धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
जब एक तेज हिचकोले के साथ गाड़ी रूकी तब राजीव की तंद्रा भंग हो गयी. लखनऊ के बदनाम मुहल्ले चौक, जिसे हुस्न की मंडी कहा जाता है, के एक नुक्कड़ पर गोपाल ने गाड़ी रोकी थी. उस नुक्कड़ पर चील-कौवों की तरह मंडरा रहे हुस्न के दलालों की नजर जब चमचमाती हुई इस शानदार विदेशी गाड़ी पर पड़ी तब उनकी बांछे खिल उठी. उनमें से कई लपकते हुए गाड़ी के नजदीक आ गये और राजीव को ऐसे झुक-झुक कर सलाम करने लगे जैसे वे सभी उसके ज़ऱखरीद गुलाम हों. राजीव के दिलो-दिमाग पर तो संध्या छायी हुई थी. वह उन लोगों को नजरंदाज करता हुआ रुपयों से भरा हुआ बैग और लाल रंग का वह डिब्बा लेकर नीचे उतरा और अपने ड्राइवर से बोला -
"गोपाल, तुम थोड़ी देर यहीं पर रुको मैं शीघ्र ही आ रहा हूं." राजीव उसे हुक्म देकर आगे की ओर बढ़ गया. गोपाल की इच्छा हुई कि वह उसे रोक ले, मगर हिम्मत न हुई. इस मुहल्ले में तवायफों के साथ साथ गुंडें भी रहते थे. इतने रुपए और कीमती जेबर लेकर मोहल्ले के अंदर जाना खतरे से खाली न था. मगर राजीव के ऊपर तो जनून सवार था. वह गोपाल की क्या सुनता. राजीव के पीछे दलालों का हुजूम लग गया. सभी उसे अपनी अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करने लगे
"हुजूर जन्नत बाई के कोठे पर चलिए. वहां मैं आपको जन्नत का नजारा न करा दूं तो मेरा नाम बदल देना."
"चुप बे खबिश की औलाद, तू क्या जन्नत का नजारा कराएगा हुजूर को. हुजूर आप मेरे साथ चलिए, एक से बढ़कर एक मल्लिका-ए-हुस्न का दीदार न करा दिया तो....!" राजीव रूक गया और उन दलालों की ओर देखते हुए दर्द भरे स्वर में बोला -"मुझे गुलाब बाई के कोठे पर जाना है."
"जी हां हुजूर मैं गुलाब बाई को जानता हूं." ठिगने कद का एक दलाल पीछे से निकल कर राजीव के सामने खड़ा हो गया और उसे लम्बा सलाम ठोकते हुए बेहद चापलूसी भरे अंदाज में बोला -"मैं गुलाब बाई का खास खिदमतगार हूं हुजूर. उसके कोठे पर एक बढ़कर एक नगीने हैं. उनमें से एक शबाना बाई का तो जबाब नहीं है हुजूर. अगर उसने हुजूर का दिल बाग बाग न कर दिया तो....!"
"खामोश....!" राजीव ने उसे इतनी जोर से डपटा कि बेचारे की हालत पस्त हो गयी. -"अपनी बकवास बंद करो और मुझे फौरन वहां लेकर चलो."
"आइए हुजूर." भींगी बिल्ली की तरह वह आगे आगे चलने लगा. राजीव गुमसुम सा उसके पीछे-पीछे चल पड़ा. उसके दिल में संध्या से मिलने की तमन्ना उछालें मार रही थी. उसे पूरा यकीन था कि संध्या फार्म हाउस से भाग कर अपनी मां के कोठे पर ही आई होगी.
उस्मान नाम का वह दलाल राजीव को लेकर गुलाब बाई के कोठे पर पहुंचा. वहां तल्ख़ खामोशी पसरी हुई थी. जिस दिन से श्वेता गायब हुई थी. गुलाब बाई मातम मना रही थी. श्वेता के गायब होने के चंद दिनों बाद ही आश्चर्यजनक रूप से अब्दुल्ला भी गायब हो गया था. चूंकि गुलाब बाई और इस कोठे की नर्तकियों की रोजी-रोटी का सवाल था, इसलिए अनमने भाव से वे सभी अपने धंधे में लगे चुकी थी.
"अम्मा.... अम्मा." कोठे पर पहुंच कर उस्मान हलक फाड़कर चिल्लाने लगा. कोठे की सारी नर्तकियां रात का खुमार उतार रही थी. किसी के चिल्लाने की आवाज सुनकर उन सबों की नींद उचट गयी. पर्दे के पीछे वाले आरामगाह से उनींदी सी हालत में शबाना, नर्गिस, अनिता तथा अन्य लड़कियां बाहर आ गयी. इस कोठे के खास दलाल उस्मान मियां के साथ एक सजीले नौजवान को देखकर सभी हैरान रह गयी. उन लड़कियों को यह रईस अजीबोगरीब लगा. इस भरी दोपहरी में मुजरा सुनने का शौक रखने वाले इस शख्स के चेहरे पर अजीब सा ग़म छाया हुआ था. चूंकि सवाल इन तवायफों के धंधे का था, इसलिए सभी झुक झुक कर राजीव का इस्तेकबाल करने लगी. राजीव उदास आंखों से उन्हें घूर रहा था. मगर उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया. इन लड़कियों में उसकी संध्या न थी. उसके दिल को धक्का लगा.
उस्मान के चिल्लाने की आवाज गुलाब बाई के कानों में पड़ चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठ गयी और बुरी तरह चौंक पड़ी. उसने समझा शायद उसकी बेटी श्वेता वापस आ गयी है. वह अपने कमरे से निकल कर बॉलकोनी में आ गयी. मगर वहां उस्मान के साथ एक अजनबी युवक को देखकर मायूस हो गयी.
"उस्मान मियां, इस समय तुम हमारे आराम में खलल डालने क्यों चले आए.?" गुलाब बाई ने थोड़ा तल्ख़ अंदाज में पूछा.
"अम्मा, हुजूर बहुत बड़े आदमी हैं. विदेशी गाड़ी से यहां आए हैं. शायद हुजूर मुजरा के शौकीन हैं."
"नहीं.... नहीं, !" तभी राजीव चिल्ला पड़ा -"मैं मुजरा का शौकीन नहीं हूं. और न ही यहां मुजरा सुनने आया हूं." राजीव उस्मान की ओर देखते हुए संजिदगी से बोला और बैग में से पांच पांच सौ के दस नोट उस्मान की हथेली पर रखते हुए बोला -" लो उस्मान मियां यह तुम्हारी बख़्शीश है. मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूं कि तुम मुझे गुलाब बाई के कोठे तक ले आए हो." रुपए को मुठ्ठी में बांधकर कोर्निश करते हुए उस्मान मियां राजीव के क़दमों में निसार हो गया -"हुजूर का सितारा बुलंद रहे. आप जैसे दरियादिल इंसानों की वजह से ही तो ये कोठे आबाद हैं हुजूर." गुलाब बाई और शबाना के साथ साथ अन्य लड़कियां भी राजीव की इस दरियादिली को देख कर हैरान रह गयी.
"देखो उस्मान मियां मैं चापलूसी से परहेज़ करता हूं. तुम्हारा काम खत्म हो चुका है, अब तुम जाओ यहां से." उस्मान राजीव के तेवर देखकर सहम गया और पांच पांच सौ के उन नोटों को अपने जेब के हवाले करते हुए वहां से रुखसत हुआ.
"तशरीफ़ रखिए हुजूर. क्या लेंगे आप, ठंडा या कि गर्म.?" गुलाब बाई पूरी गर्मजोशी से राजीव का इस्तेकबाल करती हुई तवायफों वाले अंदाज में बोली. उसकी ललचाई हुई नजर राजीव के नोटों से भरे बैग तथा मखमली डिब्बे पर टिकी हुई थी.
"यदि मैं ग़लत नहीं सोच रहा हूं तो शायद आप ही इस कोठे की मालकिन गुलाब बाई हैं?" राजीव ने अदब के साथ इतनी शालीनता से पूछा कि गुलाब बाई और शबाना के साथ साथ अन्य लड़कियां भी आश्चर्य चकित रह गयी. कोठों पर आनेवाला कोई भी पुरुष इतना शालीन नहीं होता. यदि यह युवक मुजरा का शौकीन नहीं है तो इस भरी दोपहरी में नोटों से भरा बैग और उपहार का पैकेट लेकर यहां क्यों आया है.?
"जी हां, मैं ही हूं गुलाब बाई, कहिए मैं आपकी क्या खिदमत कर सकती हूं?" राजीव की तरह गुलाब बाई भी अदब से पेश आई.
"मेरी संध्या कहां है मां जी.?" सपाट लहजे में बेहद संजीदगी से पूछा राजीव ने.
"संध्या....कौन संध्या.?" गुलाब बाई एकदम से भौंचक रह गयी. शबाना के साथ साथ अन्य लड़कियां भी सन्नाटे की सी हालत में खड़ी राजीव को निहारने लगी.
"वहीं संध्या जिसने इस अभागे को नयी जिन्दगी दी." राजीव की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी और उसकी आवाज भर्रा गई.-"उस देवी ने चार महीने तक रात-दिन जगकर मेरी सेवा की और मुझे कोमा से निकाला. आज वह मुझसे रूठ कर आपके पास आ गयी है. उसे लौटा दीजिए मां जी." उसने बैग का सारा रुपया गुलाब बाई के कदमों में उड़ेल दिया और उसके पांव के नीचे बैठकर नेकलेस उसे दिखाते हुए बोला -"मुंबई से मैं अपनी संध्या के लिए यह उपहार लाया था. सोचा था अपने ही हाथों से उसके गले में पहनाऊंगा. मगर.....!" आगे वह कुछ बोल नहीं पाया, फूट-फूट कर रोने लगा. अजीब सा दृश्य उपस्थित हो गया वहां. शबाना, नर्गिस, अनिता तथा अन्य लड़कियां उसके करीब आ गयी और करुणा पूर्ण नेत्रों से इस विचित्र प्रेमी को देखने लगी. उसके प्रति सबों के दिल में संवेदना उमड़ आयी, परंतु उनकी समझ में न आया कि आखिर यह युवक किस संध्या की बात कर रहा है.? पत्थर का कलेजा रखने वाली गुलाब बाई भी संजिदा हो गयी.
"मां जी, अभी मेरे पास इतने ही रुपए हैं, मगर आपको विश्वास दिलाता हूं कि यदि आपने मेरी संध्या को लौटा दिया तब मैं. अपने फार्म हाउस में से आधा आपके नाम कर दूंगा."
"आप कैसी बातें कर रहे हैं, कौन संध्या, किसकी संध्या.?" इस बार गुलाब बाई झुंझला पड़ी.
"आपकी बेटी संध्या....!" उसकी आंखों में करुणा के साथ साथ याचना छुपी हुई थी.
"मेरी बेटी संध्या......?" सन्न रह गयी गुलाब बाई. और शबाना भी चौंक पड़ी.
"अम्मा, आप जरा इधर आइए." शबाना गुलाब बाई की कलाई पकड़ कर खींचती हुई पर्दे के पीछे ले गयी और बोली -"कहीं यह आदमी श्वेता की बात तो नहीं कर रहा है?"
"आं...... हां..... हां, मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है. ऐसा करो तुम ऊपर मेरे कमरे में चली जाओ, वहां ड्रेसिंग टेबल पर श्वेता की तस्वीर रखी हुई है, उसे ले आओ."
"जी, अभी लेकर आती हूं अम्मा." श्वेता तेजी से सीढ़ियां चढ़ने लगी. गुलाब बाई राजीव के सामने आकर बैठ गयी.
"आप किसी ऊंचे घराने के लगते हैं, आपका नाम क्या है.?" गुलाब बाई ने मीठे स्वर में पूछा.
"जी, मेरा नाम राजीव है.... मां जी मेरी संध्या यहीं है न ?" राजीव की आंखों में हल्की सी चमक आ गयी. वह उत्सुकता पूर्वक गुलाब बाई की ओर देखने लगा. तब तक शबाना श्वेता की तस्वीर लेकर आ गयी. तस्वीर राजीव को दिखाती हुई गुलाब बाई आत्मीय भाव से पूछने लगी -"राजीव बाबू, क्या आपकी संध्या यही है?"
"हां हां यही है मेरी संध्या." गुलाब बाई के हाथ से श्वेता की तस्वीर लेकर अपलक उसे निहारते हुए विकल स्वर में बोला राजीव -"कहां है मेरी संध्या, मां जी, प्लीज़ मेरी संध्या को बुलवा दीजिए, उसके बिना मैं जिन्दा नहीं रह पाऊंगा. मेरी बुआ जी से थोड़ी सी गलती हो गयी, इसी वजह से वह रूठकर यहां चली आयी है. मैं उससे माफी मांग लूंगा, वह जरूर मुझे माफ कर देगी." श्वेता की तस्वीर को सीने से चिपका कर राजीव करूण विलाप करने लगा. अब तक इस कोठे पर ऐसा एक भी आशिक नहीं आया था. यहां जो भी आता था, वह मुहब्बत की झूठी डींगे हांकनेवाला. आज पहली बार शबाना एक सच्चे आशिक को देख रही थी. राजीव की हालत देखकर उसका हृदय कसक उठा और उसकी आंखें सावन-भादो बन गयी. गुलाब बाई के साथ साथ अन्य लड़कियां भी सिसकने लगी. शबाना राजीव के सामने घुटनों के बल बैठ गयी और अपने दुपट्टा से उसके आंसू पोंछती हुई करुण स्वर में बोली -"राजीव बाबू, हमारा यकीन कीजिए, आपकी संध्या यहां नहीं आयी है.
"झूठ बोलती हैं आप." तड़पते हुए चीख पड़ा राजीव.
"मैं आपके चरणों की सौगंध खाकर कहती हूं, राजीव बाबू कि आपकी संध्या यहां नहीं है. संध्या आपकी प्रेमिका बाद में बनी, पहले वह मेरी सहेली श्वेता थी. भले ही मैं एक तवायफ हूं, मगर अपनी सहेली के आशिक से झूठ नहीं बोल सकती." संध्या ने कुछ इस अंदाज में कहा कि राजीव को विश्वास हो गया कि संध्या यहां नहीं है. उसने आस्तीन से अपने आंसू पोंछ डाले. और उठकर खड़ा हो गया. फिर गुलाब बाई की ओर देखते हुए करुण स्वर में बोल पड़ा -"मां जी, मैं ही अभागा हूं. बचपन में ही मेरी मां मुझसे बिछुड़ी गयी. मेरी सौतेली मां ने मुझे इतनी यातनाएं दी कि मैं कोमा में चला गया. मेरी ज़िन्दगी वापस लाने के लिए पिताजी पानी की तरह पैसा बहाने लगे, मगर व्यर्थ. तभी आपकी बेटी देवी बनकर मेरी ज़िन्दगी में आयी और मुझ अभागे को उसने मां की ममता दी. प्रेमिका का प्यार दिया और पत्नी बनकर रात-दिन मेरी सेवा की. मगर मेरा दुर्भाग्य देखिए बेरहम दुनिया की इस भीड़ में वह भी मुझसे बिछड़ गयी." राजीव की इन जज़्बाती बातों को सुनकर सभी का कलेजा फटने लगा. कुछ पल मौन रहने के पश्चात राजीव याचना भरे स्वर में गुलाब बाई से बोला -
"मां जी, संध्या तो मुझे नहीं मिली क्या मैं उसकी यह तस्वीर अपने साथ ले जा सकता हूं. प्लीज़, इंकार मत कीजिएगा. मेरे जीने का सहारा उसकी यह तस्वीर ही होगी. ये सारे रुपए आप रख लीजिए." नीचे पड़े रुपयों रुपयों की ओर इशारा करते हुए राजीव ने कहा. गुलाब बाई रुपए लेने से इंकार करती हुई बोली -
"बेटा, हम तवायफों को वेश्या और गलीज समझा जाता है. बड़ी घिनौनी जिन्दगी है हमारी. सभी हमसे नफ़रत करते हैं. और यह भी सच है कि हम तवायफें दौलत की भूखी होती हैं, मगर मैं इतनी गिरी हुई नहीं हूं कि किसी सच्चे प्रेमी के दर्द को न समझ सकूं. इस कोठे पर आने वाले सारे के सारे मर्द भूखे भेड़िए की तरह हमारे शरीर को नोचने को बेताब रहा करते हैं. लेकिन तुम पहले मर्द हो जिसने मांजी कहकर मुझे इतना ऊंचा सम्मान दिया है. मुझे फ़ख्र है कि मेरी बेटी ने तुझ जैसे सच्चे इंसान से प्यार किया. मैं खुद दुःखी हूं बेटा कि मेरी बेटी श्वेता मुझसे बिछड़ करश्रन जाने कहां गुम हो चुकी है. मैं उससे दौलत कमाना चाहती थी न.... मैं पापिनी हूं. अब यदि वह मुझे मिल जाएगी तो अपनी सारी दौलत उस पर न्यौछावर करके खुद साध्वी बन जाऊंगी. यह तस्वीर और ये रुपए तुम ले जाओ." गुलाब बाई ने रुपए समेट कर राजीव को थमा दिया. राजीव कुछ बोला नहीं. नीचे झुककर उसने नेकलेस का डिब्बा उठाया और शबाना को देते हुए विनती करने लगा -" देखिए, मैं आपका नाम नहीं जानता, मगर आपने कहा कि आप मेरी संध्या की सहेली हैं. यह उपहार बड़े अरमान से मैं अपनी संध्या के लिए लाया था. लेकिन वह तो मिली नहीं, इसलिए इसे आप स्वीकार कर लीजिए."
"कैसी बातें करते हैं राजीव बाबू? अपनी सहेली के साथ मैं गद्दारी करूं? ना....यह ना होगा मुझसे. हम इस कोठे पर अपनी अदाएं बेचती हैं, लेकिन अपनी गैरत बेच दें, इतनी गिरी हुई नहीं हैं हम. मेरा दिल कह रहा है कि आपकी संध्या एक न एक दिन आपको मिलेगी जरूर. जब वह मिल जाए तब उसे लेकर एकबार यहां आइएगा, मैं आप दोनों को आरती उतारूंगी और अपने ही हाथों से उसे दुल्हन की तरह सजा कर यहां से विदा करूंगी." शबाना अपने मुंह में दुपट्टा ठूंस कर फफक फफक कर रो पड़ी.
"चुप हो जाइए, मत रोइए. संध्या मेरे जीने का मकसद थी, फिर भी मैंने धैर्य धारण कर लिया. आप लोग भी आपने दिल को तसल्ली दीजिए. अच्छा अब मैं चलता हूं." राजीव श्वेता की तस्वीर को सीने से चिपकाए बैग और डिब्बा लिये हुए सीढ़ी की ओर बढ़ गया. सभी इस सच्चे प्रेमी को तब तक नम आंखों से देखती रही, जब-तक कि वह उनकी आंखों से ओझल न हो गया.
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क्रमशः......!
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