धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)

- राम बाबू नीरव

अयोध्या नरेश महाराज दशरथ

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सरयु नदी के तट पर स्थित अयोध्या नगरी* अपने आप में प्राकृतिक सुषमा को सहेजे हुई एक अलौकिक नगरी थी. ऊंची ऊंची गगनचुंबी अट्टालिकाएं इस नगरी की शोभा में श्रीवृद्धि कर रही थी. यह नगरी आर्यावर्त की प्रतिष्ठित उत्तर कोसल राज्य की राजधानी थी. इस नगरी को अवध और साकेत के नाम से भी जाना जाता था. सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंशजों ने इस प्रतिष्ठित राज्य की स्थापना की थी. इसलिए यहां के राजा सूर्यवंशी कहलाए. इसी सूर्यवंशी यानी इक्ष्वाकु के कुल में एक राजा हुए रघु जो सत्यनिष्ठ, परोपकारी, दानी, प्रजापालक तथा धर्मनिष्ठ थे. राजा रघु के पुत्र  हुए अज. अज भी अपने पिता की तरह ही प्रतापी राजा हुए. राजा अज और उनकी धर्म-परायण पत्नी रानी इंदुमती के पुत्र हुए महाप्रतापी राजा दशरथ. राजा दशरथ के बचपन का नाम नेमी था. बाल्यावस्था से ही नेमी शौर्यवान और धीर-वीर थे. किशोरावस्था में ही नेमी ने अनेकों असुरों को पराजित कर यश प्राप्त किया था. युवावस्था प्राप्त करते करते इनका नाम सम्पूर्ण आर्यावर्त में विख्यात हो गया. देवराज इन्द्र की इन पर विशेष कृपा थी. इनके पराक्रम से प्रसन्न होकर देवताओं ने इन्हें एक दिव्य रथ प्रदान किया था. यह रथ दसों दिशाओं में घूमते हुए शत्रुओं पर प्रहार किया करता था. दसों दिशाओं में घूमने वाले इस दिव्य रथ के स्वामी होने के कारण इनका नाम पड़ा दशरथ. अब अयोध्या के राजकुमार नेमी दशरथ के नाम से विख्यात हुए. यथा समय अयोध्या के राजसिंहासन पर इनका राज्याभिषेक किया गया. जब वे अयोध्या के राजा घोषित किये गये तब तब इन्हें देवताओं के शत्रु असुरों के साथ लम्बी अवधि तक संघर्ष करना पड़ा. 

महाराज अज के समय में ही उत्तर कोसल राज्य के कुलगुरु पद पर महर्षि वशिष्ठ को आसीन किया गया था. महर्षि वशिष्ठ का आश्रम सरयु नदी के तट पर ही था. अपने आश्रम में वे विभिन्न राज्यों के राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे. देवलोक के वाममार्गी ऋषि नारद, जो देवर्षि नारद के नाम से विख्यात थे के साथ उनका अनबन हो गया. देवराज इन्द्र ने देवर्षि नारद जी का पक्ष ले लिया, इससे महर्षि वशिष्ठ ने क्षुब्ध होकर देवलोक का परित्याग कर दिया. पृथ्वी लोक पर आने के बाद भी उन्हें चैन न मिला, यहां भी राजर्षि विश्वामित्र नाम के एक तेजस्वी ऋषि ने उनका सुख-चैन छीन लिया. काफी संघर्ष के पश्चात उन दोनों ऋषियों के बीच सुलह हुआ. तबसे ही उन्होंने शान्ति के लिए अयोध्या का रूख किया और यहां आकर रघुकुल के कुलगुरु पद को सुशोभित करने लगे.

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राजा दशरथ के बचपन के सहपाठी मित्र थे सुमंत. सुमंत बचपन से ही शान्त और सौम्य प्रकृति के थे. उन्होंने नीति शास्त्र तथा राजकाज की शिक्षा प्राप्त की थी. राजा दशरथ ने अयोध्या के राजा बनते ही उन्हें महामंत्री का पद सौंप दिया. सुमंत जी लगन और निष्ठा पूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करने लगे.

राजा दशरथ के शासन काल में अयोध्या नगरी सुखी सम्पन्न और खुशहाल नगरी बन गयी. प्रजा सुखी थी. और अपने राजा के प्रति श्रद्धावान थी. राजा दशरथ ने छोटे छोटे राजाओं और सामंतों को अपने राज्य में मिला कर एक साम्राज्य की स्थापना की और राजा से महाराज बने. अबतक उनका विवाह न हुआ था. वैसे तो अनेकों क्षत्रिय राजा उन्हें अपनी पुत्री देने को लालायित थे, परंतु महाराज दशरथ जैसी राजकुमारी चाह रहे थे, वैसी मिल नहीं पा रही थी. काफी खोज-बीन और जांच-पड़ताल के बाद  उन्हें दक्षिण कोसल राज्य के राजा सुकौशल* की पुत्री राजकुमारी कौशल्या पसंद आयी. एक शुभ मुहूर्त में पूरे राजकीय परंपरा के साथ महाराज दशरथ का विवाह राजकुमारी कौशल्या के साथ सम्पन्न हुआ. राजमहल में आने के बाद राजकुमारी कौशल्या महारानी कौशल्या बन गयी. रानी कौशल्या धर्मपरायण और सदाचारी थी. वे अयोध्या के राजमहल में आने के बाद एकनिष्ठ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करने‌ लगी. विपरित परिस्थितियों में भी वे अपनी मर्यादा और शालिनता को बनाए रखती थी. उनकी यही शालिनता और गरिमा ने एक रानी के रूप में उन्हें महान बना दिया. उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व धैर्य, धर्मपरायण और सदाचार का संगम था. वे एक आदर्श पत्नी के साथ साथ सहृदय और निष्ठावान रानी के रूप में राजमहल में पूज्यणीय बन गयी.

कुछ दिनों पश्चात महारानी कौशल्या ने प्रथम संतान के रूप एक पुत्री को जन्म दिया. पुत्री-रत्न पाकर महाराज दशरथ की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. बड़े ही स्नेह भाव से उन्होंने अपनी पुत्री का नाम रखा शान्ता.  राजकुमारी शान्ता जितनी ही सुन्दर थी उतनी ही चंचल भी. अपनी पुत्री की चंचलता देखकर महाराज दशरथ के साथ साथ महारानी कौशल्या भी मुग्ध हो जाती. महाराज दशरथ के प्राण तो जैसे उनकी पुत्री में बस गयी थी. वे सोते जागते शान्ता शान्ता का ही रट लगाया करते. यदि कुछ देर के लिए भी शान्ता उनकी आंखों से ओझल हो जाती तब वे बेचैन हो जाते. कमोवेश यही हाल उनकी धर्मपत्नी महारानी कौशल्या का भी था.

*रानी वर्षिणी और राजा रोमपाद*

महारानी कौशल्या की एक छोटी बहन थी, जिनका नाम था वर्षिणी. वे अंग देश के राजा रोमपाद* से व्याही गयी थी. यानी महाराज दशरथ और राजा रोमपाद आपस में साढ़ू भाई थे. रानी वर्षिणी अब तक नि: संतान थी. इस कारण वे दोनों पति-पत्नी काफी दुखी रहा करते थे. एक दिन राजा रोमपाद अपनी पत्नी रानी वर्षिणी के साथ अयोध्या पधारे. अयोध्या के राजमहल में उनका भव्य स्वागत हुआ. रानी वर्षिणी तथा राजा रोमपाद को देखकर महारानी कौशल्या तो फुली न समायी. महाराज दशरथ को भी हार्दिक प्रसन्नता हुई. उस समय राजकुमारी शान्ता मात्र दो वर्ष की अबोध बालिका थी. रानी वर्षिणी शान्ता के साथ काफी घुल-मिल गयी. शान्ता की चंचलता और बालसुलभ क्रियाकलाप उनके मनोमस्तिष्क पर इस कदर छा गयी कि अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मन ही  मन शान्ता को अपनी पुत्री मान बैठी. फिर तो अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा "दीदी शान्ता ने मेरा मन मोह लिया है, इसलिए अपनी यह पुत्री मुझे देदो." उस समय महाराज दशरथ एवं राजा रोमपाद भी वहीं बैठे थे. रानी वर्षिणी के मुंह से निकली इस बात को सुनकर वे दोनों अचंभित रह गये. महाराज दशरथ की अवस्था तो बिल्कुल असहज जैसी हो गयी. उनकी समझ में न आया कि यह क्या हो गया.? उधर राजा रोमपाद के मन में भी उथल-पुथल होने लगा, रानी वर्षिणी ने यह क्या कह दिया.? शान्ता महाराज दशरथ और रानी वर्षिणी की एकमात्र संतान है, भला ये लोग अपनी एकमात्र संतान कैसे दे सकते हैं.? उन दोनों ने समझा महारानी कौशल्या अपनी बहन को मना कर देंगी, परंतु उस समय उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब महारानी कौशल्या ने अपनी छोटी बहन की गोद में रखती हुई मृदुल स्वर में बोली -"लो बहन मेरी पुत्री आज से तुम्हारी पुत्री हो गयी." ऐसा करते समय महारानी के मुखड़े पर रत्ती भर भी क्लेश का भाव न था. बल्कि उनके मुखमंडल पर उनकी उदारता, सहृदयता और अपनी छोटी बहन के प्रति असीम प्रेम और अनुराग का भाव झलक रहा था. प्रत्यक्ष में महाराज दशरथ तो प्रसन्न दिख रहे थे, परंतु उनका हृदय हाहाकार करने लगा. अपनी पुत्री के बिना वे कैसे रहेंगे? मगर उनकी पत्नी ने तो अपना धर्म निभा दिया था, वे उन्हें कैसे रोकते. शान्ता को पुत्री रूप में पाकर रानी वर्षिणी तो जैसे निहाल हो गयी. उन्होंने शान्ता को अपनी छाती से लगाकर आंचल में ऐसे छुपा लिया कि कहीं दीदी अपनी बेटी पुनः छीन न लें."

अपना मान रखने के लिए महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी का आभार व्यक्त करते हुए कहा -

"महारानी मुझे आपसे ऐसे ही उदारता की अपेक्षा."

"महाराज." कौशल्या गर्वित भाव से बोली बोली - "मैं रघुकुल की बहू हूं. इस कुल की मान, मर्यादा और धर्म की रक्षा करने का कुछ तो दायित्व हमारा भी बनता है. मेरी छोटी बहन वर्षिणी ने जीवन में प्रथम बार मुझसे कुछ मांगा, यदि न देती तो इसका हृदय आहत हो जाता. तब तो मुझे भी दुःख होता और आपको भी."

"दीदी, तुम महान हो. इतना बड़ा त्याग हर स्त्री नहीं कर सकती." वर्षिणी महारानी कौशल्या के चरणों में झुक गयी. महारानी ने अपनी बहन को उठाकर छाती से लगा लिया. उन दोनों बहनों के प्रेम को देखकर महाराज दशरथ के साथ साथ राजा रोमपाद की भी आंखें छलछला पड़ी.

                    *****

कई वर्ष बीत गये परंतु महारानी कौशल्या दुबारा मां न बन सकी. पूजा-पाठ हुए, होम-जाप हुए. अनेकों देवी-देवताओं की मन्नतें मांगी गयी परंतु सब व्यर्थ हो गया. अब राजा-रानी दोनों ही निराश हो गये. अवध नरेश महाराज दशरथ की व्यथा महामंत्री सुमंत जी से छुपी न रह सकी. वे सिर्फ उत्तर कोसल राज्य के महामंत्री ही नहीं थे, बल्कि महाराज दशरथ के हितैषी और परमप्रिय मित्र भी थे. अपने मित्र तथा महारानी कौशल्या की व्यथा से वे भी व्यथित हो गये. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस विकट समस्या का निदान कैसे हो.? सुमंत जी गुप्त रूप से रघुकुल के कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से मिले और इस विषय पर उनसे काफी देर तक मंत्रणा की. फिर वे महारानी कौशल्या से मिले और उनसे भी मंत्रणा की. उन्होंने जो सुझाव महारानी को दिया उससे वे संतुष्ट हो गयी.

                       *****

एक दिन महारानी महाराज के निजी कक्ष में आयीं. अचानक अपने कक्ष में महारानी कौशल्या को देखकर वे चौंक पड़े -

"महारानी, इस समय आप मेरे कक्ष..... सब कुशल तो है.?"

"नहीं स्वामी कुछ भी कुशल नहीं है.!" वेदनासिक्त स्वर में बोली महारानी.

"क्या आपको कोई कष्ट है?" महाराज दशरथ घबरा गये.

" स्वामी, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि दूसरी बार मां बनना मेरे भाग्य में नहीं है. इस रघुकुल की वंश परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए एक संतान तो चाहिए न!" महारानी की पीड़ा जानकर महाराज दशरथ की सुप्त पड़ी वेदना मुख्य हो गयी. उनके मुखड़े पर विषाद की कालिमा जा गयी. पीड़ा को दबाने का प्रयत्न करते हुए वे बोले -

"दुःख तो मुझे भी हो‌ रहा है महारानी परंतु प्रारब्ध के समक्ष हम सभी विवश हैं."

"यह ठीक है कि प्रारब्ध प्रबल होता है, परंतु हमें प्रयत्न तो करना चाहिए न. मेरी विनती स्वीकार कीजिए नाथ और किसी उच्च राजघराने की राजकुमारी से दूसरा विवाह रचा लीजिए."

"नहीं.... नहीं, मुझसे ऐसा अधर्म नहीं होगा. आप जैसी सुलक्षणा पत्नी के होते मैं दूसरी रानी लाऊं ? ओह असंभव. किसी भी परिस्थिति में मैं ऐसा अधर्म नहीं करूंगा." महाराज दशरथ का निर्णय सुनकर महारानी 

कौशल्या की आंखों से आंसू बहने लगे. वे सुबकती हुई बोली -

"अयोध्या के राजमहल में जो भी हो रहा है, यह सब मेरे कारण ही हो रहा है. परंतु मैं क्या जानती थी कि मुझे दूसरी संतान न होगी. जो मैं यह जानती तो अपनी पुत्री शान्ता को वर्षिणी की गोद में न डालती. कमसे कम हमारी पुत्री तो हमारी आंखों के सामने रहती."

"यह आप क्या कह रही हैं. कोई वस्तु दान देने के बाद ऐसा नहीं कहा जाता, चाहे वह वस्तु संतान ही क्यों ‌न हो. आपको तो प्रसन्न होना चाहिए कि हमारी पुत्री राजकुमारी शान्ता अंगदेश के राजमहल में राजसी जीवन व्यतीत कर रही है." 

"क्षमा करें देव, वेदना की अधिकता के कारण मेरे मुंह से ऐसी बात निकल गयी. अब आप ही बताइए कि इस समस्या का निदान कैसे होगा. रघुकुल की वंश परंपरा कैसे चलेगी.?"

महारानी कौशल्या के इस जटिल प्रश्न को सुनकर महाराज दशरथ कुछ पल के लिए मौन हो गये, फिर उन्होंने कहा -

"मैं अपने प्रिय मित्र महामंत्री सुमंत जी तथा कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ जी से परामर्श करके कोई मार्ग निकालता हूं."

"मेरी धृष्टता क्षमा करें देव. मैंने उन दोनों महानुभावों से विचार-विमर्श कर लिया है."

"क्या." महाराज स्तब्ध रह गये.

"क्या ऐसा करना अपराध है स्वामी.?"

"नहीं, यह अपराध नहीं, बल्कि अयोध्या की महारानी होने के नाते ऐसा करना आपका अधिकार है." महाराज अपनी पत्नी को आश्वस्त करते हुए बोले -"अपने कुल के हित और मान-मर्यादा की जितनी चिन्ता राजा को होनी चाहिए उतनी ही  रानी को भी. किसी प्रतिष्ठित राजघराने की रानी का धर्म भी यही है."

"मुझे आपसे यही अपेक्षा थी स्वामी." महारानी कौशल्या उत्फुल्लित भाव से अपने पति देव के चरणों में झुक गई.

              *****

*रानी सुमित्रा*

  महाराज दशरथ ने अपनी रानी कौशल्या के अनुरोध तथा कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ एवं महामंत्री सुमंत की सलाह पर काशी नरेश की सुपुत्री राजकुमारी सुमित्रा के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंध गये. अयोध्या के राजमहल में महारानी कौशल्या ने रानी सुमित्रा का ठीक अपनी छोटी बहन की तरह स्वागत किया. सुमित्रा में राजकन्या के साथ साथ एक आदर्श नारी के समस्त गुण थे. राजमहल में आते ही रानी सुमित्रा महारानी कौशल्या को अपनी बड़ी बहन मानकर, उनकी छत्रछाया में रहती हुई उनकी सेवा करना अपना धर्म समझा. अपने नाम "सु-मित्र" के अनुरूप वे राजमहल के सभी छोटे-बड़ों की मित्र थी. वे मृदुल स्वभाव की थी. वे राग-द्वेष और प्रतिस्पर्धा जैसी दुर्भावना से परे थी. अपने इन्हीं सद्गुणों के कारण वे महल में सबों के साथ सामंजस्य बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही. उन्होंने अपने मृदुल व्यवहार एवं सात्विक प्रेम से महारानी कौशल्या एवं महाराज दशरथ के साथ साथ समस्त अयोध्या वासियों का दिल जीत लिया. परिणाम यह हुआ कि महाराज अपनी दूसरी रानी से बेहद प्रेम करने लगे. हंसी खुशी के साथ दिन बीतने लगे. महल में सुख और शांति थी, परंतु जिस उद्देश्य के लिए महाराज दशरथ ने दूसरा विवाह किया था उस उद्देश्य की पूर्ति न हो पाई. अर्थात रानी सुमित्रा भी उत्तर कोसल राज्य को उत्तराधिकारी दे पाने में अक्षम सिद्ध हुई. अब महाराज दशरथ के साथ साथ दोनों रानियों की भी यही दुश्चिंता थी कि रघुकुल का क्या होगा.? महाराज दशरथ जब एकांत में होते तब उनका क्लेश इतना बढ़ जाता कि वे अपने पूर्वजों को स्मरण कर उनसे क्षमा याचना करते हुए बड़बड़ाने लगते -"हे रघुकुल के महान विभूतियों मुझे ‌क्षमा करें. मैं आप लोगों की वंश परंपरा को आगे बढ़ा पाने में अक्षम सिद्ध हो रहा हूं. मेरी सारी युक्तियां असफल हो गयी. अब मैं क्या करूं?" उनकी आंखों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी. तभी आहट पाकर वे‌ चौंक पड़े और‌ अपने आंसू पोंछ कर द्वार की ओर देखने लगे. महारानी कौशल्या और रानी सुमित्रा ने उनके कक्ष में कदम रखा था. उनकी हालत देखकर दोनों रानियां समझ गयी कि एकांत में महाराज की पीड़ा मुखर हो गयी है. महारानी कौशल्या उनके समक्ष आकर उन्हें सांत्वना देती हुई बोली -"स्वामी, जब आप ही टूट जाएंगे तब हम सबों का क्या होगा?"

फिर रानी सुमित्रा उनके चरणों में बैठकर अपनी अन्तर्वेदना व्यक्त करती हुई बोली -"मुझे क्षमा करें नाथ, मैं भी प्रतापी रघुकुल की वंश परंपरा को आगे न बढ़ा पाई."

"नहीं सुमित्रे ऐसा न कहो. इसमें आप दोनों रानियों का कोई दोष नहीं है. संभवतः मेरे भाग्य में ही संतान सुख नहीं लिखा है."

"आर्यश्रेष्ठ, हम-दोनों बहने आपसे एक विनती करने आयी हैं." कुछ पल मौन रहने के पश्चात महारानी कौशल्या बोली.

"विनती, कैसी विनती?" महाराज चौंक पड़े.

"रघुकुल की वंश परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए आपको तीसरा विवाह करना होगा." 

"नहीं महारानी, अब मुझसे ऐसा न होगा." महाराज ने उनकी विनती को साफ साफ अस्वीकार कर दिया. 

"क्यों न होगा?" महारानी कौशल्या तुनक पड़ी.

"महारानी मेरी आयु धीरे-धीरे ढ़ल रही है. ऐसी अवस्था में भला कौन युवती मुझे पति रूप में  स्वीकार करेगी.?"

"इसकी चिंता आप न करे स्वामी." महारानी धीर-गंभीर स्वर में बोली. - "पूर्व की भांति इस बार भी मैंने आप से पूछे बिना गुरुदेव महर्षि वशिष्ठ जी तथा महामंत्री सुमंत जी से वार्ता कर ली है. सुमंत जी ने बताया है कि कैकेय देश* के राजा अश्वपति जी आपके मित्र हैं "

"हां, कैकेय देश के राजा मेरे मित्र हैं, तो?"

"महाराज अश्वपति की एक पुत्री है राजकुमारी कैकेई. वे अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ करने को राजी हो चुके हैं."

"क्या.....?" महाराज कौशल्या की बात सुनकर स्तब्ध रह गये. 

"हां स्वामी, अब सिर्फ आपकी स्वीकृति चाहिए." महारानी कौशल्या अति उत्साहित होती हुई बोली और रानी सुमित्रा उत्सुक नेत्रों से महाराज की ओर देखने लगी. महाराज कुछ देर मौन रहे फिर अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए बोले -

"जब आप लोगों ने सबकुछ तय कर ही रखा है तब भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है."

महाराज की स्वीकृति पाकर दोनों रानियों की आंखें चमक उठी और मुखमंडल दमकने लगा.

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क्रमशः.........!

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*कुछ ग्रंथों में महारानी कौशल्या के पिता का नाम भानुमान् भी देखने को मिलता है.

*ये लोमपाद तथा चित्ररथ के नाम से भी जाने जाते थे. वर्तमान बिहार राज्य का भागलपुर जिला तथा इसके आसपास का क्षेत्र उस काल में अंग देश था. जिसकी राजधानी चम्पापुरी थी. महाभारत काल में यहां के राजा कुंती पुत्र कर्ण थे.

*किसी-किसी पुराण तथा रामायण में रानी सुमित्रा को मगध देश की राजकुमारी बताया गया है.

*कैकेय देश प्राचीन काल में संयुक्त पंजाब  (वर्तमान में पाकिस्तान का एक प्रांत) में स्थित  था. इसमें झेलम, शाहपुरा और‌ गुजरात के जिले शामिल थे. माना जाता है कि पंजाब के उत्तर पश्चिम में गांधार (अफगानिस्तान) के पास व्यास नदी के तट पर कैकेय देश अवस्थित था. जहां की राजकुमारी कैकेई महाराज दशरथ की तीसरी रानी बनी.

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