धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)

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-रामबाबू नीरव 

लंकेश रावण

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कुछ दिनों पश्चात सुमाली ने ही रावण से कहा -

"प्रिय दौहित्र रावण, अब समय आ गया है अपनी स्वर्ण नगरी लंका को हस्तगत करने का. बोलो, लंका पर आक्रमण कब करोगे.?"

"नानाश्री, किसी भी राज्य पर आक्रमण करने से पूर्व संधि वार्ता हेतु दूत भेजना आवश्यक होता है. इसलिए मेरी सम्मति है कि कोई भी अंतिम निर्णय लेने से पूर्व एक दूत को लंका भेजा जाए." वहां सुमाली का पुत्र यानी रावण का मामा प्रहस्त भी बैठा था, वह अति उत्साहित होते हुए बोल पड़ा -

"भांजे, क्या मैं दूत बनकर लंका जा सकता हूं?"

"हां हां क्यों नहीं जा सकते मामाश्री. जाइए आप लंका जाने की तैयारी कीजिए और नानाश्री आप सारे राक्षसों को संगठित कीजिए. राक्षसों के जितने भी सेना नायक हैं, उनसे कहिए वे सभी अपने सैनिकों को युद्ध कौशल का अभ्यास करना आरंभ करवा दें."

"जो आज्ञा रक्षपति रावण." सुमाली ठीक इस भांति सर झुकाकर बोला जैसे रावण लंका का अधिपति बन चुका हो और वह लंका का महामंत्री." 

सुमाली के साथ साथ प्रहस्त भी कक्ष से बाहर निकल गया. अकेला बैठा रावण सोचने लगा -"क्या मेरा सौतेला भाई कुबेर स्वेच्छा से लंका और अपना पुष्पक विमान मुझे सौंप देगा.?" उसके दिल के ही किसी कोने से आवाज आयी, नहीं कदापि नहीं सौंपेगा."

"तब तो युद्ध अवश्यंभावी है."

दिल के दूसरे कोने से आवाज आई. इसके साथ ही रावण का मुखड़ा अंगार की तरह दहकने लगा.

                    *****

    रक्षपति रावण का दूत बनकर जब प्रहस्त लंका पहुंचा तब स्वर्णपुरी लंका की भव्यता देखकर उसकी आंखें चौंधिया गई. लंका  अपने ढ़ंग की निराली नगरी थी. उस नगरी में कितना सौंदर्य भरा था और कितनी कुत्सा भरी थी इसका अंदाजा लगा पाना कठिन था. वहां के वन और उपवन रमणीय थे. जो चम्पा, चमेली, अशोक, मौलसिरी, ताल, हिम्ताल, नागकेसर, अर्जुन, कदम्ब, तिलक और कर्णिका आदि पुष्पों तथा फलों के पेड़-पौधों और लताओं से आच्छादित थे. कुबेर का चैत्ररथ नामक विहार तो इतना मनोहारी था कि उसका वर्णन कर पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव था. पपिहा, कोकिल और नाचते हुए मोर के मधुर कलरव से वह उपवन गुंजायमान हो रहा था. लंका के त्रिकूट पर्वत का विस्तार लगभग सौ योजन था. 

लंका के मुख्य नगर द्वार पर लोहे के‌ विशाल और मजबूत दरवाजे लगे थे. उस दरवाजे पर हाथों में भाले लिए कई वलिष्ठ द्वारपाल खड़े थे. ये द्वारपाल यक्ष नहीं राक्षस थे. ये राक्षस उन्हीं राक्षसों के वंशज थे, जो लंका से पलायन करने के बाद भी यहां रह गये थे. यानी ये राक्षस सुमाली के ही बन्धु-बांधव थे. जो अभी धनेश कुबेर के दास बने हुए थे. द्वार के कपाटों में मोटी मोटी अर्गलाएं लगी थी. नगर के परकोटे के भीतर स्वर्ण पत्तियों से भव्य, दिव्य और सुन्दर-सुन्दर आकृतियां बनी थी. उन आकृतियों के बीच-बीच में मणि-मूंगा जड़ें थे. परकोटे के चारों ओर विशाल खाई बनी थी, जिसमें लबालब पानी भरा था. उस खाई पर द्वार तक विशाल फलक मार्ग थे, जिसमें दुर्भेद, सुदृढ़ यंत्र लगे थे. प्राचीरों पर अत्यंत ही शक्तिशाली योद्धा हाथों में अस्त्र लिए नगर की चौकसी कर रहे थे. इन सैनिकों में भी राक्षस, दैत्य, दानव और‌ यक्ष सभी  जातियों के योद्धा थे. लग रहा था जैसे इन असुरों ने स्वेच्छा से कुबेर की अधीनता  स्वीकार कर ली थी. स्वर्णनगरी लंका ‌की ऐसी सुरक्षा व्यवस्था ‌देखकर रक्षपति रावण का दूत प्रहस्त सोचने लगा -"इस अभेद्य और पूर्णरूपेण सुरक्षित  लंकापुरी पर आक्रमण करने का दुस्साहस भला कौन करेगा?"

 लंका के चारों ओर समुद्र, खाई, वन तथा दुर्भेद प्राचीर थे. विशाल चतुष्पदों अश्वों, रथों तथा गजों पर आरुढ़ होकर योद्धा तथा नगरवासी मणि, माणिक्य एवं मुक्ता से सज्जित होकर निर्भय आ जा रहे थे. नगर के इस अलौकिक वैभव को देखकर प्रहस्त विमूढ़ सा खड़ा रह गया. चैतन्य होने के पश्चात जब वह राजमहल के समक्ष पहुंचा तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा - वहां के स्तंभ कुंदन के बने थे. ऊपर जाने के लिए स्फटिक मणि की रत्न जड़ित सीढ़ियां बनी थी. ठौर ठौर पर यज्ञ शालाएं एवं वेदियां शोभायमान थी. भव्य प्रसाद मदरांचल की भांति विशाल था. साहस बटोर कर प्रहस्त प्रासाद के अंदर प्रविष्ट हुआ. परंतु आश्चर्य, द्वार पर उसे किसी ने भी नहीं रोका. वह निर्भीक सात कक्षों को पार करता हुआ, आगे की ओर बढ़ता चला गया. आठवें कक्ष में पहुंचने पर उसने देखा - एक विशालकाय पुरुष गले में स्वर्णमाल पहने हुए तथा हाथ में स्वर्ण निर्मित मुग्दर पकड़े हुए स्वर्ण सिंहासन पर बैठा हुआ था. उसका रंग गोरा था. मुखड़े पर अलौकिक आभा थी और आंखों में अद्भुत चमक थी. कुछ पल के लिए प्रहस्त उस दिव्य पुरुष की तेजस्विता को देखकर कांप गया. फिर उसने स्वयं को संयत किया. तभी उस विराट पुरुष की आवाज उस विशाल कक्ष में गूंज उठी - "आप कौन हैं भद्र पुरुष और धनेश कुबेर के आवास में आने का आपका क्या प्रयोजन है.?"

"मैं असुरों के नायक महामहिम सुमाली का पुत्र प्रहस्त हूं. मैं आपके श्रीचरणों में सादर नमन निवेदित करता हूं." रक्षपति रावण का दूत प्रहस्त लंकापति कुबेर के समक्ष नतमस्तक हो गया.

"कौन सुमाली.?" कुबेर ने चौंकते हुए पूछा.

"आंध्रालय के दैत्यों के नायक सुमाली. जो आपके अनुज ऋषि विश्रवा के पुत्र रावण के नाना हैं. मैं उन्हीं शक्तिशाली सुमाली का पुत्र प्रहस्त हूं."

"ओहो.....तो आप मेरे अनुज रावण के मामाश्री हैं." धनेश कुबेर प्रसन्न होते हुए बोले और प्रहस्त के सम्मान में सिंहासन पर से उठकर खड़े हो गये -"तब तो आप भी मेरे मामाश्री हुए. आइए और आसन ग्रहण कीजिए."

"अभी आसन्न रहने दीजिए धनेश कुबेर." प्रहस्त रुखे स्वर में बोला -"पहले मेरे यहां आने का प्रयोजन जान लीजिए. -"मेरे भांजे, जो अब समस्त राक्षसों का महानायक है यानी रक्षपति रावण है, ने कहलवाया है कि यह स्वर्णनगरी लंका हमारे नानाश्री सुमाली के पूर्वजों की है, जिसे  यक्षपति कुबेर ने छल से अपने अधिकार में ले रखा है. अतः आप स्वेच्छा से हमारी लंका हमें सौंप दें, अन्यथा हमें बल प्रयोग करना पड़ सकता है."

"आ.... हा.... हा... हा." शान्त दिखने वाले कुबेर का विकट अट्टहास उस कक्ष में गूंज उठा. उनके अट्टहास  से कक्ष की दीवारें तक हिलने लगी. -"मामाश्री, रावण मेरा अनुज है. भले ही हमारी माताएं दो हैं, परंतु पिता तो एक ही हैं. यदि वह लंका में ‌रहना चाहता है तो सपरिवार उसका यहां स्वागत है. परंतु यदि वह बल प्रयोग की इच्छा रखता है तो उसे जाकर कह दीजिए -  वह रक्षपति है तो कुबेर भी यक्षपति है. मैं उससे न तो शक्ति में और न ही वैभव में कमजोर हूं. "

"इतना अभिमान, तब तो युद्ध अवश्यंभावी है यक्षपति कुबेर." प्रहस्त की भंगिमा टेढ़ी हो गयी.

"होनी को कोई रोक नहीं सकता मामाश्री. रावण से जाकर यह भी कह दीजिए कि हम युद्ध के लिए भी तैयार हैं." कुबेर हाथ में लिये हुए मुग्दर को इस तरह हवा ‌में लहराने लगे मानो युद्ध का उद्घोष कर रहे हों. 

"तब तो रक्षपति रावण से तुम्हारी पराजय भी अवश्यंभावी है." प्रहस्त पलट गया और क्रोध से कांपते हुए कक्ष से बाहर निकल गया. कुबेर प्रज्वलित आंखों से जाते हुए प्रहस्त को देखते रह गये. उनकी इच्छा हुई कि इस राक्षस को बंदी बना लिया जाए, परंतु उन्होंने मर्यादा का पालन किया.

                       *****

   काफी दिन बीत गये, लंका से प्रहस्त अब तक लौटे न थे. सुमाली और रावण की चिंता बढ़ गयी. कहीं दुष्ट कुबेर ने प्रहस्त को बंदी तो नहीं बना लिया? परन्तु सुमाली और रावण की यह दुश्चिंता निर्मूल साबित हुई. दूसरे दिन ही प्रहस्त उन दोनों के समक्ष था. उसके मुखड़े पर छाई हुई कालिमा को देखते ही रावण समझ गया कि कुबेर ने लंका को वापस देने से अस्वीकार कर दिया होगा.

"क्या हुआ मामाश्री?" फिर भी संतुष्टि के लिए रावण ने पूछा लिया.

"कुबेर अहंकारी हैं भांजे, उसने हमारी लंका वापस करने से इंकार कर दिया."

"हुंह....!" रावण की भृकुटी तन गयी. उसके हुंकार से दसों दिशाएं गूंज उठी. 

"सावधान कुबेर! तुमने हमारी लंका स्वेच्छा से न सौंपकर बहुत भारी गलती कर‌ दी. तुम्हें अपने छोटे भाई रावण की शक्ति का शायद अंदाजा नहीं है. रावण बड़े बड़े योद्धाओं को धूल चटाने के बाद ही आज रक्षपति बना है. अब रावण लंका को जीतकर सम्पूर्ण धरा का स्वामी बनेगा." फिर वह अपने मामा प्रहस्त की ओर देखते हुए बोला -"मामाश्री, जाइए लंका पर चढ़ाई करने की तैयारी आरंभ कीजिए. इस युद्ध की पूरी जिम्मेदारी मय दानव के दोनों पुत्रों मायावी और दुंदुभी को सौंप दीजिए." 

"जो आज्ञा रक्षपति." प्रहस्त वहां से चला गया. 

अब रावण का अहंकार उसके सर पर चढ़कर बोलने लगा. उसने आदि देव शिवशंकर तथा ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करके अजेय होने का वरदान लिया. साथ ही अनेकानेक दिव्यास्त्र भी प्राप्त कर लिया. इतनी सारी शक्तियां प्राप्त करने के पश्चात वह अहंकारी हो गया. अपने अभिमान में चूर होकर वह देव, दानव, दैत्य, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, नाग तथा आर्यावर्त के मूलवासियों को अपना दास बनाकर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप पर एक छत्र शासन करने का स्वप्न देखने लगा. सर्वप्रथम लंका पर आक्रमण करने के लिए उसने समस्त असुरों को संगठित किया और लंका की ओर कूच कर गया. असुरों की वह विशाल सेना "दशानन* रावण की जय" का उद्घोष करती हुई उन्मुक्त भाव से लंका की ओर बढ़ती जा रही थी. 

        उधर यक्षपति कुबेर भी चुप न बैठे थे.

उन्होंने भी यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि की एक विशाल सेना तैयार कर ली थी. अपनी विशाल सेना को रावण की रक्ष सेना से मुकाबला करने हेतु उन्होंने सागर तट पर तैनात कर दिया था. कुबेर की यह सेना पूरे उत्साह के साथ "यक्षपति कुबेर की जय" का उद्घोष कर रही थी.

रावण की सेना यंत्र चलित बड़ी बड़ी नौकाओं* में सवार होकर लंका के समुद्री तट पर उतरने लगी. अब रक्ष सेना और यक्ष सेना आमने-सामने थी. राक्षसों और यक्षों के बीच होने वाला यह युद्ध अद्भुत और विकट था. जहां कुबेर की यक्ष सेना अपने शारीरिक बल और बुद्धि विवेक से लड़ रही थी वहीं रावण की रक्ष सेना छल, बल और अपनी मायावी शक्ति का प्रदर्शन करती हुई लड़ रही थी. जहां यक्ष सेना का ने‌तृत्व स्वयं धनेश कुबेर कर रहे थे, वहीं रक्षसेना का नेतृत्व रक्षपति रावण कर रहा था. मय दानव के दोनों पुत्रों मायावी और दुंदुभी की मायावी शक्तियों के समक्ष यक्ष सेना टिक नहीं पा रही थी. एक क्षण ऐसा भी आया जब रक्षपति रावण अपनी विशाल गदा से कुबेर का मस्तक चूर चूर कर देता, परंतु तत्क्षण ही कुबेर ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली. रावण ने यक्षपति को प्राण दान दिया.

अब रावण स्वर्णपुरी लंका के साथ साथ पुष्पक विमान का भी स्वामी बन चुका था. लंका के राजसिंहासन पर रावण का हर्षोल्लास के साथ राज्याभिषेक किया गया. वह अब रक्षपति  के साथ साथ लंका पति भी बन चुका था. सुमाली के वर्षों का चिरसंचित स्वप्न साकार हुआ. लंकापति रावण ने अपने नाना सुमाली, मामा प्रहस्त, अनुज विभीषण को मंत्रीमंडल में सर्वोच्च स्थान दिया वहीं मय दानव के दोनों पुत्रों मायावी तथा दुंदुभी को प्रधान सेनापति नियुक्त किया. लंका के राजमहल की पट्टरानी मंदोदरी बनी और दूसरी रानी बनी दम्यमालिनी.

                  ******

रावण से पराजित हो जाने के पश्चात धनपति कुबेर थका हारा सा अपने इष्ट देव भगवान भोलेनाथ की शरण में आया और उन्हें अपनी पूरी आप बीती सुनाई. भगवान भोलेनाथ क्या करते....? रावण भी तो उनका भक्त ही था. हां, उन्होंने इतना किया कि भगवान विश्वकर्मा से कहकर कैलाश पर्वत पर ही एक भव्य नगर का निर्माण करवाया. वह नगरी स्वर्णनगरी लंका और देवराज इन्द्र के इन्द्रलोक से भी अधिक सुन्दर और अलौकिक थी. कुबेर की उस नगरी का नाम पड़ा -"अलकापुरी". अलकापुरी के निकट ही सुन्दरवन का निर्माण किया गया. वह वन इतना  रमणिक था कि देवताओं के लिए विहार स्थली बन गया. 

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क्रमशः.........!

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*बाल्मीकि रामायण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, रामचरित मानस आदि के अनुसार रावण के दस सिर तथा बीस भुजाएं थीं. परंतु कुछ विद्वानों तथा इतिहासकारों ने इस मिथक को नकार दिया है. उन विद्वानों के अनुसार रावण की मानसिक शक्ति एक औसत आदमी की मानसिक शक्ति से दस गुना अधिक थी. इसलिए उसे दशानन कहा गया. वहीं कुछ‌ विद्वानों का मानना है कि रावण के दस सिर उसकी दस तरह की विद्वता, यथा - चार वेद और छः शास्त्रों के ज्ञान के प्रतिक हैं. कुछ लोगों ‌का यह भी मानना है कि रावण के दस सिर उसके अंदर‌ के दस बुराइयों - काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, निर्बुद्धि, चित और अहंकार के द्योतक हैं. रावण का सबसे बड़ा दुर्गुण उसका अंहकार ही था. इसके अतिरिक्त काम (वासना) की प्रचूरता भी उसके साथ साथ अन्य सभी राक्षसों के‌ विनाश का कारण बन गया.

*यंत्र चलित नौका यानी आधुनिक जहाज. इस तरह के यंत्र चलित नौकाओं का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी देखने को मिलता है. पांचजन्य राक्षस, जोकि एक समुद्री लुटेरा था, के पास भी इस तरह की यंत्र चलित नौकाएं थी. उसी पांचजन्य से श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख छीना था.

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