धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)

पुत्रेष्टि यज्ञ

(राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न का जन्म)

*****

- राम बाबू नीरव 

अयोध्या के राजमहल में शोक व्याप्त था. इस शोक का कारण था, अबतक महाराज दशरथ का नि: संतान रहना. रानी कैकेई से विवाहोपरांत भी जब महाराज दशरथ को संतान की प्राप्ति न हुई तब उनके साथ साथ तीनों रानियों भी शोकाकुल हो उठी. राजा और रानियों के शोक को देखकर महल के सेवक सेविकाओं के दुःखों की भी कोई सीमा न रही. प्रजा भी राज्य के उत्तराधिकारी को न पाकर चिंतित थी. एक दिन दुश्चिंता की इसी स्थिति में महाराज दशरथ ने अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के साथ ऋषि वामदेव जबाली भी उनके कक्ष में पधारे. उस समय महाराज के कक्ष में उनके दरबार के आठों सुयोग्य मंत्रियों के साथ महामंत्री सुमंत जी तथा तीनों रानियां भी उपस्थित थी. उन सभी को वहां देखकर महर्षि वशिष्ठ समझ गये कि यहां किसी जटिल विषय पर चर्चा हो रही है. महाराज के साथ साथ अन्य सभी लोगों ने तीनों ऋषियों का अभिवादन किया. अपने आसन पर बैठते हुए महर्षि वशिष्ठ ने महाराज से पूछा -"इस समय मुझे क्यों स्मरण किया है अवधेश ने?"

"हमारी व्यथा से तो आप भली-भांति परिचित हैं गुरुवर." अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए बोले महाराज दशरथ -"अब मैं उम्र के तीसरे पड़ाव पर पहुंच चुका हूं. फिर भी अयोध्या के राजमहल में किसी बच्चे की किलकारी नहीं गूंजीं. अब इस आयु में संतान की इच्छा रखना व्यर्थ है. अब तो मेरी इच्छा हो रही है, राजपाट छोड़कर वानप्रस्थ ग्रहण कर लूं." महाराज की निराशाजनक बातें सुनकर उस कक्ष में सन्नाटा पसर गया. तीनों रानियां सुबकने लगी. सुमंत जी और सभी दरबारी आशाभरी दृष्टि से वशिष्ठ जी की ओर देखने लगे. कुछ देर‌ मौन रहने के पश्चात महर्षि वशिष्ठ बोले -"नहीं अयोध्या नरेश ऐसी निराशाजनक बातें न करें. इस तरह का नैराश्य भाव अपने मन में लाना आप जैसे प्रतापी राजा के लिए शोभनीय नहीं है."

"परंतु अब मेरी इस जटिल समस्या का कोई समाधान भी तो नहीं है गुरुदेव?"

"संसार की जटिल से जटिल समस्या का समाधान हो जाया करता है राजन्. आपकी इस समस्या का भी समाधान है." महर्षि वशिष्ठ मंद मंद मुस्कुराने लगे.

"क्या कहा आपने, हमारी समस्या का समाधान है.?"

 महाराज दशरथ के साथ साथ तीनों रानियों के मुखड़े पर प्रसन्नता का भाव उभर आया.  

"हां है, निश्चित रूप से है.!"

"कौन सा समाधान है?" विकल भाव सू पूछा महाराज ने.

"पुत्रेष्टि यज्ञ."

"पुत्रेष्टि यज्ञ." महाराज ने भी इस शब्द को दुहराया.

"हां."

"क्या इस यज्ञ के ऋत्विक आप होंगे."?

"नहीं....राजन् इस यज्ञ को पूर्ण कराएंगे आपके जमाता."

"मेरे जमाता?" महाराज दशरथ के साथ साथ तीनों रानियां भी बुरी तरह से चौंक पड़ी. 

"क्या आप अपनी पुत्री शान्ता को भूल गये?"

"नहीं.... नहीं मैं भूला नहीं हूं. परंतु मेरी पुत्री तो अंगराज की राजकुमारी है."

" आपकी पुत्री शान्ता अब राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री न रही, वह विभांडक ऋषि की पुत्र-वधु बन चुकी है. यानी विभांडक ऋषि के पुत्र ऋष्यशृंग की पत्नी. विभांडक ऋषि के पुत्र इन दिनों श्रृंगीऋषि के नाम से विख्यात हो रहे हैं. वही ऋष्यशृंग आपका यह पुत्रेष्टि यज्ञ पूर्ण कराएंगे. वे पुत्रेष्टि यज्ञ के मंत्रद्रष्टा हैं. इसके अतिरिक्त भी श्रृंगीऋषि ने अनेकानेक सिद्धियां प्राप्त की है. अतः राजन आप शीघ्र ही उन्हें ऋत्विक के रूप में आमंत्रित करने हेतु अंग देश के एक घने उपवन में स्थित उनके आश्रम में अपना दूत भेजें."

"ऋषिवर, मैं दूत नहीं भेजूंगा बल्कि स्वयं जाऊंगा अपनी पुत्री और जमाता के पास."

"मैं भी आपके साथ चलूंगी नाथ. अपनी पुत्री और जमाता को देखने की मेरी जिज्ञासा भी प्रबल हो रही है." महारानी कौशल्या विनती करती हुई बोल पड़ी.

"हां महारानी, आप भी चलिए." महाराज ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. महारानी की आंखें हर्षातिरेक से छलछला पड़ी.

                     *****

श्रृंगी ऋषि के आश्रम में

जैसे ही श्रृंगीऋषि के आश्रम में महाराज दशरथ का रथ रूका कि आश्रम में हलचल मच गई. जब श्रृंगीऋषि की पत्नी शान्ता ने सुना कि उनके जन्मदाता माता पिता आएं हैं तब वह भावविभोर हो उठी और अपने पति देव के साथ स्वयं भी आश्रम से बाहर आकर उन दोनों की यथोचित अभ्यर्थना करने लगी. उन दोनों की चरण वंदना करने के पश्चात वह अपनी माता से लिपट गयी. श्रृंगी ऋषि ने भी महाराज दशरथ की पिता की तरह चरण वंदना की. फिर राजा-रानी को अपने आश्रम में लाकर आश्रम की परंपरा के अनुरूप आदर-सत्कार किया.

जब महाराज जनक ने अपने जमाता को अपनी आंतरिक पीड़ा से अवगत कराया तब यह जानकर श्रृंगीऋषि आश्चर्य चकित रह गये कि अयोध्या नरेश महाराज दशरथ अब तक नि: संतान हैं. महाराज ने पुत्रेष्टि यज्ञ के ऋत्विक के रूप में श्रृंगीऋषि को आमंत्रित किया. युवा ऋषि ने उनके आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. शान्ता भी अपने माता-पिता के समक्ष अयोध्या जाने की इच्छा प्रकट करती हुईं बोली -

"पिताश्री यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं भी आपलोगों के साथ अयोध्या चलना चाहूंगी."

"पिता के घर आने के लिए पुत्री को आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती. चलो पुत्री अयोध्या के राजमहल में तुम्हारी अन्य दोनों माताएं भी तुम्हें देखकर प्रसन्न हो जाएंगी." पिता की आज्ञा पाकर शान्ता प्रसन्नता से झूम उठी. दूसरे दिन ही वे सभी तीव्रगामी रथ पर सवार होकर अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गए.

 अयोध्या के राजमहल में सचमुच रानी सुमित्रा तथा रानी कैकेई ने शान्ता तथा श्रृंगीऋषि का हार्दिक अभिनन्दन किया. रानी कैकेई बेटी स्वरूपा शान्ता को देखकर हर्षातिरेक से जहां फूली न समा रही थी, वहीं उनकी कुबरी मां मंथरा इर्ष्या रूपी अग्नि में जलने लगी. असल में मंथरा को सबसे अधिक जलन महारानी कौशल्या से थी. उसका दिल कौशल्या को अवध की महारानी मानने को तैयार ही न था. वह अपनी पाल्यपुत्री कैकेई को ही महारानी कहा करती थी. 

                     *****

पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान

महाराज दशरथ को निराशा के गहन अन्धकार में आशा की किरण दिखाई देने लगी. अब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि रघुकुल की वंश परंपरा निश्चित रूप से आगे बढ़ेगी. उन्होंने महामंत्री सुमंत जी को आज्ञा दी -"महामंत्री जी, रघुकुल के कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ जी तथा युवा ऋषि श्रृंगी के नेतृत्व में होने जा रहे पुत्र-कामेष्टि (पुत्रेष्टि) यज्ञ की तैयारी आरंभ की जाए."

"जो आज्ञा महाराज." महामंत्री सुमंत जी ने धूमधाम के साथ उस अनोखे यज्ञ की तैयारी आरंभ कर दी. अन्य तेजस्वी ऋषि-मुनियों के साथ साथ आर्यावर्त के प्रतिष्ठित राजघरानों के राजाओं को भी इस यज्ञ में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया गया. अंगदेश के राजा रोमपाद तथा उनकी धर्मपत्नी रानी वर्षिणी मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे. जहां राजा रोमपाद और रानी वर्षिणी के साथ साथ महारानी कौशल्या, रानी सुमित्रा तथा रानी कैकेई के माता-पिता को भी राजमहल में ठहराया गया, वहीं अन्य राजाओं एवं ऋषि-मुनियों के ठहरने की भी उत्तम व्यवस्था की गयी थी. 

इस महायज्ञ हेतु यमुना नदी के तट पर विशाल पंडाल का निर्माण करवाया गया. वहीं पर यज्ञकुंड भी बनवाया गया. पूरी अयोध्या नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया. फिर एक शुभमुहूर्त में यज्ञ का अनुष्ठान आरंभ हुआ. यज्ञ वेदी पर जहां मुख्य पुरोहित (ऋत्विक) के रूप में विभांडक ऋषि के पुत्र श्रृंगीऋषि विराजमान थे वहीं यजमान के रूप में महाराज दशरथ के साथ उनकी तीनों रानियां बैठी थी. पंडाल में एक हजार एक वेदज्ञ ऋषि-मुनियों द्वारा वेद पाठ किया जा रहा था. वैदिक ऋचाओं की ध्वनि दसों दिशाओं में गूंजने लगी. साथ ही यज्ञ कुंड से उठ रहे सुगंधित समिधाओं के सुगंध से पूरा वातावरण सुवासित हो उठा. महाराज दशरथ तथा उनकी तीनों रानियां श्रृंगीऋषि के साथ पुत्र प्राप्ति हेतु -"ऊॅं आं सं ओ." मंत्र का जाप पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ करने लगे. लगातार सात दिनों तक वैदिक मंत्रोच्चार तथा होम के साथ यह अनुष्ठान चलता रहा. इस पवित्र अनुष्ठान में अयोध्या वासियों ने भी पूरी निष्ठा और श्रद्धा भाव से भाग लिया. अयोध्या वासियों को भी उत्तराधिकारी की कामना थी. अंतिम दिन यह महायज्ञ इस वैदिक मंत्रोच्चार के साथ सम्पन्न हुआ -

"ऊॅं पूर्ण मद: पूर्ण मिदं पूर्णात् पूर्ण मूदच्यते!

पूर्णस्थ पूर्णमादाय पूर्ण मेवावे शिष्यते !!"

अर्थात : वह प्रमात्मा पूर्ण है, यह जगत भी पूर्ण है. पूर्ण (परमात्मा) पूर्ण (जगत) से उत्पन्न होता है. पूर्ण (परमात्मा) पूर्ण (जगत) को मिलाने पर भी पूर्ण (परमात्मा) ही शेष बचता है.

इसके बाद सम्पूर्ण संसार के कल्याण हेतु गायत्री मंत्र वातावरण में गूंजने लगा -

"ऊॅं भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणं भर्गो देवस्य धिमही धियो यो न: प्रचोदयात्!"

अर्थात : हे प्रमाणस्वरूप दु:ख नाशक, सुख स्वरूप श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव‌ता स्वरूप परमात्मा! आपके उस उत्तम (दिव्य) प्रकाश का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे."

गायत्री मंत्र के जाप के बाद शान्ति मंत्र का समूह पाठ आरंभ हुआ

"ऊॅं असतो मा सद्गमय !

तमसो मा ज्योतिर्गमय!!

मृत्यार्मा अमृता गमय."

 -"ऊॅं शान्ति शान्ति शान्ति."

अर्थात : हे परम पिता परमेश्वर! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो!! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले‌ चलो !!! सर्वत्र शान्ति ही शान्ति हो!

इस शान्ति मंत्र के साथ ही यज्ञ सम्पन्न हुआ. जैसे ही यज्ञकुंड में पूर्णाहुति दी गई कि यज्ञ कुंड से अग्नि देव प्रकट हुए. उनके हाथ में एक दिव्य पात्र था, जिसमें अभिमंत्रित चुरु (खीर)* था. महाराज दशरथ तथा उनकी रानियों के साथ साथ वहां उपस्थित नगरवासियों ने अग्नि देव की अभ्यर्थना की. अग्नि देव वह पात्र महाराज दशरथ को सौंप कर अन्तर्ध्यान हो गये. 

"इस पात्र का मैं क्या करूं.?" महाराज ने श्रृंगीऋषि से पूछा. 

"महाराज, इस को लेकर अपनी तीनों रानियों के साथ अपने कुलदेवता के मंदिर में ले जाएं और इस पात्र को कुल देवता के समक्ष रखकर उनकी विधिवत पूजा-अर्चना करें. तत्पश्चात पात्र में रखे नैवेद्य (चुरु/खीर) अपनी तीनों रानियों के बीच वितरित कर दें. अग्नि देव की कृपा से आपकी तीनों पत्नियां निश्चित रूप से गर्भवती हो जाएंगी." महाराज तथा तीनों रानियों ने वहां उपस्थित सभी ऋषियों की चरण वंदना की फिर कुल देवता के मंदिर की ओर चल दिये.

              *****

महाराज दशरथ ने अपनी ‌रानियों के साथ कुल देवता की पूजा-अर्चना करने ‌के पश्चात अग्नि देव द्वारा दिए गए उस प्रसाद को अपनी तीनों रानियों के बीच बराबर बराबर वितरित कर दिया, परंतु महारानी कौशल्या ने‌ अपने हिस्से में से आधा भाग रानी सुमित्रा को दे दिया, रानी ‌कैकेई ने अपने हिस्से का आधा भाग सुमित्रा को ही दे दिया. कुछ दिनों पश्चात महाराज दशरथ को खुशखबरी सुनने को मिली -"तीनों रानियां गर्भवती हो चुकी हैं." 

जिस दासी ने महाराज को यह खुशखबरी सुनाई थी, उसे महाराज ने अपने गले से बहुमूल्य मोतियों की माला निकाल कर उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया. फिर वे प्रसन्नचित्त भाव से एकाएकी तीनों रानियों के कक्ष में गये. रानियों ने भी उन्हें खुशखबरी सुनाकर आश्वस्त कर दिया. महल की दासियां उपहार पाने हेतु महाराज के समक्ष उपस्थित होकर रघुकुल के साथ साथ उनकी भी जयकार मनाने लगी. महाराज ने सबों को बहुमूल्य उपहार प्रदान कर अपनी उदारता का परिचय दिया. 

                *****

यथा समय तीनों रानियों ने सुन्दर सलोने बालकों को जन्म दिया. महारानी कौशल्या और रानी कैकेई के गर्भ से जहां एक एक पुत्र उत्पन्न हुए, वहीं रानी सुमित्रा के गर्भ दो पुत्रों का जन्म हुआ.* महाराज दशरथ, कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ, महामंत्री सुमंत तथा अयोध्यावासियों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. राजमहल के साथ-साथ पूरी अयोध्या नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया. राजमहल से लेकर अयोध्या के प्रत्येक घरों की स्त्रियां मंगल गीत (सोहर) गाने लगी. राजमहल के कंगुरों से लेकर नगर के प्रत्येक घरों की छतों पर शाम ढ़लते ही घी के दिये जगमगाने लगते. पूरे पन्द्रह दिनों तक दीपोत्सव मनाया गया.

देवलोक से देवता से लेकर देवकन्याएं उन अलौकिक बालकों पर पुष्प वृष्टि करने लगी.

एक शुभ मुहूर्त में महर्षि वशिष्ठ, वामदेव, जबाली आदि आचार्यों ने उन बालकों का नामाकरण किया. महारानी कौशल्या के पुत्र का नाम पड़ा राम, जो चारों भाइयों में सबसे बड़े थे. कैकेई के पुत्र, जो राम से छोटे थे, का नाम पड़ा भरत. रानी सुमित्रा के जुड़वां पुत्रों में से बड़े का नाम पड़ा लक्ष्मण. लक्ष्मण से छोटे का नाम शत्रुघ्न रखा गया. इन चारों भाइयों में सबसे अद्भुत थे श्रीराम जी. स्याह रंग परंतु अति सुन्दर और मनोहारी छवि, कोमल अंग. अधरों पर मृदुल मुस्कान और ललाट पर तेजस्विता का प्रभाष. उनका मुखमंडल चन्द्रमा के समान शान्त और प्रकाशमान था. आंखें कमल के समान विशाल और सुन्दर थे. उनकी आंखों से प्रेम और करुणा टपका करती थी. उनका नाक इतना सुडौल और मुखमंडल के अनुरूप था, जो उनके सौंदर्य में श्रीवृद्धि कर रहा था. उनके ओंठ ऐसी लालिमा लिए हुए थे, जैसे उगता हुआ सूर्य हो. इन लाल लाल ओठों के कारण उनकी तेजस्विता और भी ‌निखर गयी थी. वहीं इनके बाल काले काले घुंघराले थे. इनकी तीनों माताओं के साथ साथ महल की दासियां भी इन्हें रामलला कहकर पुकारने लगी.

रामलला की तरह ही इनके तीनों भाइयों का का रूप भी अपरूप था. महाराज दशरथ के साथ साथ उनकी तीनों रानियां भी उनके रूप को देख कर हर्षित होतीं. हर्षातिरेक से उनकी पलकें भींग जाया करतीं. इन चारों भाइयों को महारानी कौशल्या अपने हाथों से स्नान कराती, रानी सुमित्रा इनके बाल गूंथकर इनका श्रृंगार करती और रानी कैकेई इनकी आंखों में काजल और मस्तक पर कुंकुम लगाती. इस तरह से उनका सौंदर्य निखिल उठता. इन चारों भाइयों को जब इनकी माताएं पालने में झुलाती हुई लोरियां गाने लगती तब महल की दासियां आनंद विभोर हो कर नृत्य करने लगती. इस तरह चारों भाइयों की किलकारी तथा पायलों की झंकार से महल गुंजायमान होने लगा. महाराज दशरथ दिन भर में कई कई बार महल में आकर पुत्रों को देखकर हर्षित होते. इन चारों में राम सबसे अलग थे, अद्भुत थे. 

महर्षि वशिष्ठ की भविष्यवाणी

जब राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ठुमुक ठुमुक कर चलने लगे तब महाराज दशरथ ने उन चारों का भविष्य जानने के लिए अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के साथ साथ वामदेव और जबालिक को भी महल में आमंत्रित किया. महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम के ललाट को देखकर बताया -"ये कोई साधारण बालक नहीं हैं. असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी श्रीराम भगवान विष्णु के अंशावतार हैं. राक्षसों का विनाश करने हेतु ही इन्होंने मनुष्य रूप में अवतार लिया है. आगे चलकर ये न सिर्फ कुशल धनुर्धर बनेंगे बल्कि इनमें सद्गुणों का भंडार समाहित होगा. ये सहनशील, धैर्यवान, दयालु, अच्छे लोगों के मित्र, नेतृत्वकर्ता, आदर्श भ्राता, सत्यवादी, मातृ-पितृ भक्त, आज्ञाकारी, धर्मनिष्ठ तथा ज्ञानवान के रूप में जाने जाएंगे. इनके तीनों भाई भी इनके ही पदचिन्हों पर चलने वाले आदर्श पुत्र, आज्ञाकारी तथा आदर्श भाई के रूप में पूजित होएंगे. परंतु इनके प्रारब्ध में कष्ट भोगना लिखा है.

"कष्ट, कैसा कष्ट?" महाराज दशरथ के साथ साथ तीनों रानियां भी घबरा गयीं.

"चिंता न करें राजन्, जो कष्ट होगा वह इनके पुरुषार्थ को निखारने वाला होगा. जब-तक चांद, सूरज और पृथ्वी का अस्तित्व रहेगा, तब-तक प्रभु श्रीराम का नाम रहेगा." महर्षि वशिष्ठ की अंतिम बात सुनकर सभी आनंदित हो उठे.

कुछ दिनो बाद महाराज ने अपने चारों पुत्रों को महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में विद्यार्जन हेतु भेज दिया. उस आश्रम में अन्य राजघराने के राजकुमार भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे. उन सभी राजकुमारों में तीक्ष्ण बुद्धि के थे श्रीराम और उनके तीनों अनुज.

                ∆∆∆∆∆

क्रमशः............!


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*कुछ विद्वानों और विशेषज्ञों का मानना है कि विभांडक ऋषि के पुत्र श्रृंगीऋषि वनस्पति विशेषज्ञ भी थे. उन्होंने एक ऐसी औषधि (जड़ी-बूटी) की खोज की थी जिसमें औषधीय गुण थे. जो स्त्रियों की प्रजनन शक्ति बढ़ती थी. उस चुरु (खीर) में वहीं औषधि मिलाई गई थी. जिसके प्रभाव से महाराज दशरथ की तीनों रानियां गर्भवती हुई.

*महारानी कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र (श्रीराम जी) का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को हुआ था. उस समय पुनर्वसु नक्षत्र था. रानी कैकेई के पुत्र भरत का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ था. इसी तरह लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म भी अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में ही हुआ था. मात्र समय के अन्तर से ही ये तीनों भाई बड़े छोटे माने गये. लोग भ्रमवश दूसरे स्थान पर लक्ष्मण को मानते हैं, जब कि वास्तव में दूसरे स्थान पर कैकेई पुत्र भरत थे. चैत्र शुक्ल नवमी को रामनवमी के रूप में जाना जाता है. प्राचीन काल से इस तिथि को भगवान श्रीराम के जन्म दिवस के रूप में मनाए जाने की परंपरा चली आ रही है. इस तिथि को अयोध्या, जनकपुर तथा पुनौरा (सीतामढ़ी) में भव्य समारोह के साथ साथ विराट मेला का भी आयोजन किया जाता है.


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