हरियाणा के सरकारी स्कूलों में 12,000 से अधिक शिक्षक पद रिक्त हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। नूंह जैसे जिलों में एक शिक्षक पर 100 से अधिक बच्चों का बोझ है। सरकार की धीमी भर्ती प्रक्रिया और असमान पदस्थापन इस संकट को गहरा कर रहे हैं। शिक्षा नीति 2020 के अनुसार हर बच्चे को समान व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार है। इसके लिए सरकार को त्वरित, पारदर्शी और स्थायी भर्ती नीति लागू करनी चाहिए ताकि हर कक्षा में शिक्षक और हर बच्चे के जीवन में ज्ञान का उजाला हो।
हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था इस समय एक गहरे संकट से गुजर रही है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी ने न केवल पढ़ाई की गुणवत्ता को प्रभावित किया है, बल्कि बच्चों के भविष्य पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। हाल ही में आई रिपोर्टों के अनुसार प्रदेश में 12,000 से अधिक शिक्षक पद रिक्त हैं। यह संख्या केवल एक प्रशासनिक आँकड़ा नहीं, बल्कि उन हजारों बच्चों की उम्मीदों का प्रतीक है जो अपने जीवन की दिशा तय करने के लिए इन स्कूलों पर निर्भर हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि कुछ जिलों में एक-एक शिक्षक पर 100 से अधिक बच्चों की जिम्मेदारी आ चुकी है।
हरियाणा जैसे शिक्षित और विकसित राज्य में यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। एक ओर सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लक्ष्य पूरे करने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर स्कूलों में ब्लैकबोर्ड तक खाली हैं। शिक्षक समाज की नींव होते हैं, वे केवल पढ़ाई नहीं कराते बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। जब इन स्कूलों में गुरुजी ही न हों, तो बच्चों का मनोबल, सीखने की क्षमता और भविष्य सभी खतरे में पड़ जाते हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य के विभिन्न विभागों में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया वर्षों से अधर में लटकी हुई है। बार-बार घोषणाएँ होती हैं, पदों का विज्ञापन निकलता है, लेकिन या तो चयन प्रक्रिया धीमी रहती है या फिर नियुक्तियाँ समय पर नहीं हो पातीं। नतीजा यह है कि हजारों स्कूल ऐसे हैं जहाँ या तो एक ही शिक्षक पूरी जिम्मेदारी उठा रहा है, या फिर अस्थायी आधार पर ‘गेस्ट टीचर’ व्यवस्था से काम चलाया जा रहा है। यह स्थिति बच्चों के हित में नहीं है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि एक शिक्षक पर अधिकतम 30-35 विद्यार्थियों से अधिक का बोझ नहीं होना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दे सकें और सीखने की प्रक्रिया को सार्थक बनाया जा सके। मगर नूंह, पलवल, महेंद्रगढ़ जैसे जिलों में यह अनुपात 1:100 तक पहुँच गया है। यह केवल एक शैक्षणिक समस्या नहीं बल्कि सामाजिक असमानता की कहानी भी कहता है। क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे वही हैं जिनके माता-पिता निजी शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते। इस वर्ग के लिए सरकारी स्कूल ही एकमात्र आशा हैं, और जब इन स्कूलों की दशा ऐसी हो जाए, तो समाज का भविष्य ही संकट में पड़ जाता है।
सरकार ने वर्ष 2024 में 14,295 नए पदों पर भर्ती की घोषणा की थी। लेकिन जिस गति से प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, उसे देखकर लगता है कि यह लक्ष्य 2025 के अंत तक भी पूरा नहीं हो पाएगा। शिक्षकों की भर्ती के लिए लंबी प्रक्रिया, कोर्ट के केस, दस्तावेज़ी जाँच, रिजर्वेशन विवाद, और विभागीय सुस्ती — सब मिलकर स्थिति को और जटिल बना रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, जो शिक्षक सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनकी जगह तुरंत नई नियुक्ति नहीं की जा रही। इसका अर्थ यह हुआ कि रिक्तियों की संख्या समय के साथ बढ़ती ही जा रही है।
हरियाणा के कुछ जिलों में हालात इतने खराब हैं कि स्कूलों में एक ही शिक्षक हिंदी, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन सब कुछ पढ़ा रहा है। नतीजतन, बच्चों की समझ कमजोर होती जा रही है। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा में पास करवाना नहीं बल्कि सोचने, समझने और समाज में योगदान देने की क्षमता विकसित करना होता है। लेकिन ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को केवल औपचारिक शिक्षा मिल रही है, वास्तविक ज्ञान नहीं।
शिक्षक केवल एक नौकरी नहीं, बल्कि समाज के विकास की रीढ़ हैं। उनके बिना कोई भी नीति, कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती। शिक्षक का होना ही विद्यालय की आत्मा का होना है। जब शिक्षकों की कमी होती है, तो स्कूल भवन तो रह जाते हैं, लेकिन शिक्षा का सार कहीं खो जाता है।
सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही है क्योंकि अभिभावक अब निजी स्कूलों की ओर झुक रहे हैं। लेकिन निजी स्कूल हर वर्ग के लिए सुलभ नहीं। ग्रामीण इलाकों में तो कई बार सरकारी स्कूल ही शिक्षा का एकमात्र माध्यम हैं। जब यहाँ संसाधन नहीं, शिक्षक नहीं और सुविधाएँ नहीं, तो शिक्षा केवल एक दिखावा बनकर रह जाती है।
राज्य सरकार ने कई बार दावा किया है कि शिक्षकों की भर्ती जल्द पूरी की जाएगी, लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव न के बराबर है। शिक्षा विभाग की फाइलें कार्यालयों में घूमती रहती हैं जबकि स्कूलों में बच्चे बिना पढ़ाई के दिन बिताते हैं। शिक्षा के इस संकट को दूर करने के लिए केवल घोषणाएँ काफी नहीं होंगी, बल्कि ठोस कार्ययोजना बनानी होगी।
सबसे पहले तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर विद्यालय में विषयवार पर्याप्त संख्या में शिक्षक हों। साथ ही, जो पद लंबे समय से रिक्त हैं, उन्हें अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी भर्ती के माध्यम से भरा जाए। गेस्ट टीचर व्यवस्था एक अस्थायी उपाय थी, लेकिन अब यह स्थायी समाधान बन गई है, जो कि शिक्षा की गुणवत्ता के लिए नुकसानदायक है।
दूसरा, शिक्षकों के स्थानांतरण और पदस्थापन में पारदर्शिता लाई जाए। कई बार होता यह है कि कुछ स्कूलों में शिक्षक अधिक होते हैं जबकि कुछ स्कूलों में एक भी नहीं। यह असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। डिजिटल तकनीक की मदद से इस स्थिति को संतुलित किया जा सकता है।
तीसरा, शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जो शिक्षक सेवा में हैं, उन्हें समय-समय पर नई शिक्षण तकनीकों और पद्धतियों का प्रशिक्षण मिले ताकि वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली से जोड़ सकें।
सरकार को यह समझना होगा कि शिक्षा खर्च नहीं बल्कि निवेश है। जब राज्य शिक्षा पर ध्यान देता है, तभी उसका सामाजिक और आर्थिक विकास संभव होता है। यदि बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलेगी, तो आने वाले वर्षों में यह कमी देश की उत्पादकता, नवाचार और सामाजिक सद्भाव पर सीधा असर डालेगी।
हरियाणा ने कई क्षेत्रों में प्रगति की है — उद्योग, खेल, कृषि और प्रशासन में राज्य की पहचान बनी है। लेकिन शिक्षा में यह कमी उस छवि को धूमिल कर रही है। हर बच्चा तभी सक्षम नागरिक बनेगा जब उसे बचपन से उचित मार्गदर्शन और शिक्षा मिलेगी। स्कूलों में शिक्षकों की कमी केवल एक प्रशासनिक गलती नहीं बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी का उल्लंघन भी है।
शिक्षक ही वह कड़ी हैं जो समाज और ज्ञान को जोड़ती है। जिस दिन हम इस कड़ी को कमजोर कर देंगे, उसी दिन समाज में अंधकार फैलने लगेगा। बच्चे जब बिना शिक्षक के स्कूल जाते हैं, तो यह केवल एक शैक्षणिक विफलता नहीं बल्कि राष्ट्र की असफलता भी है।
अब समय आ गया है कि सरकार शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। केवल भवन बनाना, स्मार्ट क्लास लगाना या किताबें बांटना पर्याप्त नहीं है। इन सबका अर्थ तभी है जब हर कक्षा में शिक्षक खड़ा हो, बच्चों की आँखों में सवाल हों और उन सवालों के जवाब देने वाला कोई गुरु मौजूद हो।
शिक्षा के प्रति लापरवाही का सबसे बड़ा नुकसान आने वाली पीढ़ी भुगतेगी। एक शिक्षक की अनुपस्थिति का अर्थ है सैकड़ों बच्चों की क्षमता का अधूरा रह जाना। इसीलिए यह केवल एक विभागीय मसला नहीं, बल्कि समाज का प्रश्न है।
यदि हरियाणा को वास्तव में ‘शिक्षा राज्य’ बनाना है तो सबसे पहले शिक्षकों की कमी को दूर करना होगा। सरकार को चाहिए कि वह भर्ती प्रक्रिया को पारदर्शी, त्वरित और निष्पक्ष बनाए। साथ ही, शिक्षकों को उनके योगदान के अनुरूप सम्मान और प्रोत्साहन मिले।
हरियाणा के शिक्षा मंत्री से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक सभी को इस मुद्दे की गंभीरता को समझना चाहिए। यदि शिक्षा पर निवेश नहीं किया गया, तो भविष्य में यह सबसे बड़ी सामाजिक चुनौती बन जाएगी। स्कूलों में ब्लैकबोर्ड खाली हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा खाली हैं बच्चों के सपने, जो शिक्षक के बिना अधूरे हैं।
शिक्षक केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि समाज के विचारों, संस्कारों और भविष्य का निर्माणकर्ता है। हरियाणा में शिक्षकों की कमी ने यह साबित कर दिया है कि शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ कमजोर हो चुकी है। अब जरूरत है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। हर बच्चे का अधिकार है कि उसे शिक्षित किया जाए, और यह अधिकार तभी पूरा होगा जब हर स्कूल में शिक्षक मौजूद हो।
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