डॉ.शैलेष गुप्त जी की सरस्वती वंदना से प्रारंभ हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए अंजू निगम जी ने प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग कर बहुत सुन्दरता से आगे बढ़ाया-सूर्य का दरवाजा खोलना,गीले कपड़ों का सूर्य की बाट जोहना,आँधी का पत्तों को मनमानी का अधिकार देना,टेसू के फूलों की दुकान सजाना,हवा का राहगीरों से गर्मी का हाल पूछना,हवा की पाती को पर्यावरण द्वारा पढ़ा जाना,सुनामी का भी-पृष्ठ पर त्रासदी की कहानी लिखना आदि अत्यंत मौलिक और रोचक प्रयोग हैं ।

प्रतिमा प्रधान जी ने प्रकृति संरक्षण हेतु सजग करते हुए अपनी बात प्रारंभ की और बताया कि हर्षोल्लास प्रकृति का स्वभाव है ।आपने प्रकृति को पीड़ा देने वाले युद्ध की भर्त्सना की है और नयी पीढ़ी के लिए हरियाली कम हो जाने पर खेद व्यक्त किया है ।पॉलिथिन के लिए ढीठ विशेषण का प्रयोग अत्यंत सटीक ,सार्थक एवं मौलिक है ।कुनबा बढ़ने का ख्वाब देखते बीज का मानवीकरण बहुत भाया ।इन नवीन उद्भावनाओं के लिए आपका अभिनंदन है ।कल्पना दुबे जी ने फ़ैक्ट्रियों द्वारा होने वाले प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रेखांकित किया है और कंक्रीट के बढ़ते वनों के प्रति मानव को सचेत किया है ,साथ ही पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के माध्यम से प्रकृति के हर्षोल्लास के मनोरम चित्र भी खींचे है।

सावित्री कुमार जी से यह पहला साक्षात्कार हुआ,आपने वृक्षारोपण से वायु के शुद्ध होने और जल वर्षण के वैज्ञानिक सत्य को उजागर किया ।बहुत सुन्दर कलात्मक ढंग से पतझड़ के बाद आने वाली बहार की बात कही है और ओस की बूँदों में नहायी सद्यःस्नाता वसुधा को दूब की ओढ़नी उढ़ा दी है ।इसी प्रकार क्लांत पथिक को छतरी देते गुलमोहर का मानवीकरण प्रशंसनीय है ।नीम का स्वास्थ्य वाली छतरी देने का प्रतीक भी सटीक एवं सार्थक है ।

श्री निहालचंद्र शिवहरे जी ने अवर्षण के दुष्प्रभावों पर प्रकाश डाला है ,तेज बारिश के साथ ही  प्राकृतिक सौंदर्य के भी मनोहारी चित्र खींचे हैं ।साधना वैद जी की दृष्टि तो धुएँ से पीड़ित चाँद,सूरज,तारों तक पहुँच गयी है ।आपकी पीड़ा है कि अपने स्वार्थ के लिए मानव संपूर्ण विश्व को युद्ध की विभीषिका के हवाले कर देता है ।दूसरी ओर प्रकृति भी अपने दोहन का उत्तर विनाश लीला से देती है ।वनों के कटने से पंछी बेघर हो जाते हैं ।आधुनिकता के नाम पर मानव ने संगीत को भी कर्णकटु बना दिया है।

कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठा कर आपने पर्यावरण-जागरूकता का परिचय दिया है ।रूबी दास’अरु’को भी मैंने संभवतः पहली बार पढ़ा है,पटल पर आपका स्वागत है ।आपने बारूदी गंध और विस्फोटक ध्वनि से काँपती धरा के दर्द को महसूस किया है ।कंक्रीट के जंगल में फूलों का ग़ायब होना,ताप के प्रकोप से अंकुरों का न मुस्कुराना,वृक्षों के कटने से छाँव का अभाव होना,प्रदूषण से पंच महाभारतों पर मँडराता ख़तरा आपकी चिंता के विषय हैं,जो आपकी सद्भावना को प्रगट करते हैं ।

कंचन अपराजिता जी का भी अभिनंदन है,आपने प्रकृति के सौंदर्य के मनोरम चित्र खींचे हैं,जिनमें आसमान की नीली छतरी,खुले कुन्तलों से मेघों,अपराजिता की लताओं,पीतवसना सरसों के खेतों की निराली शोभा छिटकायी है ।अजय चरणम् जी वृक्षारोपण कर दीदी के संदेश का अक्षरशः पालन करने के लिए तत्पर हैं और वृक्षों की जिजीविषा के प्रति आश्वस्त हैं ।डॉआनन्द प्रकाश शाक्य जी ने प्रकृति के अकल्पनीय सौन्दर्य का साक्षात्कार किया है और बाढ़ की विभीषिका का भी । चिमनियों के धुएँ से नभ का और गाड़ियों के हॉर्नों की चिल्ल-पों से सड़कों का सहमना,शुद्ध वायु के अभाव में श्वाँस का घुटना,गाँवों से भी पीपल की छाँव का गायब हो जाना,बम फोड़ कर दादागिरी दिखाने की प्रवृत्ति का बढ़ना आपकी चिंता के विषय हैं,जिनसे कोई असहमत नहीं हो सकता ।

सुरंगमा यादव जी को पर्यावरण में आयी विषाक्तता से उत्पन्न असंतुलन का पूरा अन्दाज़ा है,उन्होंने काली हुई नीलाम झील के दर्द को समझा है ।पूजी जाने वाली प्रकृति को प्रदूषित करते मानव को आपने सचेत किया है ।

रवीन्द्र प्रभात जी की सुमधुर कल्पना ने बहुत सुन्दर हाइकु रचे हैं,जिनमें उन्हें चाँद दूध से भरा कटोरा नज़र आता है,बादलों की गड़गड़ाहट में मांदल के सुर सुनायी पड़ते हैं,धरती माता हरी ओढ़नी पहन कर इतराती प्रतीत होती है और वैदिक खोल कर वृक्षारोपण की सिफ़ारिश करते हैं ।डॉ.सुशीला सिंह जी आँखों में पानी भर लायी हैं,प्रकृति के प्रति होते खिलवाड़ से परेशान हैं और जीवनदाता पंच महाभूतों की स्वच्छता और सुरक्षा के लिए मानव मात्र को आगाह कर रही हैं ।

डॉ.सुभाषिणी शर्मा जी जीवन-मूल्यों की शिक्षा देती प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रही हैं ।लवलेश दत्त जी प्रकृति को माँ का दर्जा देते हुए उसके द्वारा लुटाए गए नेह से अभिभूत हैं ,उनकी यादों में आज भी गाँव के खेत,नहर,बाग और पेड़ों की ठंडी छाँव बसी हुई है।

इंदिरा किसलय जी की प्राणों की गुल्लक में प्रकृति प्रेम के सिक्के खनकते रहते हैं ।वे भविष्य की विभीषिका से भयभीत हैं कि कहीं पृथ्वी पर बढ़ती ऊष्मा का ताप समस्त तटीय देशों का अस्तित्व ही न समाप्त कर दे ।डॉ.शैलेष गुप्त जी को हरियाली के साम्राज्य में माता धरा और धरापुत्र किसान मगन मन दिखाई दे रहे हैं और पावस ऋतु में प्रकृति मुदित मन प्रतीत हो रही है ।

कार्यक्रम की समादरणीय अध्यक्ष डॉ.मिथिलेश दीक्षित जी तो फूल के खिल जाने के साथ ही रंग उठी हैं और हर नए पत्ते में आपको ज़िंदगी की आस नज़र आ रही है ।काँटों को भूल शाख़ -शाख़ पर खिलते फूलों से आपने जीवन में संघर्ष करने और कर्तव्यपरायणरहने की शिक्षा ग्रहण की है और मौसम की भाषा समझने की राय दी है ।आपनेअपने अध्यक्षीय उद्बोधन में बताया कि सदा से साहित्य में प्रकृति चित्रण राष्ट्रीय चेतना का वाहक रहा है और भारतीय संस्कृति भी प्रकृतिपरक है ।प्रकृति के प्रांगण में ही हाइकु ने जन्म लिया है ।यह एक अत्यंत सफल संगोष्ठी रही,एक से एक सुन्दर हाइकु प्रस्तुत किये गये, बहुत बढ़िया संचालन रहा ।

प्रस्तुति-डॉ.सुषमा सिंह 

८/१५३/आई/१,न्यू लॉयर्स कॉलोनी,आगरा-२८२००५

1 comments:

  1. स्वतन्त्रता दिवस के अमृत महोत्सव की अत्यंत अभिनव प्रस्तुति ! हमें गर्व है कि हम भी इस अभूतपूर्व समारोह का हिस्सा बन सके ! सभी रचनाकारों का हार्दिक अभिनन्दन एवं बहुत बहुत बधाई !

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