धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (द्वितीय खंड)

मां सीता का प्रार्दुभाव

-- राम बाबू नीरव 

मिथिला राज्य पर इन्द्रदेव की वक्रदृष्टि पर चुकी थी. विगत कई वर्षों से यहां बारिश नहीं हुई. इस अनावृष्टि के कारण मिथिला राज्य में  हाहाकार मच गया. यह अनावृष्टि एक ऐसी विभिषिका के रूप में उभरी जो मानव जीवन के हर पहलुओं को झुलसाने लगी. जब आसमान से टपकने वाली बूंदें रूठ जाती है, तब धरती प्यासी हो उठती है. धीरे धीरे धरती में दरारें पड़ने लग जाती है. उन दरारों को देखकर ऐसा लगने लगता है जैसे धरती का कलेजा फट रहा हो. खेत जो कभी हरे-भरे होकर लहराया करते थे, अनावृष्टि के कारण सूखकर बंजर हो गये. बंजर हो चुके खेतों में किसानों की आशाएं धूलधूसरित हो गयी. किसान डबडबाई हुई आंखों से देख रहे थे मुरझा कर दम तोड़ चुके अपने फसलों को. धरती की तरह किसानों का कलेजा भी फटा रहा था. मिथिला की नदियां, तालाब, कुएं तक सूख चुके थे. अधिकांश नदी-नाले रेत के ढ़ेर बन चुके थे. पानी की तलाश में मनुष्यों  से लेकर पशु-पक्षियों तक दर-दर भटक रहे थे. राज्य की प्रजा दाने दाने को मुंहताज हो गयी. झुंड के झुंड लोग अपना राज्य छोड़कर पलायन करने लगे. अपनी प्रजा तथा मिथिला राज्य की दारुण दशा देखकर महाराज जनक का कलेजा फटने लगा. उन्होंने इन्द्रदेव को प्रसन्न करने‌ के लिए अनेकों धार्मिक अनुष्ठान ‌करवाए परंतु सब व्यर्थ.

अन्त में इस दारुण प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु आपातकालीन सभा बुलाई गई. उक्त सभा में राजदरबार के सभासदों से लेकर तेजस्वी ऋषि-मुनियों ने भी अपने अपने विचार रखे. सबसे अंत में महाज्ञानी और तेजस्वी ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने महाराज  जनक को संबोधित करते हुए अपना मंतव्य प्रकट किया-

"हे मिथिला राज्य के महाप्रतापी राजा जनक, इस महा प्राकृतिक आपदा से मुक्ति पाने का एक ही विकल्प रह गया है." याज्ञवल्क्य जी कुछ देर के लिए मौन हो गये. महाराज जनक के साथ साथ सभागार में उपस्थित सभी विद्वतजनों की दृष्टि उन पर जाकर स्थिर हो गयी. सबों के मन में उत्सुकता जग गयी. कुछ देर आत्म चिंतन करते रहने के पश्चात उन्होने सुझाव दिया -"महाराज जनक, वर्षा हेतु आपको हलेष्टी यज्ञ का अनुष्ठान करना होगा."

"यह हलेष्टी यज्ञ क्या है मुनिवर?" महाराज की जिज्ञासा बढ़ गयी. 

"वैदिक अनुष्ठान और होम-जाप के साथ आपको राज्य की ऐसी पवित्र भूमि पर हल चलाना होगा, जो आपके राज्य की राजधानी से आठ योजन दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में अवस्थित हो."

"परंतु मुनिवर ऐसी पवित्र भूमि की तलाश कैसे होगी.?" महाराज जनक की दुश्चिंता दूर नहीं हुई थी. 

"इसकी खोज कोई सिद्ध ज्योतिषाचार्य कर सकते हैं." याज्ञवल्क्य जी ने समाधान बताया.

"मुनिवर याज्ञवल्क्य जी के निर्देशानुसार शीघ्र ही उस पवित्र भूमि की खोज करके हलेष्टि यज्ञ की तैयारी आरंभ की जाए." महाराज जनक ने अपने मंत्रियों को आज्ञा दी. इसके साथ ही सभा समाप्त हो गयी.

सर्वप्रथम ज्योतिषाचार्यों ने गणना करके उस पवित्र भूमि की खोज मिथिला राज्य के पुनौरा नामक स्थल में की जो उन दिनों जंगलों से आच्छादित थी. जंगलों को कांट-छांट कर समतल भूमि बनाई गई. एक विशाल यज्ञकुंड बनाया गया. बड़ा सा पंडाल बना. याजकों (पुरोहितों) के लिए यज्ञ वेदी के निकट अनेकों आसान बिछाए गये. मुख्य याजक के रूप में मुनि याज्ञवल्क्य जी तथा यज्ञकर्ता (यजमान) के रूप महाराज जनक और उनकी धर्मपत्नी रानी सुनयना विराजमान हुई. महाराज जनक के पार्श्व में राजा कुशध्वज जनक तथा उनकी धर्मपत्नी रानी चन्द्रभागा बैठी थी. देवताओं के आह्वान तथा वैदिक मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ आरंभ हुआ. अग्नि कुंड प्रज्ज्वलित की गयी.  सर्वप्रथम महाराज जनक तथा महारानी सुनयना ने "ॐ नमः शिवाय" मंत्रोच्चार के साथ प्रज्ज्वलित यज्ञकुंड में समिधा अर्पित किया. फिर राजा कुशध्वज तथा रानी चन्द्रभागा ने‌ उनका अनुसरण किया.  समस्त वातावरण यज्ञकुंड से निकल रहे सुगंधित धुआं से सुवासित हो उठा. यह वैदिक अनुष्ठान सात दिनों तक चला. सातवें दिन बैशाख शुक्ल नवमी को पूर्णाहुति के साथ यह यज्ञ समाप्त हुआ. उसी दिन महाराज जनक ने दो वृषभों से जुड़े हुए हल को मंत्रोच्चार के साथ बंजर भूमि पर जोतना आरंभ किया. हल अभी कुछ ही दूर तक चला था कि उसका सीत (हल का अग्र भाग) किसी ठोस वस्तु से टकरा कर रूक गया. हल के रूकते ही महाराज सीरध्वज जनक के साथ साथ वहां उपस्थित सभी विद्वतजनों एवं प्रजा चकित रह गयी. महाराज ने उस स्थल को खोदने की आज्ञा दी. शीघ्र स्थल को खोदा गया. उस गड्ढे में से एक स्वर्ण मंजूषा निकली. उस स्वर्ण मंजूषा को देखकर वहां हलचल मच गई. यह जानने के लिए लोगों की जिज्ञासा प्रबल हो उठी कि आखिर उस मंजूषा में है क्या? महाराज ने स्वयं अपने हाथों से उस मंजूषा को खोला. उस मंजूषा में एक अनुपम सुन्दरी नवजात कन्या विहंस रही थी. उस कन्या को देखकर महाराज सीरध्वज जनक, महारानी सुनयना, राजा कुशध्वज जनक तथा रानी चन्द्रभागा के साथ साथ सभी साधु-संत और प्रजा आश्चर्य चकित रह गयी. अद्भुत थी वह बालिका. महाराज सीरध्वज जनक की आंखों में चमक आ गयी. वे अबतक नि:संतान थे. ईश्वर ने देवी स्वरूपा इस कन्या को भेजकर उनके मनोरथ को पूर्ण कर दिया. उपस्थित जन समूह हर्षित होकर जयकार मनाने लगा. महाराज ने उस बालिका को महारानी सुनयना की गोद में डाल दिया. महारानी सुनयना का मातृत्व जग गया और उन्होंने उस बालिका को अपनी छाती से चिपका लिया. तभी किसी चमत्कार की तरह आकाश में काले काले बादल उमड़ने घुमड़ने लगे. फिर देखते ही देखते झमाझम बारिश होने लगी. उपस्थित जनसमूह हर्षित होकर उन्मुक्त भाव से नाचने लगी. वर्षों बाद बारिश हुई थी. ऐसा लगने लगा जैसे आकाश से बारिश की बूंदें नहीं बल्कि अमृत की बूंदें बरस रही हों. वर्षों की प्यासी धरती की आत्मा तृप्त हो गयी. जनसमूह को मुंह हर्षित स्वर निकल पड़ा -"सीता मईया की जय." 

"जय.....जय." धरती से लेकर आकाश तक गूंज उठा इब जयघोष से.  चूंकि उक्त बालिका का प्रार्दूर्भाव सीत (हल के अग्रभाग) के घर्षण के साथ धरती (भूमि) के गर्भ से हुआ था इसलिए उस बालिका का नाम सीता और भूमिजा (धरती की बेटी) पड़ा.  इस धरती पर सीता के पावन चरणों के पड़ते ही झमाझम बारिश होने लगी, इसलिए मिथिला वासियों की दृष्टि में वे देवी स्वरूपा यानी मां थी. तभी महाराज जनक का ध्यान सीता की ओर गया. उनकी पुत्री बारिश में भींग रही थी. उन्होंने शीघ्र ही एक मड़ई (घासफूस की झोपड़ी) बनाने की आज्ञा दी. राज्यकर्मियों ने कुछ ही क्षणों में एक मड़ई का निर्माण कर दिया जहां महारानी सुनयना ने अपनी पुत्री को ले जाकर उसे बारिश में भींगने से बचाया. उस स्थान का नाम मां सीता के नाम पर पहले सीता मड़ई फिर सीतामही, उसके बाद सीतामढ़ी पड़ा. 

सीता नाम की वह कन्या कनकवर्णांगी थी.  उसकी आंखें कमल की पंखुड़ियों के समान, बाल काले और सुनहरे थे. उसके ओंठ लाल और कोमल थे. उस अद्भुत कन्या को पाकर महाराज जनक धन्य हो गये. मुनिश्री याज्ञवल्क्य ने उस कन्या के ललाट को देखकर कहा "यह कन्या भगवान विष्णु जी की प्रिया देवी लक्ष्मी जी का अवतार है." इतना सुनते ही पुनः जयघोष गूंज उठा -"मां सीता की जय"

"जय....जय....जय...!"

इस जय घोष से दसों दिशाएं गूंज उठी. आकाश से देवताओं के साथ देव कन्याएं भी पुष्प वृष्टि करने लगी. कहीं शंख बजने लगे तो कहीं दुंदुभी. पूरे मिथिला राज्य में आनंद ही आनंद जा गया. लोग उस सुकोमल कन्या में मां का दर्शन करने लगे. 

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   जैसे ही मां सीता के पावन चरण जनकपुर के राज महल में पड़े कि महाराज जनक को एक और खुशखबरी सुनने को मिली. महारानी सुनयना गर्भवती हैं. इस शुभ संवाद को सुनकर सिर्फ राजमहल में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मिथिला राज्य में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी. इस तरह महाराज जनक तथा मिथिला की प्रजा को एक साथ तीन तीन खुशियां मिली थी - देवी के रूप में मां सीता का आगमन, झमाझम बारिश की फुहार और महारानी सुनयना के गर्भवती होने का सुखद संवाद. इन तीनों खुशियों को लेकर पूरे मिथिला राज्य में लगातार कई दिनों तक दीपोत्सव मनाया गया.

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*राजा सुधन्वन*

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मिथिला राज्य के उत्तर-पूरब दिशा में एक छोटा सा राज्य था सांकास्य*. इस राज्य के राजा का नाम था सुधन्वन. राजा सुधन्वन दुष्ट और ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का था. वह महाराज जनक से ईर्ष्या भाव रखा करता था. जब उसे ज्ञात हुआ कि महाराज जनक को हल जोतते समय एक कन्या -रत्न की प्राप्ति हुई है और वह सुन्दर कन्या देवी महालक्ष्मी का अवतार है. अब तो वह दुष्ट राजा देवी स्वरूपा उस कन्या को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठा. सर्वप्रथम उसने अपने एक दूत को जनकपुर के राजदरबार में इस संवाद के साथ भेजा कि महाराज जनक धरती से प्राप्त उस दिव्य कन्या को मुझे सौंप दें अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहें. महाराज जनक भला उसकी धमकी से क्यों डर जाते. उन्होंने दूत को वापस भेजते हुए कहलवा दिया, सीता मेरी पुत्री है, उसपर कुदृष्टि रखने वाले की मैं आंखें निकलवा लूंगा." सुधन्वा अविवेकी था. अविवेकी मनुष्य अपने हाथों ही अपना सर्वनाश कर बैठता है._ ताव में आकर सुधन्वा ने विशाल मिथिला राज्य पर आक्रमण कर दिया. परंतु  उसकी मुट्ठी भर सेना महाराज जनक की चतुरंगी सेना के समक्ष नहीं टिक पायी. महाराज जनक ने युद्ध भूमि में सुधन्वा का भी वध कर डाला. अब साकांस्य राज्य महाराज जनक के अधीन हो चुका था. उन्होंने इस राज्य का राजा अपने अनुज  कुशध्वज जनक को बना दिया, परंतु राज्य की बागडोर अपने हाथ में ही रखी.

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क्रमशः........!

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*वर्तमान में हमारे पड़ोसी देश नेपाल में स्थित विराटनगर ही उन दिनों सांकास्य राज्य था. महाभारत में भी विराटनगर का उल्लेख मिलता है. उस काल में मत्स्य देश के नाम से प्रसिद्ध था.

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