✍ सनी 


दिल्ली में भाजपा सरकार ग़रीबों की बस्तियों को तेज़ी से तोड़ने की योजना लागू कर रही है। विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा ने ‘जहाँ झुग्गी वहाँ मकान’ का वायदा किया था, लेकिन मोदी के हर खाते पन्द्रह-पन्द्रह लाख वाली बात की तरह यह भी जुमला ही निकला। दिल्ली सरकार ने अपने कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने पर यमुना नदी सफ़ाई, जल-भराव और प्रदूषण को रोकने और शहरी विकास के लिए ख़ुद की गोदी मीडिया से भी ज़्यादा तारीफ़ की। लेकिन यह सब मृग-मरीचिका है क्योंकि प्रदूषण में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आया है और दिल्ली में मानसून आगमन पर पहली और दूसरी बारिश में ही दिल्ली की सड़कों पर जल-भराव हो गया है और “साफ़” यमुना अभी केवल भाजपा के नेताओं की ज़ुबाँ पर ही है! एक चीज़ जो रेखा गुप्ता सरकार ने की है वह है दिल्ली की झुग्गियों को तोड़ने का काम। दिल्ली में जगह-जगह झुग्गीवासियों को एक दिन पहले या दो-तीन दिन पहले झुग्गी खाली करने का ऑर्डर देकर भारी पुलिस बल की मौजूदगी में झुग्गियाँ तोड़ी गयी हैं। वज़ीरपुर, मद्रासी कैम्प, वज़ीराबाद, जेलर बाग़, भूमिहीन कैम्प से लेकर कई जगह झुग्गी तोड़ने की कार्रवाई दिल्ली सरकार के निर्देश से हो रही है। कहीं नाला सफ़ाई, कहीं सड़क बनाने और कहीं रेलवे की ज़मीन खाली करवाने के नाम पर झुग्गियाँ तोड़ी जा रही हैं। इस कवायद को दिल्ली के अमीरों और मध्य वर्ग के एक हिस्से का भी समर्थन हासिल है जो झुग्गीवालों द्वारा दिल्ली के “सौन्दर्य” पर बट्टा लगने पर नाखुश रहता है। झुग्गियों की गन्दगी और उनमें पलने वाली बीमारियों से चिन्तित अमीर इस बला को शहर से दूर कर देना चाहते हैं लेकिन सच तो यह है कि झुग्गियों में पनप रही ऐसी बीमारियों से वे भी बच नहीं पाते हैं! यह एक ऐसा श्राप है जिससे पूँजीपति बच नहीं सकते चाहे वे मज़दूरों की रिहाइश को शहर से कितना ही दूर धकेलने की कोशिश करें! मज़दूरों की ये बस्तियाँ, जहाँ ऐसी बीमारियाँ पलती हैं जिनका इलाज सालों पहले खोज लिया गया था, रह-रहकर अमीरों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं। मज़दूर वर्ग के शिक्षकों में से एक फ़्रेडरिक एंगेल्स, अपनी रचना ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा’ में इसी सच्चाई पर रोशनी डालते हुए लिखते हैं:

“हैजा, टाइफ़स, टाइफाइड बुखार, चेचक तथा अन्य विनाशकारी बीमारियाँ मज़दूर वर्ग के इन मोहल्लों की प्रदूषित हवा तथा ज़हरीले पानी में अपने रोगाणु फैलाती हैं। यहाँ रोगाणु कभी पूरी तरह नहीं मरते और अपने लिए परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही वे महामारियों का रूप ग्रहण कर लेते हैं और फिर अपनी जन्मस्थली के पार पहुँचते हुए शहर के उन अधिक हवादार और आरोग्यकर स्थानों में फैल जाते हैं जहाँ पूँजीपति बसे हुए हैं। पूँजीवादी शासन के लिए मज़दूर वर्ग के बीच महामारियों को पैदा होने देना एक ऐसी अय्याशी होगी जिसकी सज़ा से वह बच नहीं सकता। उसके परिणाम उल्टे पूँजीपतियों पर भी मार करते हैं, यमराज उनके बीच उतना ही रौद्र रूप धारण करता है जितना मज़दूरों के बीच।” (एंगेल्स, ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा’)

कोरोना काल में एंगेल्स का यह कथन बिलकुल सटीक सिद्ध हुआ था। महामारियों और झुग्गी बस्तियों में साफ़-सफ़ाई की समस्या भी व्यवस्था द्वारा जनित है लेकिन इसका ख़ामियाज़ा आम तौर पर मज़दूरों को ही उठाना पड़ता है। एक तरफ़ सरकार झुग्गीवासियों के लिए आवास की सुविधा उपलब्ध नहीं कराती है और दूसरे तरफ़ उनके घरों को उजाड़ती रहती है। वैकल्पिक आवास की सुविधा मुहैया किये बिना लोगों को बेघर न करने सम्बन्धी सुप्रीम कोर्ट के कई फ़ैसलों और सरकारी  क़ानूनों की बातें कागज़ी और खोखली सिद्ध होती हैं। झुग्गियों को समय-समय पर तोड़ने का फ़रमान जारी किया जाता रहता है। विपक्षी दल ऐसे समय में अपने वोट बैंक को सुनिश्चित करने के लिए ग़रीबों के पक्ष में बयानबाज़ी करते हैं। इस बार भी यही हुआ। दिल्ली में झुग्गियों को तोड़ने के बाद फ़ासीवादी भाजपा सरकार की मुख्यमन्त्री रेखा गुप्ता ने अपने फ़ासीवादी गुरुओं से ही सीख लेते हुए कहा कि दिल्ली में कोई भी झुग्गी नहीं टूटी है! ‘जहाँ झुग्गी वहाँ मकान’ केवल जुमला ही रहा और भाजपा ने इस जुमले से झुग्गीवासियों से वोट भी हासिल किये। लेकिन अब ‘जहाँ झुग्गी वहाँ बुलडोज़र’ के नारे पर रेखा गुप्ता अमल करने में लगी हुई हैं।

झुग्गियों को तोड़ा जाना वैसे कोई नयी बात नहीं है; दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता से लेकर मुम्बई जैसे महानगरों में यह समय-समय पर होता रहता है। लगातार फैलते हुए शहरों से झुग्गियों को शहर के मध्य से ध्वस्त कर मज़दूरों को शहर के किनारे बसाया जाता है। दिल्ली में मेट्रो विहार, नरेला से लेकर बवाना जे जे कॉलोनी, मंगोलपुरी तक कई कॉलोनियाँ पहले भी दिल्ली में “विकास” के नाम पर उजाड़कर बसायी गयी हैं। कुछ मेट्रो के लिए, तो कुछ निजी अस्पतालों के लिए, तो कुछ मॉल, फैक्ट्रियों या अमीरों की कॉलोनियों के लिए। दिल्ली में झुग्गियों में रहने वाली आबादी को विस्थापित कर शहर के किनारे बसे औद्योगिक क्षेत्रों में धकेलने की योजना को कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सरकारें भी अमल में लाती रही हैं लेकिन जिस गति से और बेशर्मी के साथ भाजपा सरकार यह करने में लगी है वह अभूतपूर्व है। 2009 में कॉमनवेल्थ खेलों के लिए झुग्गियाँ तोड़ने और 2015 में शकूर बस्ती में झुग्गियों को तोड़ने के दौरान हुई एक बच्ची की मौत ने ग़रीबों के प्रति सरकारों का रुख ख़बर बना था लेकिन इसके बाद भी यह हर साल जारी रहा। यह अकारण नहीं है। इसके कारण व्यवस्था-जनित हैं। एंगेल्स ‘आवास का प्रश्न’ पुस्तिका में मज़दूरों के शहरों में गाँव से उजाड़कर बसने और लगातार विकसित होते शहरों में उजड़ने की प्रक्रिया को पूँजीवाद में शहरों की आम प्रवृत्ति बताते हैं:

“एक ओर देहाती श्रमिक सहसा बहुत बड़ी तादाद में बड़े शहरों की ओर खिंचे आते हैं जो औद्योगिक केन्द्र बन जाते हैं; दूसरी ओर इन पुराने शहरों में मकान-निर्माण व्यवस्था बड़े पैमाने के नये उद्योग और उसी हिसाब से बढ़ने वाले यातायात के अनुरूप नहीं रह जाती। सड़कें चौड़ी की जाती हैं, नयी सड़कें बनायी जाती हैं, ठीक शहरों के बीच रेलवे लाइनें बिछायी जाती हैं। ठीक उसी समय, जब मज़दूरों की भारी भीड़ शहरों में पहुँचती रहती है, मज़दूर बस्तियाँ बहुत बड़े पैमाने पर गिरा दी जाती हैं।” (एंगेल्स, ‘आवास का प्रश्न’)

आगे एंगेल्स कहते हैं:

“बड़े आधुनिक शहरों के विस्तार के कारण उनके कुछ भागों में, विशेष रूप से केन्द्रीय भागों में ज़मीन को कृत्रिम रूप से बढ़ाये गये मूल्य, अक्सर अपरिमित रूप से बढ़े हुए मूल्य पर बेचा जाता है; इन इलाक़ों में बनी इमारतें इस मूल्य को बढ़ाने के बजाय उसे घटाती हैं क्योंकि ये इमारतें परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप नहीं रह जातीं। उन्हें गिरा दिया जाता है तथा उनकी जगह नयी इमारतें बनायी जाती हैं। यह सर्वोपरि केन्द्रीय इलाक़ों में स्थित मजदूरों के मकानों के साथ होता है, जिनके किराये अधिकतम भीड़ के बावजूद एक निश्चित अधिकतम सीमा से या तो कभी बढ़ ही नहीं सकते या फिर बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं। ये मकान गिरा दिये जाते हैं और उनकी जगह पर दुकानें, गोदाम तथा सार्वजनिक इमारतें खड़ी की जाती हैं।” (एंगेल्स, ‘आवास का प्रश्न’)

पूँजीवाद में एक तरफ़ गाँव से शहरों की ओर प्रवास जारी रहता है और दूसरी तरफ़ शहर फैलते रहते हैं जिसमें शहरी “विकास” हर-हमेशा ग़रीबों की बस्तियों को उजाड़ने की क़ीमत पर किया जाता है। जो सीमित वैकल्पिक आवास मज़दूरों को मुहैया कराये जाते हैं वे मज़दूरों के रोज़गार के स्थान से दूर तथा अस्पताल, शिक्षा, पानी, बिजली जैसी सुविधाओं से रिक्त होते हैं। दिल्ली में बवाना और नरेला में झुग्गियों को उजाड़कर बसायी झुग्गी-झोंपड़ी क्लस्टर के मकान झुग्गियों से भी बदतर जीवन स्थिति देते हैं। झुग्गी-मुक्त शहर के दावे झूठे और बेमानी हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार ही भारत में 6.5 करोड़ झुग्गीवासी थे और क़रीब एक लाख झुग्गियाँ थीं। ये झुग्गियाँ पटरी किनारे, नाले किनारे या शहर के कोनों में बसी होती हैं जहाँ बिजली, पानी, सीवर, शौचालय, सड़क से लेकर साफ़-सफ़ाई की समस्या हमेशा रहती है। हालाँकि कई रिपोर्टें बताती हैं कि यह आँकड़ा सटीक नहीं था और असल संख्या 14-15 करोड़ है। आज यह संख्या इससे अधिक ही है। यही झुग्गियाँ और सरकार द्वारा मज़दूरों को दिये गये वैकल्पिक आवास बीमारियों का गढ़ हैं जहाँ संविधान और अकादमिक मानकों से मानव अधिकार की परिभाषा भी यहाँ आते-आते दम तोड़ने लगती है। यह हाल तब है जब 2011 में जनगणना के अनुसार ही एक करोड़ से ज़्यादा मकान ख़ाली थे। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ख़ाली मकानों की संख्या आज 2 करोड़ से भी अधिक है। क्या जिस देश में 20 लाख लोग बेघर हों और करोड़ों लोग झुग्गियों में रहने को मजबूर हों तो वहाँ खाली पड़े मकानों को ज़रूरतमन्द लोगों को नहीं दिया जा सकता है? इस सवाल का जवाब है: नहीं! जब तक पूँजीवादी उत्पादन पद्धति मौजूद रहेगी यह नहीं किया जा सकता है। मकान का किराया राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियमों से संचालित होता है। मकान मालिक किरायेदार से मकान के अस्थायी इस्तेमाल के लिए एक राशि लेता है। यह सामान्य माल विनिमय है यानी मालिक मकान और उसके उपभोक्ता किरायेदार के बीच होने वाला विनिमय। एंगेल्स बताते हैं कि मकान के किराये में, ज़मीन का किराया, निर्माण पूँजी का ब्याज, मरम्मत आदि का ख़र्च शामिल होता है। एंगेल्स कहते हैं कि:

“मकान-किराया…जिन चीज़ों को लेकर बनता है, वे इस प्रकार हैं-1) एक हिस्सा जो ज़मीन के किराये का होता है, 2) एक हिस्सा जो निर्माण पूँजी पर ब्याज का होता है, जिसमें निर्माता का मुनाफ़ा भी शामिल है, 3) एक हिस्सा जो मरम्मत तथा बीमे पर जाता है, 4) एक हिस्सा जिससे मुनाफ़ा समेत निर्माण पूँजी का, उस हिसाब से जिस हिसाब से मकान का धीरे-धीरे मूल्य-ह्रास होता है, वार्षिक प्रतिशोधन करना पड़ता है।” (एंगेल्स, ‘आवास का प्रश्न’)

ऐसे में यह सोचना कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में मकान का मालिक अपनी निर्माण पूँजी पर ब्याज, मरम्मत ख़र्च और ज़मीन का किराया छोड़ देगा शेखचिल्ली का सपना होगा। मज़दूरों का शहरों में प्रवास उनके लिए बनाये गये मकानों के अनुपात में हमेशा ज़्यादा होता है। एंगेल्स यह भी कहते हैं कि जब मकान का किराया मालिक का अधिकार ही नहीं बल्कि “कर्त्तव्य” हो तब मज़दूरों की रिहाइश की समस्या को सहज ही समझा जा सकता है। आवास की कमी, गन्दी झुग्गी-बस्तियों की बसाहट और बेघर लोगों का सड़कों, रैन बसेरों और पुलों के नीचे सोने का कारण मौजूदा सामाजिक ढाँचे में है। एंगेल्स बताते हैं:

“मज़दूर बड़े शहरों में बड़े समूहों में उससे ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से ठूँसे जाते रहते हैं जिस रफ़्तार से विद्यमान परिस्थितियों में उनके लिए मकान बनाये जाते हैं; जिसमें इस कारण गन्दे से गन्दे बाड़ों तक के लिए हमेशा किरायेदार मिल जायेंगे; और जिसमें अन्ततः मकान मालिक को पूँजीपति की हैसियत से यह अधिकार ही नहीं है अपितु प्रतियोगिता के कारण उसका कुछ हद तक यह कर्त्तव्य भी है कि वह अपने मकान से बेरहमी से अधिक से अधिक भाड़ा कमाये। इस तरह के समाज में आवास की कमी कोई संयोग की बात नहीं है, यह तो एक आवश्यक संस्थान भी है और उसे सेहत, आदि पर पड़ने वाले तमाम कुप्रभावों समेत तभी मिटाया जा सकता है जब पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था के, जिससे वह जन्म लेती है, आधार का पूर्ण पुनर्गठन कर दिया जायेगा।” (एंगेल्स, ‘आवास का प्रश्न’)

शहर के उन भागों में जहाँ मज़दूरों को रोज़गार मिलता है या उन्हें नागरिक सुविधाएँ मिल सकती हैं वहाँ पक्के मकानों का किराया देना उनके लिए सम्भव नहीं होता है। इसलिए लोगों के लिए पक्के मकानों की ज़रूरत के बावजूद भी 2 करोड़ से ज़्यादा मकान ख़ाली हैं क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आवास की यह माँग प्रभावी माँग नहीं है। यही आवास के संकट का कारण है। झुग्गी-बस्तियाँ शहरी भूदृश्य के अँधेरे कोनों और दरारों में बसती रहती हैं जिन्हें सरकार समय-समय पर बेरहमी से तोड़ती रहती है।

आवास की समस्या का हल मौजूदा व्यवस्था के भीतर सम्भव नहीं है; इसके समाधान के लिए समूची सामाजिक व्यवस्था के आधार का पूर्ण पुनर्गठन करना होगा। एंगेल्स अपनी पुस्तिका ‘आवास का प्रश्न’ में यह सिद्ध करते हैं कि आवास की समस्या का हल केवल सामाजिक क्रान्ति के द्वारा ही हो सकता है और साथ ही आर्थिक और नैतिक तौर पर इस सवाल का व्यवस्था के भीतर हल निकलने की कोशिश कर व्यवस्था को संजीवनी देने का काम करने वाले निम्नबुर्जुआ प्रूदों के समर्थकों और बड़े पूँजीपति वर्ग के मानवतावादी समर्थकों के तर्कों की धज्जियाँ उड़ा देते हैं। एंगेल्स बताते हैं कि आवास समस्या को, वर्ग समाज के द्वारा पैदा शहर और गाँव के बीच की महान अन्तरवैयक्तिक असमानता को ख़त्म कर ही हल किया जा सकता है:

“वर्तमान समाज में उसे किसी भी अन्य सामाजिक प्रश्न की तरह हल किया जाता है- माँग तथा पूर्ति के धीरे-धीरे आर्थिक समतलन के द्वारा, एक ऐसे हल द्वारा जो प्रश्न को फिर बार-बार पैदा करता है और इसलिए जो कोई हल है ही नहीं। इस प्रश्न को सामाजिक क्रान्ति कैसे हल करेगी, यह चीज़ हर मामले की परिस्थितियों पर ही निर्भर नहीं करती, अपितु कहीं अधिक व्यापक प्रश्नों से भी जुड़ी हुई है जिनमें से एक प्रश्न शहर तथा देहात के बीच विरोध का उन्मूलन है।

“चूँकि भावी समाज के संगठन के लिए कोई काल्पनिक प्रणालियाँ रचना हमारा काम नहीं है, इसलिए यहाँ इस प्रश्न का विवेचन करना सर्वथा निरर्थक होगा। परन्तु एक चीज़ निश्चित है- बड़े शहरों में यह सारी “मकानों की कमी” दूर करने के लिए मकान पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं बशर्ते उनका विवेकपूर्वक उपयोग किया जाये। यह स्वभावतः तभी हो सकता है जब मौजूदा मकान मालिकों के मकानों को हस्तगत करके मौजूदा गृहहीन मज़दूरों अथवा भीड़ भरे घरों में रहनेवाले मज़दूरों को उनमें बसा दिया जाये। सर्वहारा ज्यों ही राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेगा, तब सामाजिक कल्याण के हितों से प्रेरित इस तरह का पग उठाना उतना ही सुगम होगा जितना आधुनिक राज्य द्वारा अन्य प्रकार के सम्पत्तिहरण तथा रिहायशी घरों को अपने अधिकार में किया जाना।” (एंगेल्स, ‘आवास का प्रश्न’)

सर्वहारा ने राजनीतिक सत्ता हासिल कर रूस में आवास प्रश्न को हल कर दिखाया। सोवियत रूस में आवास सामाजिक था और किराये बेहद कम रखे जाते थे। सबसे कम वेतन पाने वाले मज़दूरों को अक्सर केवल दो या तीन रूबल प्रति माह देने होते थे, जो उनकी आय का लगभग 2% होता था। इसके अलावा, एक कम आय वाले व्यक्ति को उसी जगह के लिए अधिक आय वाले व्यक्ति की तुलना में कम किराया देना पड़ता था। मार्च 1919 में आठवीं पार्टी कांग्रेस के कार्यक्रम में घोषणा की गयी कि: “आवास की समस्या को हल करने के लिए सोवियत सत्ता ने पूँजीपतियों की सारी सम्पत्ति को पूरी तरह से अधिग्रहित कर लिया है और उन्हें नगर सोवियतों को सौंप दिया है; इसने शहरों के बाहरी इलाकों से पूँजीपतियों के घरों में बड़े पैमाने पर मज़दूरों का पुनर्वास करवाया; इसने इन घरों में से सबसे अच्छे घरों को मज़दूरों के संगठनों को सौंप दिया है।”

सोवियत रूस में न झुग्गी थी और न ही लोग बेघर थे और सभी नागरिकों को आवास का अधिकार था। यह केवल सामाजिक क्रान्ति के दम पर ही अर्जित किया जा सका। आज हमारे देश, हमारे शहर में मज़दूरों की जो जीवन स्थिति है उसकी ज़िम्मेदारी इस सामाजिक-आर्थिक पूँजीवादी व्यवस्था की बनती है। आवास का अधिकार इस व्यवस्था के लिए रोज़गार के अधिकार की ही तरह एक ऐसा सवाल है जो उसके सीमान्तों को उजागर करता है यानी यह एक ऐसी माँग है जिसे पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में पूरा नहीं किया जा सकता है और बतौर हिरावल हमारा यह कर्त्तव्य बनता है कि हम पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दिये गये इस वायदे को जनता के बीच उठायें और इस व्यवस्था का भण्डाफोड़ करें।

(मज़दूर बिगुल, जून 2025 से साभार)

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