धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
हाथ में लाल रंग का एक मखमली डिब्बा लिये हुए राजीव ने अपने फार्म हाउस बाले बंगले के हॉल में जैसे ही प्रविष्ट हुआ कि अचानक उसकी बाईं आंख फड़क उठी. फिर तो किसी अनहोनी की आशंका से उसका दिल तेजी से धड़कने लगा. बंगले में पूर्णतः निस्तब्धता छाई हुई थी. इसका मतलब उसकी गैरहाजिरी में यहां कोई न कोई अप्रिय घटना घटी है जरूर.
"संध्या.... संध्या." हॉल के बीचोंबीच पहुंच कर वह जोर जोर से चिल्लाते हुए संध्या को पुकारने लगा. मगर आश्चर्य, संध्या अपने कमरे से बाहर न निकली. उसने तो सोच रखा था कि उसकी आवाज सुनकर संध्या बावरी सी होती हुई अपने कमरे से निकल कर नीचे आएगी और बेतहाशा उससे लिपट जाएगी, मगर ऐसा कुछ भी न हुआ. अब उसके दिल की धड़कन तीव्र गति से बढ़ गयी. संध्या की जगह शान्ति उसके सामने आकर खड़ी हो गयी और भयातुर नजरों से उसकी ओर देखने लगी.
"शान्ति..... संध्या कहां है?" राजीव ने कंपित स्वर में पूछा. मगर शान्ति अपनी नजरें झुकाए हुई फर्श को निहारने लगी. उसकी समझ में न आया कि वह क्या उत्तर दे.?
"तुम खामोश क्यों हो, जवाब क्यों नहीं देती." राजीव की आवाज तीखी हो गयी. मगर फिर भी शान्ति की खामोशी न टूटी.
"शान्ति कुछ नहीं बताएगी बेटा, मैं तुम्हें बताती हूं." अपने पीछे से आयी इस आवाज को सुनकर राजीव बुरी तरह से चौंक कर पीछे मुड़ गया. उसके सामने गंभीर रूप धारण किये हुई शारदा देवी यानी उसकी बुआ खड़ी थी. राजीव संध्या को वहां न पाकर इतना अपसेट हो चुका था कि वह अपने बुआ के पांव छूने की औपचारिकता भी भूल गया. वह बेचैन आंखों से उनकी ओर देखने लगा.
"बेटा....!" शारदा देवी संध्या के प्रति असीम घृणा का प्रदर्शन करती हुई बोली -"उस कपटी, मक्कार और बदचलन लड़की ने हम सब को धोखा दिया है."
"धोखा दिया है, क्या मतलब....?" शारदा देवी की बातें पिघले हुए शीशे की भांति उसके कानों में पड़े. वह विस्तारित आंखों से अपनी बुआ को घूरने लगा. जो बुआ संध्या की तारीफें करती हुई अघाया न करती थी, आज उनके मुंह से संध्या के लिए अंगार कैसे निकल रहे हैं?
"तुम उस धोखेबाज और चालबाज लड़की की हकीकत जानोगे तो परेशान हो जाओगे राजीव."
"आप पहेलियां क्यों बुझा रही हैं बुआ जी, मुझे साफ साफ क्यों नहीं बताती कि मेरी संध्या कहां है?" राजीव का धैर्य जवाब देने लगा. धीरे-धीरे उसका स्वर उग्र होता जा रहा था.
"देखो बेटा, तुम इत्मीनान से बैठ जाओ मैं तुम्हें पूरी कहानी सुनाती हूं."
"मुझे कोई कहानी नहीं सुननी है, मुझे सिर्फ इतना जानना है कि मेरी संध्या को आप लोगों ने कहां छुपा कर रखा हुआ है.?" आखिर वह उग्र हो ही गया. उसके इस उग्र रूप को देखकर शान्ति के साथ साथ शारदा देवी भी सूखे हुए पत्ते की तरह कांपने लगी. जैसे तैसे शारदा देवी ने अपने दिल को मजबूत बनाया और कांपती हुई आवाज में बोली. -"संध्या यहां से चली गयी."
"क्या.....?" ऐसा लगा राजीव को जैसे किसी ने बड़ी ही निर्ममता पूर्वक उसके सीने में चाकू घोप दिया हो. वह फटी फटी आंखों से शारदा देवी को घूरने लगा. उसके हाथ से वह मखमली डिब्बा छूटकर फर्श पर गिर पड़ा. उस डिब्बे में हीरों से जगमगाता एक नेकलेस था. बड़े अरमान से वह यह नेकलेस अपनी प्राणेश्वरी संध्या के लिए लाया था, मगर उसे क्या पता था कि यहां आते ही उसके अरमानों पर ओले पड़ जाएंगे.
"हां बेटा." शारदा देवी संध्या के प्रति आग उगलती हुई बोली. -"उस लड़की ने एक साज़िश रची थी, तुम्हारी दौलत हड़पने के लिए. वह कोई शरीफ घराने की नहीं थी बल्कि लखनऊ की मशहूर तवायफ गुलाब बाई की बेटी थी."
"बुआ, आपलोगों ने बहुत बुरा किया. आ.....आह !" राजीव अपनी छाती पकड़ कर दर्द से तड़पने लगा और धप् से फर्श पर बैठ गया.
"बेटा.....!" शारदा देवी उसकी हालत देखकर घबरा गयी. उन्होंने तो समझा था कि संध्या की सच्चाई जानकर राजीव उससे घृणा करने लगेगा, मगर हो गया उल्टा. वे उसकी ओर लपकी.
-"खबरदार, मुझे हाथ मत लगाना बुआ." असीम वेदना से तड़पते हुए राजीव उन्हें झिड़कने लगा -"जिस लड़की ने मुझे नयी जिन्दगी दी, उसके उपकार का आपलोगों ने ये सिला दिया. जाओ तुम सबके सब मेरी आंखों के सामने से दूर हो जाओ, मुझे किसी की भी हमदर्दी नहीं चाहिए. आ....आह.!" राजीव को लगने लगा कि बुआ जी, शान्ति और इस फार्म हाउस के सारे नौकर चाकर उसके दुश्मन हैं.
"बेटा मैं....!"
शारदा देवी उसके पांव के नीचे बैठ गयी और अपनी सफाई में कुछ कहना चाह रही थी, मगर राजीव ने कुछ भी कहने न दिया. -
"बुआ जी, मैं बचपन से आपको अपनी मां के रूप में देखता आया हूं. मगर आज आपने अपने ही बेटे के अरमानों को बेरहमी से कुचल डाला. आप लोगों ने कैसे उस लड़की को मेरे घर से निकाल दिया जो अपना सारा सुख-चैन और ऐश्वर्य मेरे ऊपर न्यौछावर कर चुकी थी. क्या तवायफ की बेटी होना गुनाह है ? जो गुण और संस्कार तवायफ की उस बेटी में थे, वे किसी आला खानदान की बेटी में नहीं हो सकते बुआ जी. भले ही मैं कोमा में था, मगर इतनी चेतना मुझ में थी कि मैं अच्छे बुरे की पहचान कर सकूं. कौन मुझे दिल से चाह रहा है और कौन चाहने का दिखावा कर रहा है, यह सब मैं भली भांति समझ रहा था. आप उस कॉटेज में, जहां मैं उपेक्षित सा पड़ा था, मुझे जब भी देखने के लिए आती, तब अपने मुंह पर रूमाल रख लिया करती. कहीं आपको भी मेरी बीमारी न लग जाए. मगर वह लड़की जिसे आप लोग कपटी, मक्कार और बदचलन कह रही हैं, और जिससे मेरा कोई रिश्ता भी नहीं है, जब पहली बार मुझे देखने पहुंची,तब जानती हैं आप, क्या किया था उसने? अपने आंचल से मेरे मुंह से बह रहे लार को साफ किया और स्नेह से मेरा हाथ सहलाने लगी. मेरी मरणासन्न अवस्था को देखकर उसका दिल तड़प उठा. और उसकी आंखों से चंद बूंद आंसू टपक कर मेरे गालों पर गिर पड़े. अब आप ही बताइए, महान कौन है, आप या वह तवायफ की बेटी?" आश्चर्य, इतना बड़ा सदमा राजीव बर्दाश्त कैसे कर गया.? उसकी आंखों से एक बूंद भी आंसू न गिरा. मगर शारदा देवी उसकी दर्द भरी बातें सुनकर तड़प उठी. उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी. वे मन ही मन स्वयं को धिक्कारने लगी - "आह....यह कैसा भयानक अपराध हो गया मुझसे? सचमुच मैं स्वार्थ में अंधी हो चुकी थी. उस निश्छल, निर्मल लड़की को पहचान न पाई. मुझे प्रभा देवी के जुल्म का विरोध करना चाहिए था. वह मुझे इस फार्म हाउस से निकाल देती और क्या करती. आज मैं राजीव की नजरों से तो न गिरती !"
"शान्ति....!" सर्द आवाज में राजीव ने शान्ति को पुकारा.
"जी मालिक....!" उसमें इतनी हिम्मत न थी कि वह राजीव से नजरें मिला सके.
"संध्या तुम्हें बड़ी बहन मानती थी न."
"हां मालिक." शान्ति ने अपनी गर्दन हिला दी.
"तो फिर कैसे तुमने उसे बाज़ारू समझ लिया.?"
"मुझसे भूल हो गयी मालिक, मुझे माफ़ कर दीजिए." शान्ति राजीव के पांव पकड़ कर फूट फूट कर रोने लगी.
"उठो शान्ति." राजीव उसे उठाते हुए बोला -"मैं इसमें किसी को दोष देना नहीं चाहता. सारा दोष मेरे अपने भाग्य का है. बचपन में ही मैं अपनी मां को खो बैठा. मुझे आज एहसास हो रहा है कि दुनिया की कोई भी औरत सगी मां का स्थान नहीं ले सकती." उसकी मर्मभेदी बातें सुनकर शारदा देवी का कलेजा छलनी हो गया. वे मर्मांतक पीड़ा से पुनः तड़पने लगी.
"गोपाल कहां है शान्ति?" राजीव ने बेहद करुण स्वर में पूछा.
"जी, वह बाहर ही कहीं होगा, अभी बुलाती हूं." शान्ति बाहर जाने के लिए मुड़ गयी.
"नहीं, उसे यहां बुलाने की जरूरत नहीं है, उसे कहो गाड़ी निकालेगा."
"जी, जो आज्ञा छोटे मालिक." शान्ति तेजी से बाहर की ओर दौड़ पड़ी.
"कहां, जाओगे तुम?" शारदा देवी व्यथित स्वर में उससे पूछ बैठी.
"मुझसे प्रश्न करने का अधिकार आप को चुकी हैं बुआ जी."
"राजीव....!" शारदा देवी के मुंह से घुटी हुई सी आवाज निकली. उन्हें लगा जैसे राजीव ने उनकी छाती पर तीव्र प्रहार किया हो. वे करुणा पूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखने लगी.
"बुआ जी मुझे पांच लाख रुपए चाहिए, इंकार मत कीजिएगा."
"पांच लाख रुपए." विस्मय से शारदा देवी की आंखें फटने लगी.
"हां, पांच लाख रुपये.?" राजीव थोड़ा कड़वे स्वर में बोल पड़ा. - "इंकार मत कीजिएगा, क्यों कि मैं जानता हूं कि इस फार्म हाउस का मालिक मैं हूं . आज के बाद से इस फार्म हाउस में वही होगा, जो मैं चाहूंगा. मैं बाहर गाड़ी में जाकर बैठता हूं, आप रुपए लेकर वहीं आ जाइए." राजीव एक तरह से आदेश देकर द्वार की ओर बढ़ गया.
बंगले के बाहर गाड़ी के निकट गोपाल खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. जैसे ही राजीव उसके करीब पहुंचा, उसने पीछे का दरवाजा खोल दिया. गुमसुम सा राजीव गाड़ी में जाकर बैठ गया. उसके हाथ वह मखमली डिब्बा था. उसी समय शारदा देवी बैग में रुपये लेकर आ गयी और बैग राजीव को थमा कर चुपचाप अंदर चली गयी. उन दोनों के बीच जो मनमुटाव का भाव था, वह गोपाल से छुपा न रह सका. राजीव की खामोशी भी किसी भयानक तूफान के आने का संकेत दे रही थी. बंगले के अंदर बुआ जी और राजीव के बीच जो भी बातें हुई थी, वह सब शान्ति गोपाल को सूना चुकी थी.
"कहां चलूं मालिक ?" डरते डरते गोपाल ने पूछा.
"उस मोहल्ले में ले चलो जहां तवायफें रहती हैं." दर्द भरा स्वर निकला राजीव के मुंह से.
"क्या....?" गोपाल चौंक कर अपनी जगह पर उछल पड़ा.
"तुम चौंके क्यों गोपाल, क्या तुम उस मुहल्ले को नहीं जानते.?"
"जानता हूं मालिक, मगर वहां आपका जाना उचित न होगा."
"क्या उचित है और क्या अनुचित, इसकी नसीहत तुम मुझे मत दो." राजीव के तेवर को देखकर. गोपाल सहम गया. और गाड़ी स्टार्ट करते हुए अदब से बोला -"जो हुक्म मालिक." और राजीव को लिए हुई गाड़ी लखनऊ की बदनाम बस्ती चौक की ओर सरपट भागती चली गई. गोपाल ने आईने में देखा - राजीव की आंखों से आंसुओं की मोटी मोटी धारा प्रवाहित हो रही है. अपने मालिक की हालत देखकर गोपाल का दिल कसक उठा.
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क्रमशः.........!
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