीं हूं कि तुम्हारी मर्ज़ी के बिना तुम्हारे शरीर का स्पर्श भी कर सकूं. यदि तुम्हारे शरीर को भोगने की लिप्सा मेरे मन में रही होती तो उसी दिन तुम्हें भोग चुका होता, जिस दिन तुम्हारा अपहरण करवाया था. मगर मैं तुम्हें भोगना नहीं बल्कि पाना चाहता था. मगर पा न सका. इसका अफसोस ताजिंदगी मुझे रहेगा. खैर तुम मेरी न हो सकी कोई बात नही. मैंने  तुम्हारे साथ अन्याय किया है, इसलिए तुम्हारा अपराधी हूं. तुम्हें दर दर भटकने नहीं दे सकता. आज से यह रंग महल तुम्हारा है. यानी इस रंगमहल की तुम मालकिन हो." धनंजय की बातें सुनकर संध्या मन ही मन हंसने लगी. एक दिन सेठ द्वारिका दास ने भी उसे राजीव के कॉटेज की मालकिन घोषित किया था, उसका परिणाम क्या हुआ?

"देखो धनंजय मैं एक भिखारिन हूं, इतने बड़े महल की रानी मत बनाओ मुझे. जानते हो, तुम्हारी मां ने मुझपर कितना घटिया इल्ज़ाम लगाया था.?"

"क्या....?"

"उस औरत ने मुझे सेठ द्वारिका दास यानी तुम्हारे पिताजी की रखैल बना दिया. जरा सोचो तुम्हीं यदि मुझे किसी की रखैल ही बनना होता तो तुम्हारी रखैल क्यों नहीं बन जाती. तुम जवान हो, हैंडसम हो, और दौलतमंद भी." संध्या तिरछी नजरों से धनंजय की ओर देखने लगी."

"मैं अपनी मां की ओर से तुमसे माफी मांगता हूं."

"हुंह...." संध्या फीकी हंसी हंसती हुई बोली -"गलती कोई करें और सजा कोई और भुगते. खैर छोड़ो इन बातों को क्या तुम यह जानना नहीं चाहोगे कि इतने दिनों तक मैं तुम्हारे फार्महाउस में कर क्या रही थी?" धनंजय कुछ बोला नहीं जिज्ञासा पूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखने लगा. 

"तुम्हारा एक भाई भी है न.?" संध्या के इस प्रश्न को सुनकर धनंजय एकाएक उछल पड़ा -"मगर मेरे राजीव भैया तो.....!"

"तुम्हारे राजीव भैया भगवान के प्यारे हो चुके हैं, यही कहना चाहते हो न तुम.?"

"आ..... हां.... हां."

"झूठ है, यह सब. तुम्हारे राजीव भैया मेरे नहीं हैं, जिन्दा हैं."

"मगर मैंने अपने ही हाथों से उनका दाह संस्कार किया था." धनंजय एकदम से नर्वस सा हो गया.

"तुमने अपने राजीव भैया का नहीं, बल्कि एक ऐसे पागल की लाश का दाह संस्कार किया था, जो लावारिस था. जिस तरह से तुम्हारी मां ने साजिश रच कर राजीव को पागल घोषित कर दिया था, उसी तरह से तुम्हारे पिताजी ने डा० गुप्ता के साथ मिलकर राजीव को मृतक घोषित करवा कर तुम्हारे हाथों ही उसका दाह संस्कार करवा दिया, जिससे तुम्हारी मां को विश्वास हो जाए कि उसके रास्ते का कांटा दूर हो चुका है."

"ओह.....मेरा तो सर चकरा रहा है. राजीव भैया कहां हैं?" धनंजय अपना सर थाम कर सोफा पर बैठ गया.

"माफ करना मैं तुम्हें नहीं बतला सकती कि वे कहां हैं." कुछ पल मौन रहने के पश्चात वह गहरी नजरों से धनंजय को घूरती हुई पूछ बैठी -"अब तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो. तुम मुझे अपने इस ऱग महल में किस हैसियत से रखना चाह रहे हो.?"

"क्या मतलब....?" संध्या के इस प्रश्न को सुनकर धनंजय बुरी तरह से चौंक कर उछल पड़ा.

"मतलब साफ है, मुझे किसी की रखैल बन कर रहना कतई पसंद नहीं है. क्या तुझ में इतनी हिम्मत है कि तुम मुझे सेठ द्वारिका दास के खानदान की बहू बना सको." संध्या के इस अनोखे प्रस्ताव को सुनकर धनंजय के होश उड़ गये. 

"क्यों, चुप क्यों हो गये, कुछ तो बोलो. " संध्या व्यंग्य भाव से हंसने लगी. 

"मुझे सोचने का थोड़ा मौका दो."

"मुझे कोई जल्दबाजी नहीं है, तुम आराम से सोच कर बताना." धनंजय कातर नजरों से संध्या की ओर देखने लगा.

"मेरी हालत देख रहे हो." अचानक मुक्त हास्य बिखेरती हुई वह पुनः: बोल पड़ी -"इस समय मैं किसी भिक्षुणी की अवस्था में हूं. जल्दबाजी में तुम मुझे यहां ले तो आये, मगर मेरी ओर ध्यान ही नहीं दिया कि मैं वहीं साड़ी पहनी हुई हूं, जो पहनकर तुम्हारे इस रंग महल से भागी थी. "


"ओह....!" धनंजय के मुंह से सर्द आह निकल पड़ी. -"आज शाम को ही अपने नौकर द्वारा तुम्हारे लिए ‌कुछ साड़ियां, जरूरत के अन्य सामान तथा कुछ रुपए भिजवा देता हूं." इतना कहकर वह तेजी से बाहर निकल गया. संध्या उसकी ओर देखती हुई ओठों ही ओठों में मुस्कुराने लगी थी.

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क्रमशः.......!

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