धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
संध्या ने सपने में भी नहीं सोचा था कि धनंजय दुबारा उसकी जिंदगी में आ जाएगा. वह आया भी तो राजीव का भाई बनकर. ओफ् ! कालचक्र ने उसे किस झंझावात में फंसा दिया. यह तो तय है कि धनंजय नाम का वह शैतान उसे छोड़ेगा नहीं, कोई न कोई कुचक्र रचेगा ही. उसे धनंजय से उतना भय नहीं है, जितना इस बात से कि कहीं वह इन लोगों के सामने उसकी सच्चाई न उगल दे. यदि ऐसा हुआ तो वह सबों की नजरों से गिर जाएगी. वह पल कितना दुखदाई होगा, जब शारदा देवी और सेठ द्वारिका दास उसे घृणा पूर्ण नजरों से देखेंगे. उसकी सच्चाई जानने के बाद राजीव उसके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं करेगा, इस बात का उसे पूरा भरोसा है, क्यों कि इशारों ही इशारों में वह उसे यह बता चुकी है कि वह एक नर्तकी है. वैसे उसने राजीव को अपनी दर्द भरी कहानी सुनाने की पूरी कोशिश की थी, मगर उसने सख्ती से उसे रोकते हुए किसी दार्शनिक की भांति कहा था -"संध्या हम वर्तमान में जी रहे हैं. हमें न तो भविष्य की चिंता करनी चाहिए और न ही अतीत में झांकना चाहिए. तुम कौन हो, क्या थी, यह सब मैं जानना नहीं चाहता. अभी तुम मेरे जीवन का संबल हो. मैं तुम से इतनी ही विनती कर रहा हूं कि मुझ से मेरा संबल मत छीनो." अत्यंत भावुक हो कर राजीव रो पड़ा था और वह व्याकुल होकर उसके आंसू पोंछने लगी थी. उसी समय संध्या ने निर्णय कर लिया था कि राजीव की व्याहता बनना तो संभव नहीं है, मगर उसकी दासी बन कर तो उसके साथ रह ही सकती है. मगर लगता है राजीव की दासी बनकर भी जीवन यापन करना उसके भाग्य में नहीं लिखा है. दुष्ट धनंजय ऐसा नहीं होने देगा. इससे पहले कि वह दुष्ट कोई कुचक्र रचे वह बुआ जी को सारी सच्चाई बता देगी. मगर वे हैं कहां. सुबह ही गई थी, और अब तक उनका अता-पता नहीं है. खैर जब वे आ जाएंगी तब उन्हें सारी कहानी सुना दूंगी. वैसे उम्मीद तो नहीं है कि सच्चाई जानने के बाद वे मुझे माफ कर देंगी, मगर इतनी निष्ठुर भी नहीं हैं कि मुझे इस बंगले से निकाल देंगी. कम-से-कम राजीव के आने तक वह उन से यहां रहने देने की विनती तो कर ही सकती है. इन्हीं सारी बातों को सोचते-सोचते संध्या की कब आंख लग गयी उसे पता ही न चला.
"माधव.....!" किसी औरत की कर्कश आवाज सुनकर उसकी नींद उचट गयी साथ ही वह बुरी तरह से घबरा भी गयी. वह अपने आप को रोक नहीं पायी और एक झटके में बिछावन पर से उठकर बाहर आ गयी और कारिडोर पर खड़ी होकर हॉल की ओर देखने लगी. नीचे का नजारा देखते ही उसके होश उड़ गये. एक अल्ट्रा मॉडर्न सी दिखने वाली महिला, अपने हाथ में हंटर लिए, माधव और शान्ति पर बरस रही थी. शान्ति, माधव, हरिहरन और कमली उसके सामने सर झुकाए हुए खड़े थे. उस महिला के पीछे इक्की-बाईस वर्ष की एक युवती भी खड़ी थी. जो उस महिला की तरह ही मॉडर्न लिबास में थी. मगर उसका लिबास ऐसा था जिसमें से उसका अंग-अंग झलक रहा था. उसे इस हालत में देख कर स्वयं संध्या की आंखें शर्म से झुक गयी. उस युवती को गौर से देखने के पश्चात संध्या बुरी तरह से चौंक पड़ी. वह खुबसूरत तो थी, मगर उसकी खुबसूरती को ग्रहण लग चुका था. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में अजीब तरह की मदहोशी थी. हालांकि लिपिस्टिक से उसने अपने ओठों को रंग रखा था, फिर भी उन काले धब्बों को छुपा पाने में वह नाकामयाब रही थी, जो सिगरेट पीने की वजह से ओठों पर पड़ जाया करते हैं. यानी कि यह लड़की इस उम्र में ही बर्बादी की ओर अपने कदम बढ़ा चुकी थी. सिगरेट के साथ साथ शराब की भी बुरी लत पड़ चुकी थी इसे. क्या ठीक आधुनिकता के सैलाब में बह कर इसके कदम भी बहक चुके हों. एक सोफे पर सेठ द्वारिका दास जी एकदम से नर्वस हालत में बैठे अपनी कर्कशा पत्नी की करतूतों को देखे जा रहे थे. संध्या को समझते देर न लगी कि यह अति आधुनिक महिला सेठ द्वारिका दास जी की पत्नी मिसेज प्रभा दास प्रभा दास है और यह युवती इसकी बेटी है. प्रभा देवी हाथ में लिए हुई हंटर को हवा में लहराती हुई गला फाड़कर चिल्ला रही थी -"तुम सबों को सांप क्यों सूंघ गया है, बोलते क्यों नहीं, कहां है वह हरामजादी, जिसके लिए तुम सबों ने मेरे बेटे की बेइज्जती की." प्रभा देवी क्रोध से कांपती हुई माधव के सामने आ गयी और हंटर से उसका चेहरा उठाती हुई गुर्राने लगी -"तुमने ही मेरे बेटे की कलाई मरोड़ी थी न. कमीने, कुत्ते तुम्हारी इतनी हिम्मत, हरामी मैं तुम्हारा वह हाथ ही कटवा दूंगी जिससे तुमने मेरे बेटे को छुआ था." संध्या के पूरे बदन में आग लग गई. प्रथम बार वह सेठ द्वारिका दास की इस कर्कशा पत्नी को देख रही थी. इसी चाण्डालीन की वजह से राजीव छः महीने तक कोमा में रहा. संसार में सौतेली मां तो अनेकों होगी, मगर इस नागिन जैसी नहीं होगी. क्या इस औरत के सीने में दिल है ही नहीं. यह नागिन तो अपनी जानकारी में अपने सौतेले बेटे को मार ही चुकी है, मगर इस औरत ने अपनी कोख से उत्पन्न संतानों पर भी तो रहम नहीं किया. बेटा और बेटी दोनों को आवारागर्द बना दिया. बुआ जी शायद अभी तक आयी नहीं थी. उसे इस समय उनकी अनुपस्थिति खल रही थी.
"देखिए मालकिन," साहस बटोर कर माधव प्रभा देवी की क्रूरता का विरोध करते हुए बोला -"आप हद से आगे बढ़ रही हैं."
"हें....तू मुझे सेठ द्वारिका दास की बीबी को आंखें दिखा रहा है. रूक मैं अभी तुम्हारी चमड़ी उधेड़ देती हूं." वह हंटर उठाकर माधव पर बरसाना चाह ही रही थी कि संध्या कारीडोर पर से ही चीख पड़ी -
"रुकिए मिसेज प्रभा दास, जिस लड़की की आपको तलाश है वह मैं हूं." उसकी चीख सुनकर प्रभा दास रूक गयी और हैरत से उसकी ओर देखने लगी. संध्या के तेवर देखकर प्रभा देवी की बेटी भी हैरान रह गयी. उधर सेठ द्वारिका दास कातर दृष्टि से संध्या की ओर देखने लगे. उनकी नजरों में याचना छुपी हुई थी. ऐसा लग रहा था जैसे वे आंखों ही आंखों में संध्या से विनती कर रहे हों-"मुझे माफ कर देना बेटी, मैं अपनी इस कर्कशा पत्नी के समक्ष लाचार हूं."
प्रभा देवी और उसकी बेटी को उम्मीद न थी कि यह बाज़ारू युवती इतनी सुन्दर, निर्भीक और तेजतर्रार होगी. कुछ पल के लिए दोनों मां बेटी किंकर्तव्यविमूढ़ की सी हालत में आ गयी. संध्या अपना सीना गर्व से ताने हुई सीढ़ियां उतर कर ठीक प्रभा देवी के सामने आकर खड़ी हो गयी और एकदम शांत भाव से बोली -"मिसेज प्रभा दास आपको जो कुछ भी बोलना हो मुझे बोलिए. इस पूरी घटना में न तो माधव भैया का कोई कसूर है और न ही इस फार्म हाउस के किसी अन्य मजदूर का."
"ओह तो तुम हो." कुछ पल संध्या को प्रज्वलित आंखों से घूरते रहने के पश्चात प्रभा देवी तीखे स्वर में बोल पड़ी -"अपनी जवानी और खुबसूरती का अच्छा जाल बिछाया है तुमने, मगर कान खोलकर सुन ले तू, मेरे रहते तुम्हारी मक्कारी यहां नहीं चलने वाली. फ़ौरन यहां से दफा हो जा, नहीं तो....!" आगे का वाक्य प्रभा देवी पूरी नहीं कर पाई. उसी समय गोपाल और दीपक के साथ प्रभा देवी ने हॉल में कदम रखा था. वे सभी प्रभा देवी को महाचंडी का रूप धारण किये हुई देखकर अचंभित रह गये. शारदा देवी की नजर सोफे पर बैठे हुए सेठ द्वारिका दास जी पर भी पड़ चुकी थी. उन्हें यह देखकर महान आश्चर्य हुआ कि उनके सामने इनकी पत्नी उस संध्या को बेइज्जत कर रही है जिसने अपनी जान हथेली पर लेकर उनके अपने बेटे को नयी जिन्दगी दी थी. वाह ! संध्या के परोपकार का अच्छा सिला दिया है सेठ द्वारिका दास ने. शारदा देवी मन ही मन कुपित हो उठी. उसके मुंह से घुटी हुई सी आवाज निकली -
"भाभी.....!"
"आइए महारानी जी, बस यहां सिर्फ आपकी ही कमी थी. मेरे इस फार्म हाउस को चकला घर बना कर रख दिया तुमने." प्रभा देवी ने शारदा देवी के ऊपर ऐसा अश्लील आरोप लगाया कि वे मर्माहत होकर तड़पने लगी.
"भाभी " उनके मुंह से वेदना सिक्त स्वर निकला -"ये कैसी अशिष्ट बातें निकल रही हैं आपके मुंह से.?"
"अशिष्ट बातें, तुम्हें मेरी बातें अशिष्ट लग रही हैं तो पूछ गंदी नाली की बदबूदार इस छोकड़ी से....यह हरामजादी आखिर है कौन?" प्रभा देवी की ऐसी घिनौनी बातें सुनकर संध्या का धैर्य जबाब दे गया वह गला फाड़कर चीख पड़ी -"मिसेज प्रभा दास, माइंड योर लैंग्वेज."
"अच्छा तो तू अंग्रेजी भी जानती है." संध्या को अंग्रेजी में बातें करते देख प्रभा देवी तिलमिला उठी -"तभी तो तू मेरे पति पर डोरे डालने में कामयाब हो चुकी है." उसका यह अश्लील आरोप सुनकर द्वारिका दास तड़पने लगे और संध्या बेकाबू होकर चीख पड़ी -
"बस बस कर चुड़ैल. तू क्या अपने जैसी गिरी हुई सभी औरतों को समझती है. तू तो औरत के नाम पर कलंक है, कलंक. सौतेली मां बहुत होती है, मगर अपने सौतेले बेटे के जान की दुश्मन बन जाए ऐसी नहीं होती. तुमने सेठ जी के बेटे की जान लेनी चाही, मगर तुझे यह पता नहीं कि राजीव बाबू जिन्दा हैं, और तुम्हारे गुनाहों की सजा, राजीव बाबू तुम्हें अपने ही हाथों से देंगे."
"क्या कहा तुमने, मेरा दुश्मन जिन्दा है.?" ऐसा लगा जैसे प्रभा देवी पर मिर्गी का दौरा पड़ने लगा हो. प्रभा की बेटी सुमन भी इस सच्चाई को जानकर अचंभित रह गयी और सेठ द्वारिका दास को तो ऐसा लगा जैसे उनके शरीर का सारा खून ही किसी ने निचोड़ लिया हो. वे अपने बेटे राजीव की सच्चाई को अभी जग जाहिर होने देना नहीं चाह रहे थे. मगर संध्या ने यह क्या कर दिया ? शारदा देवी, दीपक, शान्ति, माधव तथा वहां उपस्थित सभी नौकर संध्या का ऐसा रौद्र रूप देखकर आश्चर्यचकित थे. सर्वत्र ममता लुटाने वाली और स्नेह सुधा बरसाने वाली देवी क्या चंडिका का रूप भी धारण कर सकती है.
"हां, जिन्दा हैं राजीव बाबू." संध्या अपनी शय में बोलती चली गयी -"सेठ द्वारिका दास जी तुझसे इसलिए डरते हैं कि कहीं तुम, दुबारा इनके बेटे पर अत्याचार न करो. मगर मैं, मैं तुझसे क्यों डरूं? तू दौलतमंद है तो अपने घर की. मुझ पर अपनी दौलत का रौब मत दिखाना नहीं तो मसल कर रख दूंगी समझ गयी न तुम."
"हरामजादी, तू मुझे इस तरह से अपमानित करेगी." प्रभा देवी क्रोध से पागल हो गयी और हंटर उठाकर उसे मारने के लिए लपकी, मगर उसका दांव उल्टा पड़ गया. संध्या उसके हंटर वाले हाथ को पकड़ कर ऐंठती चली गयी.
"खबरदार मिसेज प्रभा दास, मुझ पर हाथ उठाने की गलती मत करना. तू सम्मान पाना चाहती है, अरी घमंडी औरत मान और सम्मान उसे मिलता है जो दूसरों का सम्मान करे. मुंह से जहर उगलने वालों को कभी सम्मान नहीं मिलता."
पीड़ा से तड़पने लगी प्रभा देवी. अपनी मां को बचाने के लिए सुमन आगे बढ़ी तभी संध्या चिल्ला पड़ी -"ऐ नादान लड़की तू बीच में मत आ, नहीं तो अपनी इस मूर्ख मां की जगह तू नाहक में पीट जाएगी. दौलत की भूखी तुम्हारी यह मां खुद की जिन्दगी तो बर्बाद कर ही चुकी है, तुम्हारी जिन्दगी भी बर्बाद कर दी इसने." संध्या ने प्रभा देवी की कलाई छोड़ दी. कुछ देर के लिए वहां तीखी खामोशी छा गयी. प्रभा और उसकी बेटी सुमन खूंखार आंखों से संध्या को घूरने लगी. फिर प्रभा अपने पति सेठ द्वारिका दास पर फट पड़ी -"क्यों जी, यही है तुम्हारी मर्दानगी. तुम्हारी आंखों के सामने दो टके की यह छोकरी मेरी आबरू उतार रही है और तुम चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे हो. इस बाज़ारू छोकड़ी ने तुम्हें अपने रूप के जाल में फंसाकर.....!"
अभी वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी की उसके गाल पर एक जोरदार तमाचा पड़ा. तमाचा मारने वाली थी संध्या. वह अंगार बरसाती आंखों से प्रभा दास को घूरती हुई चीख पड़ी -"हां मैं बाज़ारू हूं. मगर मेरा चरित्र तुझ जैसी खानदानी औरतों से कहीं ज्यादा ऊंचा है. तू अपने और अपनी बेटी के लिबास को देख और मेरे लिबास को देख बता किसके लिबास संस्कारी हैं." कुछ पल के लिए संध्या रूक गयी फिर शान्त स्वर में बोली -"तुम्हारे पति को मैं अपने पिता तुल्य मानती हूं. अपनी क्षुद्र दुर्भावना से ग्रसित होकर पिता और पुत्री के पावन रिश्ते को भी तूने तार तार करके रख दिया. धिक्कार है तुझे. तू यही जानना चाहती है न कि मैं कौन हूं, तू सुन मैं लखनऊ की मशहूर तवायफ गुलाब बाई की बेटी हूं." संध्या के इस रहस्योद्घाटन को सुनकर ऐसा लगा जैसे वहां भूचाल आ गया हो और इस बंगले की दरो-दीवारें भरभराकर वहां के लोगों के ऊपर गिर रही हो. सभी फटी फटी ऑंखों से संध्या को घूरने लगे. पल भर में ही संध्या के प्रति उनके दिलों में जो श्रद्धा, अनुराग, प्रेम और अपनत्व का भाव था सब ध्वस्त हो गया. ओह....! इतना बड़ा छल, ऐसा विश्वासघात. शारदा देवी, शान्ति, कमली, माधव, हरिहरन के साथ साथ दीपक का भी हृदय वितृष्णा से फटने लगा. हाय रे इंसान की नीयती.
पहले तो संध्या इनके इस भाव परिवर्तन पर मन ही मन खूब हंसी, फिर उसके दिल से एक हूक निकली और आंसू बनकर फूट पड़ी. वह धीमी गति से चलती हुई शारदा देवी के सामने आकर खड़ी हो गयी और बेहद करुण स्वर में बोली -"आपलोगों से अपनी सच्चाई छुपाकर जो अपराध...."
"तड़ाक....तड़ाक....!" उसके मासूम गाल पर शारदा देवी चांटा पर चांटा मारती चली गयी. -"इतना बड़ा विश्वासघात किया तूने मेरे साथ दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से." शारदा देवी ने अपनी जिन्दगी में पहली बार ऐसा धोखा खाया था. उनका सर चकराने लगा. अपना माथा थामकर वे सेठ द्वारिका दास के बगल में बैठ गयी. इस समय द्वारिका दास जी पर जो बीत रही थी इसकी फिक्र किसी को भी न थी. भले ही संध्या एक तवायफ की बेटी थी, मगर उनके बेटे राजीव को मौत के मुंह से निकाल कर इस लड़की ने उन पर जो उपकार किया है वह क्या किसी बड़े खानदान की बेटी कर सकती थी. वे बिलख बिलख कर रो रही संध्या की ओर करुणा पूर्ण नेत्रों से देखने लगे. कितने लाचार हैं वे कि अपनी इस दुष्टा पत्नी के अत्याचार का विरोध भी नहीं कर सकते. उनकी आत्मा चीत्कार उठी.
"अब खड़ी खड़ी टेंसू क्या बहा रही है." प्रभा देवी संध्या के सामने आकर नागिन की तरह फू़फकारती हुई बोली -"तू यहां से जाती है कि धक्के देकर.....!"
"इसकी नौबत नहीं आएगी मिसेज प्रभा दास." अपने आंसू पोंछकर कर बेहद सर्द आवाज में बोली संध्या -"मुझे सिर्फ दस मिनट का समय दीजिए, मैं यहां से चली जाऊंगी." इतना कह कर वह सीढ़ियों की ओर मुड़ गयी.
"उधर कहां चली.?" प्रभा देवी चीख पड़ी.
"मैंने आपसे दस मिनट का समय मांगा है मिसेज प्रभा दास, चीखिए मत." संध्या भी उसी के लहजे में चिल्ला कर बोली और उसकी ओर देखे बिना सीढ़ियां चढ़ती चली गयी. वहां खड़े सारे लोगों की निगाहें उसी पर ही टिकी थी और सभी अपने अपने मन में सोच रहे थे -"न जाने वेश्या की यह बेटी अब कौन सा गुल खिलाएगी.?"
ठीक दस मिनट बाद संध्या ऊपर से नीचे आयी. उसके बदले हुए रूप को देखकर सभी चकित रह गये. उसके बदन पर वही फटी पुरानी साड़ी थी, जो पहन कर वह प्रथम बार इस बंगले में लाई गई थी. उसके बाल बिखरे हुए थे, माथे की बिंदिया मिट चुकी थी. हाथ में एक ब्रीफकेस लिये हुई वह सेठजी के सामने आकर खड़ी हो गयी -"बाबू जी, इस ब्रीफकेस में वे दस लाख रूपए सुरक्षित हैं जो आपने राजीव बाबू की देखभाल के लिए भिजवाए थे. हां, इन रुपयों में से कुछ हजार खर्च हुए होंगे." ब्रीफकेस सेठजी के पांव के नीचे रखकर वह अपने दोनों कलाइयों में पहनी हुई कंगना निकाल कर उनकी गोद में रखती हुई बोली -"मैं बदनसीब लड़की हूं बाबूजी, समझ लीजिए एक भिखारिन हूं. किसी भिखारिन के हाथों में इतने महंगें कंगन देखकर तो दुनिया हंसेंगी ही न." सेठ द्वारिका दास लाख कोशिश के बावजूद भी अपने आंसू रोक नहीं पाए. कहीं मुंह से हिचकी न निकल पड़े इसलिए उन्होंने मुंह में रुमाल ठूंस लिया. वह उनके चरण स्पर्श कर के शारदा देवी की ओर मुड़ गयी. -
"बुआ जी, सचमुच मैंने आपके साथ विश्वासघात किया है. मैं वेश्यावृत्ति नहीं करना चाहती थी, इसलिए ही आप लोगों से मुझे झूठ बोलना पड़ा. सोची थी, आपलोगों जैसे दयालु के शरण में आने के बाद मेरी ज़िन्दगी संवर जाएगी, मगर मैं नहीं जानती थी कि यह निष्ठुर समाज सच बर्दाश्त नहीं करता. मैं अपना सबकुछ बदल लूंगी, आचार-विचार, रहन-सहन, हाव-भाव मगर मेरे माथे पर गुलाब बाई की बेटी होने का जो ठप्पा लगा है उसे कैसे मिटा दूंगी. मेरे कारण आपको काफी अपमानित होना पड़ा. मैं आपकी गुनाहगार हूं. माफी मांगने के काबिल तो नहीं हूं, फिर भी मांग रही हूं." वह शारदा देवी के कदमों में झुक गयी. मगर शारदा देवी प्रभा देवी भी अधिक निष्ठुर निकली. उन्होंने असीम घृणा का प्रदर्शन करते हुए अपना मुंह फेर लिया. उनके इस नफ़रत को देखकर संध्या के ओठों पर एक फीकी मुस्कान उभर आई. अब वह शांति, माधव, गोपाल और हरिहरन के सामने खड़ी थी. शान्ति ने ऐसे अपना मुंह फेर लिया जैसे उसकी सूरत से नफ़रत हो गयी हो. फिर भी संध्या जानबूझ कर बोली -"याद है शान्ति तुमने मुझे छोटी बहन कहा था. तुम उस रिश्ते को मानो या ना मानो, मगर मैं आज भी तुम्हें अपनी बड़ी बहन मानती हूं. अपनी सच्चाई छुपाकर कर मैंने जो गलती की है, उसके लिए माफ़ी मांगती हूं."
"हुंह......!" बुआ जी की तरह ही अपना मुंह बिचकाती हुई शान्ति ऐसा प्रदर्शित करने लगी जैसे उसके मुंह पर थूक रही हो. माधव के बगल में ही दीपक खड़ा था. संध्या करुणा पूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखने लगी और उसे कुछ कहना चाह ही रही थी कि वह विषैले स्वर में बोल पड़ा -"खबरदार, मुझसे कुछ मत कहना, तुम इतनी गिरी हुई हो कि......!"
"हां हां कहो, रूक क्यों गये....किसके इज्जत के साथ खिलवाड़ की है मैंने.? क्या किसी रोगी की सेवा करना, उसके मन में जीने की ललक पैदा करना पाप है ? या फिर एक तवायफ की बेटी होना पाप है. दीपक..... आदर्श की डिंगे हांकना बहुत आसान है, परंतु जीवन के कटु सत्य को आत्मसात करना उतना ही कठिन है. खैर जो हुआ सो अच्छा ही हुआ. आपलोगों की भी आंखें खुल गयी और मेरी भी. आप लोगों ने जो प्रेम, स्नेह और अपनापन तवायफ की इस बेटी को दिया है उसे सौगात के रूप में लिए जा रही हूं." दीपक के सामने हटकर वह हॉल के बीचोबीच आकर खड़ी हो गयी. और अंतिम बार सेठ द्वारिका दास जी की ओर देखने लगी. उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी लगी थी. उनकी मनोदशा का अनुमान लगा कर वह तड़प उठी. एकबार फिर उनके समक्ष आकर वह उनके आंसू पोंछती हुई बोली -"मत रोइए बाबू जी. यह दुनिया बड़ी बेरहम है. झूठ की बुनियाद पर टिकी हुई है यह दुनिया. सच का सामना नहीं कर सकती. मेरा क्या है, मैं कल्ह भी एक तवायफ की बेटी थी, आज भी वही हूं. लेकिन मुझे आशंका है कि कहीं एक संभ्रांत परिवार की बेटी के पांव न फिसल जाए....?" संध्या ने जिस ओर इशारा किया था उसे सिर्फ सेठ द्वारिका दास ही समझ पाए और वे कशमशा कर रह गए. उनकी नजरें अपनी अल्ट्रा मॉडर्न बेटी के लिबास पर जाकर स्थिर हो गयी और मुंह से एक सर्द आह निकल पड़ी. संध्या मुड़ कर तेज तेज कदमों से चलती हुई बाहर निकल गयी. इस बंगले से सदा सर्वदा के लिए उसका मोह भंग हो चुका था.∆∆∆∆∆
क्रमशः........!
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