धारावाहिक उपन्यास 


- राम बाबू नीरव 

संध्या राजीव की ट्राइसाइकिल को अपने हाथों से ही ठेलती हुई आईसीयू में दाखिल हुई.

नर्स उसकी ही प्रतीक्षा कर रही थी. जब नर्स ने राजीव के बदले हुए रूप को देखा तब वह भी अचंभित रह गयी. "सचमुच इस लड़की ने तो चमत्कार ही कर दिया है." वह ओठों ही ओठों में बोली, जिसे संध्या नहीं सुन पाई. 

"सिस्टर, राजीव बाबू को बिछावन पर लिटाने में मेरी मदद करो." नर्स तथा संध्या ने सावधानी पूर्वक राजीव को पलंग पर लिटा दिया. नर्स राजीव के माथे पर कम्प्यूटर से कनेक्टेड सारे यंत्र लगाने लगी. जब वह अपने काम से निवृत्त हो गयी तब संध्या ने उस से पूछा - "सिस्टर, इनको एनर्जी के लिए क्या दिया जाता है ?"

"सलाईंस के सहारे  ग्लुकोज़ तथा ताकत की अन्य दवाएं."

"बस....!"

"नहीं.... नहीं, इन्हें  इनकी नासिका में प्लास्टिक की नली घुसाकर फलों का जूस भी दिया जाता है."

"क्या कहा, नासिका द्वारा." हैरान रह गयी संध्या. 

"हां....! मगर तुम्हें हैरानी क्यों हो रही है. इस तरह के रोगी को नासिका द्वारा ही लिक्यूड भोजन कराया जाता है."

"क्या इन्हें तकलीफ नहीं होती होगी?" संध्या ने थोड़ा तीखे स्वर में पूछा.

"इनके अंदर तो चेतना है ही नहीं, तो फिर सुख दुःख का अनुभव इनको होगा कैसे?"

"क्या चम्मच से इनके मुंह में जुस नहीं डाला जा सकता.?" 

"नहीं....!"

"क्यों....?"

"क्यों कि इनका मुंह पूरी तरह से नहीं खुलता है, इसलिए सारा जुस बाहर गिर जाएगा."

"तो गिर जाने दो, तुम्हारा क्या जाता है ?" संध्या तुनक पड़ी और उसकी बातों से नर्स परेशान हो गयी. 

"अजीब लड़की है यह. नर्स मैं हूं और इसकी देखभाल का तरीका मुझे यह बता रही है." वह पुनः बुदबुदाने लगी. तभी शान्ति संध्या को भोजन करने के लिए बुलाने आ गयी.

-"संध्या, चलो भोजन कर लो."

"नहीं मैं अभी नहीं खाऊंगी, जाओ तुम लोग खा लो." 

"हे मेरे रामजी ये लड़की सुबह से भूखी है और कहती है कि अभी नहीं खाऊंगी. क्यों नहीं खाएगी भला, बता तो सही."

"क्योंकि, जब तक राजीव बाबू नहीं खाएंगे, तब तक मैं भी नहीं खाऊंगी, समझ गयी न मेरी अच्छी दीदी." 

"क्या कहा, राजीव बाबू खाएंगे?" शान्ति भी नर्स की तरह झुंझला पड़ी.

"हां क्यों नहीं खाएंगे. दीदी, तुम किचन से एक कटोरी और चम्मच लेकर आओ. और सिस्टर तुम जुस लेकर आओ." शान्ति और नर्स एक साथ बाहर की ओर भाग खड़ी हुई. कुछ ही देर में वे दोनों एक साथ अंदर दाखिल हुई और वहां का नजारा देखकर अचंभित रह गई. संध्या राजीव का सर इस तरह से अपनी गोद में ले रखी थी जैसे कोई मां अपने दूध पीते बच्चे को गोद में लेकर दूध पिलाती है. नर्स और शान्ति उसके इस वात्सल्य रूप को मुग्ध भाव से निहारने लगी. 

"तुमलोग मेरा मुंह क्या निहार रही हो, लाओ न जूस." संध्या की आवाज सुनकर दोनों की तंद्रा भंग हो गयी. शान्ति के हाथ से कटोरी और चम्मच लेकर नर्स उसमें जूस डाल दी और संध्या की ओर बढ़ा दी. 

संध्या चम्मच से हल्का हल्का जूस राजीव के मुंह में डालने लगी. पहली बार पूरा का पूरा जूस उसके मुंह के किनारे से होकर बह गया. दूसरी बार थोड़ा सा जूस राजीव के कंठ तक पहुंचा. धीरे-धीरे उस एक कटोरी दूध में से कुछ राजीव के पेट में गया और अधिकांश बह गया. 

"सिस्टर एक कटोरी जूस और दो." नर्स चुपचाप दूसरी कटोरी जूस  देकर इस लोमहर्षक दृश्य को देखने लगी. शान्ति तो एकदम से नि:शब्द थी. सचमुच संध्या ने चमत्कार कर दिया था. इस बार संध्या ने आधी कटोरी से भी अधिक जूस राजीव को पिलाकर ही दम लिया. जूस पिलाकर उसने अपने आंचल से उसका मुंह साफ करके सावधानी पूर्वक बिछावन पर लिटा दिया. अचानक नर्स के साथ साथ शान्ति भी बुरी तरह से चौंक पड़ी. राजीव ने संध्या की ओर देखते हुए तीन बार अपनी पलकें झपकाईं थी. जैसे वह संध्या को धन्यवाद देना चाह रहा हो. संध्या ने अपने ओठों पर एक मीठी मुस्कान लाकर उसके धन्यवाद का प्रतिउत्तर दिया और पलंग पर से नीचे उतर कर नर्स की ओर देखती हुई बोली -"देख लिया न सिस्टर, इसे कहते हैं पॉजिटिव थिंकिंग यानी सकारात्मक सोच. किसी भी कार्य को करने से पहले यदि हम ये सोच लें यह काम कैसे होगा तब इस नकारात्मक सोच के कारण वह काम कभी भी पूर्ण नहीं होगा. परंतु जब हमारी सोच यह हो कि यह काम क्यों नहीं होगा, तब उस काम को न पूर्णरूपेण तो कम से कम आंशिक रूप से भी पूरा होना ही है. तुम चिकित्सा कार्य से जुड़ी हुई हो जो पूर्ण रूप से समर्पण का कार्य है, सेवा का कार्य है, इसलिए तुम्हें अपनी सोच सकारात्मक रखनी चाहिए." नर्स विस्मय भरी आंखों से संध्या को निहारने लगी. ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई अजुबा चीज देख रही हो. दस वर्षों से वह नर्स के पेशे में थी. इस दौरान अनगिनत महिलाओं  और युवतियों से उसका आमना सामना हुआ मगर उनमें से एक भी ऐसी न थी जिसमें संध्या जैसे गुण हो. यह लड़की सचमुच अद्भुत है. कल से ही चमत्कार पर चमत्कार करती जा रही है. 

"सेठ जी ने कल कहा था कि तुम इस लोक की नहीं हो." वह भाव विभोर होती हुई संध्या के सामने आकर बोली -"आज मैं भी कह रही हूं, सचमुच तुम इस दुनिया की नहीं हो, कहां से आयी है तुम.?"

"सिस्टर मैं भी आमलोगों की तरह इसी दुनिया की हूं. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मैं सदैव सकारात्मक सोच रखती हूं जबकि अधिकांश लोगों की सोच नकारात्मक होती है. कैसे होगा और क्यों नहीं होगा इन दोनों वाक्यों में जमीन और आसमान का फ़र्क है."

"संध्या, तुम जाकर भोजन कर लो, मैं तब-तक राजीव बाबू को संभालती हूं." नर्स के आग्रह को संध्या टाल न सकी और शान्ति के साथ बाहर चली गयी.

            ****

शाम में सेठ द्वारिका दास के साथ डा० के० एन० गुप्ता आए. सुबह से काम करते करते संध्या काफी थक गयी थी, इसलिए वह अपने कमरे में सो रही थी. आईसीयू के सामने एक छोटा सा हॉल था. इस हॉल को संध्या ने कलात्मक ढंग से सजा दिया था. कुछ पल हॉल में बैठने के पश्चात वे दोनों आईसीयू में आ गये. जब उन दोनों की नजर राजीव पर पड़ी तब वे दोनों एक साथ खुशी से उछल पड़े. एक ही दिन में राजीव की काया ही पलट चुकी थी.  सेठ द्वारिका दास जी को विश्वास ही न हुआ कि यह उनका पुत्र राजीव ही है. 

"डीके....!" डा० गुप्ता अपने मित्र को स्नेह से डीके कहकर पुकारा करते थे. -"तुम्हारा राजीव अब दो से तीन महीने में ही तुम्हारा कारोबार संभालने लायक हो जाएगा."

"सच गुप्ता." सेठ जी की आंखें चमक उठी.

"हां, बिल्कुल सच."

"परंतु वह देवी है कहां जिसने मेरे मृत पुत्र के शरीर में आत्मा डाल दिया है. मैं उसके रजकण लेना चाहता हूं." सेठ जी व्याकुल नजरों से संध्या को ढूंढने लगे.

"सुधा, संध्या कहां है." डा० गुप्ता ने नर्स से पूछा.

"जी वो बगल वाले कमरे में सो रही है." 

"ठीक है मैं देखता हूं." डा० गुप्ता तेजी से बाहर निकल गये.

                  ****

"संध्या.....!" डा० गुप्ता की आवाज सुनकर संध्या की नींद उचट गई और वह उठकर बिछावन पर बैठ गयी.

"जी अंकल आ जाईए." उसकी आवाज सुनकर गुप्ता जी बेधड़क अंदर आ गये. संध्या ने बिछावन से उतर कर उनका चरण स्पर्श किया. "बैठो  संध्या बेटी, मैं तुम से कुछ बातें करना चाहता हूं." डा० गुप्ता के साथ संध्या भी बिछावन पर ही बैठ गई.

"जी कहिए अंकल."

"सच सच बताओ, तुम कौन हो?" डा० गुप्ता का यह प्रश्न सुनकर संध्या बुरी तरह से घबरा गई. फिर शीघ्र ही उसने स्वयं को संभाला और रुंधे हुए गले से बोली -"मैंने तो अपनी कहानी उस दिन ही सुना दी थी अंकल."

"तुम्हारी वह कहानी झूठी थी, अपनी सच्ची कहानी बताओ."

"अंकल मैंने अपने बारे में जो कुछ भी बताया था, वह पूर्णतः सत्य था. उसमें झूठ सिर्फ इतना है कि मैं अनाथ नहीं हूं, मेरी मां जिन्दा है."

"कौन है तुम्हारी मां?"

"एक वचन दीजिए अंकल, जो रहस्योद्घाटन मैं करने जा रही हूं, उसे आप अपने तक ही सीमित रखेंगे. नहीं तो मेरी तपस्या अधूरी रह जाएगी."

"तुम निर्भय होकर बताओ, मैं इतना गिरा हुआ इंसान नहीं हूं."

"तो सुनिए, मैं लखनऊ की मशहूर तवायफ गुलाब बाई की बेटी हूं."

"क्या.....?" सन्न रह गये डा० गुप्ता. 

"घबरा गये न आप अंकल." संध्या के ओठों पर फीकी मुस्कान उभर आई. 

"आं.... नहीं." ऐसा लगा जैसे डा० गुप्ता स्वप्न देखते देखते अचानक जग गये हों. -"तुम गुलाब बाई के कोठे से भागी क्यों?"

"क्योंकि मैं तवायफ बनना नहीं चाहती थी."

"ओह....." डॉ ० गुप्ता ने एक दीर्घ सांस लिया. -"संध्या मैं बता नहीं सकता कि तुमने कितना बड़ा काम किया है. चलो सेठ द्वारिका दास तुम्हें देखने के लिए बेचैन हो रहे हैं " 

 "ठीक है अंकल चलिए." डॉ ० गुप्ता के साथ संध्या बाहर निकल गयी.

संध्या ने जैसे ही आईसीयू में कदम रखा कि सेठ द्वारिका दास उसके चरणों में झुक गये " संध्या बुरी तरह से घबरा गई और अपने पांव खींचती हुई चीख पड़ी -

"बाबू जी यह क्या कर रहे हैं आप ."

"देवी देवता होते हैं अथवा नहीं, यह कोई नहीं जानता, मगर मेरे और मेरे बेटे के लिए तुम साक्षात् देवी स्वरूपा हो इसे सभी देख रहे हैं. बेटी डॉ० गुप्ता ने कहा है कि मेरा बेटा दो से तीन महीने में ही मेरा कारोबार संभाल लेगा.यह चमत्कार तुमने किया है बेटी." सेठ द्वारिका दास की आंखों से हर्ष के अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी. ये आंसू खुशी के थे.

"बाबू जी." उनके  आंसू पोंछती हुई संध्या बोली -"हमलोग तो सिर्फ एक माध्यम हैं. चमत्कार करने वाला तो ऊपर बैठा है. खैर छोड़िए इन बातों को, आप लोग डायनिंग हॉल में बैठिये मैं चाय बना कर लाती हूं." संध्या हंसती हुई बाहर निकल गयी.


"हे ईश्वर, यदि सचमुच तुम हो तो मेरी बाकी की उम्र इस लड़की को दे देना ताकि यह औरों की भलाई कर सके." सेठ द्वारिका दास अपने हाथ जोड़कर कर ईश्वर से प्रार्थना करने लगे.

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क्रमशः.......!

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