धारावाहिक उपन्यास 


- राम बाबू नीरव 

जिस दिन से राजीव मुम्बई गया था उस दिन से ही संध्या की जिन्दगी में वीरानी सी छा गयी. उसे लगने लगा जैसे उसकी कोई बहुत ही बहुमूल्य वस्तु खो गयी हो. उसके चेहरे की कांति लुप्त हो चुकी थी. आंखों  के चारों ओर काले काले धब्बे नजर आने लगे थे. हर समय वह खोयी खोयी सी रहती. न हंसती और न ही किसी से भर मुंह बातें ही करती. उसके इस बदले हुए रूप को‌ देखकर शान्ति हैरान थी. शारदा देवी को तो खैर इस सब से कोई मतलब ही न था. राजीव के मुम्बई चले जाने से एक तरह वे स्वतंत्र हो चुकी थी, इसलिए अब उनका अधिकांश समय समाज सेवा और राजनीतिक गतिविधियों में बीतने लगा. एक दीपक था, मगर वह भी संध्या से किनारा कर चुका था.

जब कभी एकांत में संध्या होती और अनायास ही उसकी आंखों के सामने दीपक का चेहरा आ जाता तब उसके ओठों पर फीकी सी मुस्कान थिरकने लगती. वह जान रही थी कि दीपक उससे एकतरफा प्यार कर बैठा है. दीपक का यह प्यार, प्यार ना था बल्कि उसके सुंदर शरीर को भोगने की क्षुद्र लिप्सा थी. नारी को ईश्वर ने आखिर ऐसा क्यों बनाया है कि हर कोई उसके सुन्दर शरीर को भोगने की लिप्सा अपने मन में पाल लेता है. क्या नारी सिर्फ भोग्या है? पुरुषों की इसी दूषित भावना से बचती हुई वह मारी मारी फिरती रही है. इस फार्म हाउस में पहुंचकर उसने सोचा था कि बुआ जी की छत्रछाया में उसे वासना के पुजारियों से मुक्ति मिल जाएगी, परंतु यहां भी दीपक नाम का एक मूर्ख है जिसके मन में उसे पाने की हसरतें कुलांचे मार रही है. यह सच है कि दीपक न तो आवारा है और न ही बदमिजाज फिर भी पुरुषों की स्वाभाविक कमजोरी से वह भी अछूता नहीं है. कैसी  विडंबना है कि मेरी स्वच्छंदता को वह प्यार समझ बैठा. क्या प्यार इतना तुच्छ है कि कोई लड़की किसी लड़का से हंस कर दो शब्द बोल ले और प्यार हो जाए ? प्यार तपस्या है, साधना है, प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है. इस सत्य को आज की युवा पीढ़ी क्यों नहीं समझती? प्यार की पवित्रता की अनुभूति विरले प्राणियों को ही प्राप्त होती है. उन्हीं विरले प्राणियों में से एक राजीव भी है. राजीव के साथ कब और कैसे वह प्रेम के पवित्र बंधन से बंध गयी, वह स्वयं नहीं जानती. उसे इस बात का एहसास है कि जिस समय राजीव कोमा में था, उसी समय राजीव से उसे प्यार हो गया. यही है पवित्र प्रेम की उत्कृष्टता और इसका चर्मोत्कर्ष. संध्या शारीरिक संबंध को प्यार नहीं मानती. शारीरिक संबंध मानसिक तृष्णा की तृप्ति मात्र है. प्यार इस तृष्णा से ऊपर है, इसलिए पवित्र है. फार्म हाउस के तालाब की अंतिम सीढ़ी पर बैठी संध्या इसी तरह के अनेकों झंझावातों से लड़ रही थी. अचानक पानी में किसी का प्रतिबिम्ब देखकर वह बुरी तरह से चौंक पड़ी. कोई उसकी पीठ पर खड़ा तालाब के स्वच्छ जल में उसकी छवि को एकटक निहारे जा रहा था. संध्या के मस्तिष्क में उस व्यक्ति का प्रतिबिम्ब बिजली भी भांति कौंध गया और वह सर से लेकर पांव तक कांप गयी. "धनंजय" उसके मुंह से स्फुट सा स्वर निकला. "हां, वही है यह. यह शैतान यहां तक पहुंच गया. ओह हे भगवान, अब मैं क्या करूं.?" एक झटके में वह उठकर खड़ी हो गयी और लम्बा सा घूंघट काढ़ कर तेज तेज कदम उठाती हुई सीढ़ियां चढ़ने लगी. पानी में उसकी सूरत देखकर धनंजय पहले तो हक्का बक्का रह गया, परंतु जब उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि यह श्वेता ही है, मगर अभी भी उसके मन में गुनधुन हो रहा था.... श्वेता इस फार्म हाउस में कैसे आ गयी.? कुछ पल के लिए वह अनेकों तरह के कयास लगाता रहा. तब तक स्वेता सीढ़ियां फांदती हुई ऊपर पहुंच चुकी थी और तेज तेज कदमों से बंगले की ओर भागती जा रही थी. जब धनंजय की चेतना लौटी तब वह पागल की तरह उसके पीछे दौड़ पड़ा. माधव किसी काम से उधर आया था, जब उसने संध्या के पीछे बदहवास सा धनंजय को दौड़ते हुए देखा तब बुरी तरह से चौंक पड़ा और वह भी उन दोनों के पीछे दौड़ने लगा. बंगले के हॉल में पहुंच कर धनंजय ने संध्या को किसी हिंसक पशु की तरह दबोच लिया. संध्या मासूम मेमने की भांति उसके चंगुल में छटपटाने लगी. 

"वाह कमाल कर दिया तुमने श्वेता रानी." धनंजय एक हाथ से संध्या की कलाई मजबूती‌ से पकड़ कर दूसरे हाथ उसका घूंघट हटाते हुए निर्लज्जता से बोला -"जिसे मैं पागल की तरह पूरे हिन्दुस्तान की ख़ाक छानते हुए ढूंढ रहा हूं, आखिरकार वह मिली भी तो मेरे अपने ही घर में. शायद इसी को कहते हैं चिराग़ तले अंधेरा." तब तक संध्या के चेहरे पर से घूंघट हटा चुका था. धनंजय की बात सुनकर संध्या के होश उड़ गये. उसके मुंह से स्फुट सा स्वर निकला - "तुम्हारा घर?" 

"हां जानेमन मेरा घर. यह बंगला, यह पूरा फार्म हाउस मेरा ही तो है." 

"झूठ बोलते हो तुम, यह फार्म हाउस सेठ द्वारिका दास जी......!"

"अरे श्वेता रानी, क्या तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि सेठ द्वारिका दास  मेरे पिताजी हैं." 

"क्या.....?" इस रहस्योद्घाटन को सुनकर श्वेता स्तब्ध रह गयी. उसे एकबारगी ऐसा लगा जैसे उसके ऊपर कड़कती हुई बिजली गिर पड़ी हो. जब उसकी चेतना लौटी तब उसे समझते देर न लगी कि यही शैतान राजीव का सौतेला भाई है. 

"मुझे घूर क्यों रही हो श्वेता रानी, चलो मेरे साथ." वह संध्या को घसीटने लगा.

"छोड़ मेरी कलाई." संध्या एकाएक शेरनी बन गयी. "तुझ जैसे कामीने इंसान के साथ जाने से अच्छा मैं मौत को गले लगा लेना समझती हूं." तब तक दौड़ते हुए माधव वहां पहुंच चुका था. और वह धनंजय की इस धृष्टता को देख मन ही मन उबलने लगा.

"वाह क्या बात है श्वेता रानी, तुम्हारे तेवर तो बिल्कुल वैसे ही हैं, तनिक भी नहीं बदली हो तुम. मगर अब मैं किसी भी हाल में तुम्हें छोड़ने वाला नहीं हूं. सीधी तरह से चलती हो या कि तुम्हें गोद में उठा लूं.?" धनंजय अट्टहास लगाते हुए संध्या को उठाने लगा.

"छोटे मालिक, संध्या को छोड़ दीजिए." माधव की कड़कती हुई आवाज सुनकर धनंजय बौखला गया गया.

"संध्या, कौन संध्या.....अरे बेवकूफ इसका नाम संध्या नहीं श्वेता है. इस लड़की ने तुम सब की आंखों में धूल झोंका है."

"इसका नाम चाहे जो भी हो, हम इसके साथ आपको बदतमीजी नहीं करने देंगे." माधव का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा. नौकर के मुंह से ऐसी रोष भरी बातें सुनकर धनंजय का खून खौलने लगा और वह आंखें तरेरते हुए चिल्ला पड़ा -

"तुमने मुझे बदतमीज कहा, तुम्हारी यह मजाल."

"हां, हमने आपको बदतमीज कहा और अब भी कह रहे हैं, शराफत से संध्या की कलाई छोड़ दीजिए." माधव का विकराल रूप देखकर कुछ पल के लिए धनंजय सकपका गया, तब-तक संध्या उसके हाथ से अपनी कलाई छुड़ा चुकी थी. 

"हें, तुम्हारी यह हिम्मत." धनंजय पर अमीरी का रौब हाबी हो गया -"मुझ से ज़ुबान लड़ाता है, कमीने, कुत्ते. ले मैं अभी तुम्हें मजा चखाता हूं." 

"खबरदार, अपनी जुबान को लगाम दो धनंजय बाबू." माधव तन गया. एक बिगड़ा हुआ रईसजादा भला इतना अपमान कैसे बर्दाश्त करता. ताव में आकर उसने माधव पर हाथ उठा दिया. मगर उसका हाथ हवा में उठा का उठा रह गया. माधव ने अपने बलिष्ठ हाथ से उसकी कलाई पकड़कर मरोड़ दी थी. धनंजय पीड़ा से तड़पने लगा. तब-तक फार्म हाउस के बहुत सारे मजदूर वहां एकत्रित हो चुके थे. कोलाहल सुनकर बंगले के भीतर से शान्ति के साथ साथ हरिहरन और कमली भी वहां आ चुकी थी. सभी आश्चर्य से धनंजय और माधव के बीच हो रहे इस तकरार को देखने लगे. शान्ति की नजर जब संध्या के मुर्झाए हुए चेहरे पर पड़ी तब उसे पूरा का पूरा माजरा समझ में आ गया. धनंजय कितना नीच इंसान है, यह सच्चाई किसी से भी छुपी हुई न थी. शान्ति के साथ  साथ सभी मजदूर समझ गये कि सेठजी के इस बदचलन बेटे ने निश्चित रूप से संध्या के साथ छेड़खानी की होगी. शान्ति घृणापूर्ण नजरों से धनंजय को घूरने लगी. माधव क्रुद्ध नजरों से धनंजय को घूरते हुए बोला -"किसी मजदूर पर हाथ उठाने की ग़लती मत करना धनंजय बाबू, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे. अपना भला चाहते हो तो चुपचाप यहां से चले जाओ." हरिहर के साथ साथ अन्य मजदूर भी माधव के पीठ पीछे आकर खड़े हो गये. उन सभी मजदूरों की आंखों से शोले निकल रहे थे जिन्हें देखकर धनंजय की रूह फ़ना हो गयी. धनंजय समझ  गया, इन लोगों का मुकाबला करना आसान नहीं और इनके सामने से श्वेता को ले जाना भी नामुमकिन है. अब कोई दूसरा रास्ता अख्तियार करना होगा. 

"मैं अपनी मम्मी से कह कर तुम सब को नौकरी से निकलवा दूंगा कुत्तों." बिलबिलाते हुए वहां से चला गया धनंजय. उसके वहां से जाते ही संध्या फर्श पर बैठकर विलाप करने लगी. 

"हे मेरे रामजी यह लड़की तो रोने लगी." शान्ति उसके करीब बैठकर अपने चिर-परिचित अंदाज में बोल पड़ी. माधव, हरिहरन तथा कमली को छोड़कर बाकी सभी मजदूर अपने अपने काम पर लौट गये.

"शान्ति अब मैं यहां नहीं रहूंगी." उसकी बात सुनकर शान्ति तड़प उठी. 

"ऐ जी." शान्ति अपने पति माधव की ओर देखती हुई बोल पड़ी -"जरा इस पागल लड़की की बात तो सुनो, कहती हैं अब मैं यहां नहीं रहूंगी. बताओ तो जरा, बुआ जी बंगले में ‌नहीं है और यह....!"

"संध्या." माधव भी फर्श पर बैठकर संध्या को सांत्वना देते हुए बोला -"यह सच है कि हमलोग तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते. तुम महान हो. तुमने वह कारनामा कर दिखाया है जो बड़े बड़े डाक्टर नहीं कर पाए. सेठ द्वारिका दास जी का यह दूसरा बेटा एक नम्बर का लुच्चा लफंगा है. मगर तुम्हें इससे डरने की जरूरत नहीं है. हमलोग अपनी जान पर खेलकर भी तुम्हारी हिफाज़त करेंगे. फिर भी यदि यहां से जाने की नौबत आ ही गई तब हमलोग एक साथ यहां से चल देंगे."

"माधो भईया." अपने आंसू पोंछकर संध्या माधव की ओर करुणापूर्ण नेत्रों से देखती हुई बोली -" जो प्यार, जो अपनत्व आपलोगों ने मुझे दिया है, उसके लिए किन शब्दों में आपका आभार व्यक्त करूं, शब्द नहीं हैं मेरे पास. मैंने अपने कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक निर्वाह कर दिया है और उसमें मुझे सफलता भी मिल चुकी है, इसलिए अब मेरा यहां रूकना मुनासिब नहीं है."

"कहां जाओगी.?" शान्ति तुनक पड़ी.

"यह दुनिया बहुत बड़ी है दीदी, कहीं न कहीं तो मुझे ठिकाना मिल ही जाएगा."

"अच्छा अच्छा चली जाना, पहले उठकर मुंह हाथ धो लो. देखो तो कैसा हाल बना लिया है अपना." शान्ति उसकी बांह पकड़कर उठा दी. संध्या ने कोई प्रतिवाद न किया और शान्ति के साथ बंगले के भीतर चली गयी.

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क्रमशः.....!

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