धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (द्वितीय खंड)

वेदवती का पुनर्जन्म


-- राम बाबू नीरव 

प्राचीन काल में महर्षि आंगिरस के कुल में एक प्रकांड विद्वान ऋषि हुए थे, उनका नाम था ऋषि गुत्समद.* वे विष्णु प्रिया देवी लक्ष्मी के परम भक्त थे. वे महा लक्ष्मी देवी को पुत्री रूप में प्राप्त करने हेतु एक अरण्य में स्थिति अपने आश्रम में तपस्या कर रहे थे. उनके आश्रम में अन्य ऋषि-मुनि भी वेदाभ्यास के साथ साथ  होम-जाप किया करते थे. ऋषि गुत्समद की कुटिया अन्य ऋषि-मुनियों की कुटिया से थोड़ा हटकर एकांत में थी. वे अपनी उसी कुटिया में एक कलश में कुश के अग्रभाग से गौ के दूध की अभिमंत्रित बूंदें प्रत्येक दिन टपकाया करते थे. उनका विश्वास था कि जब उनकी यह साधना पूर्ण हो जाएगी तब उस कलश में से देवी लक्ष्मी शिशु रूप में प्रकट होंगी, जो उनकी पुत्री कहलाएंगी. उन्हीं दिनों गंधमादन पर्वत पर ब्रह्मर्षि कुशध्वज जी की पुत्री वेदवती भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या कर रही थी. वेदवती ने रावण की दुष्टता से क्षुब्ध होकर आत्मदाह कर लिया था. आत्मदाह के बाद वेदवती का नश्वर शरीर तो जलकर भस्म हो गया, परंतु उसकी आत्मा नये शरीर की खोज में भटकने लगी. वेदवती की आत्मा भटकते भटकते वहां पहुंच गयी, जहां  गुत्समद ऋषि महालक्ष्मी देवी को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या कर रहे थे. वह आत्मा उस कलश में समा गई, जिसमें ऋषि ने अभिमंत्रित दूध एकत्रित कर रखा था. 

उन दिनों देवासुर संग्राम भी चल रहा था. रक्षपति रावण आदित्यों (देवताओं) के भक्तों तथा ऋषि-मुनियों का संहार करते हुए पहुंच गया उसी तपोवन में जहां गुत्समद ऋषि के साथ अन्य ऋषिगण तपस्या में लीन थे. संयोग से ऋषि गुत्समद उस समय आश्रम में उपस्थित नहीं थे. रावण आश्रम में उपस्थित अन्य ऋषियों का वध करने के पश्चात उस कलश को, जिसमें अभिमंत्रित दूध था, अपने साथ लेकर लंका आ गया. रावण  ने उस कलश को अपनी पट्टरानी मंदोदरी को रखने के लिए दे दिया. 

"इसमें क्या है स्वामी.?" मंदोदरी ने कलश को चकित भाव से‌ देखते हुए पूछा.

"इसमें हलाहल है, इसे किसी गुप्त स्थान पर ले जाकर रख दो. जब मुझे आवश्यकता होगी मांग लूंगा." अपने पति की आज्ञा का पालन करती हुई मंदोदरी ने उस कलश को एक गुप्त स्थान पर छुपा दिया.

                    *****

इस घटना को काफी समय बीत गए. उस अभिमंत्रित कलश को रावण भी भूल गया और मंदोदरी भी भूल गयी. एक दिन किसी बात को लेकर रावण और मंदोदरी के बीच अनबन हो गई. अपने पति के कटु वचनों को सुनकर मंदोदरी का हृदय आहत हो गया. और उसके मन में तरह तरह के  कुविचार उत्पन्न होने लगे -"क्यों ‌न मैं अपने इस जीवन का ही परित्याग कर दूं." मन में ऐसा विचार आते ही उसे उस कलश की याद आ गयी, जिसमें रावण के कथनानुसार हलाहल भरा था. मंदोदरी हलाहल समझकर उस कलश में रखे हुए अभिमंत्रित दूध को गटागट पी गई. परंतु यह क्या.....उसे मौत क्यों न आयी. वह समझ गई उस कलश में हलाहल नहीं कुछ और ही था. कुछ दिनों पश्चात मंदोदरी गर्भवती हो गयी. अब तो उसके आश्चर्य ठिकाना न रहा. उसे क्या पता था कि उसके उदर में वेदवती की आत्मा पल रही है. मन ही मन वह डर गयी, कहीं उसके पति  इस अनचाहे गर्भ को देखकर कुपित न हो जाएं. परंतु उसकी आशंका निर्मूल साबित हुई. रावण को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि महारानी मंदोदरी गर्भवती हैं.

यथा समय मंदोदरी ने एक सुंदर सी कन्या को जन्म दिया. उस अनुपम सुन्दरी कन्या को पाकर मंदोदरी के साथ साथ रावण भी हर्षित हो उठा. पूरे राजमहल में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी.

                        *****

निस्तब्ध रात्रि थी. आकाश में घनघोर बादल छाए हुए थे. रह रहकर बिजली तड़क जा रही थी. लंका के राजमहल में महारानी मंदोदरी अपने कक्ष में नवजात पुत्री के साथ प्रगाढ़ निद्रा में सोयी हुई थी. तभी उसे ऐसा आभास हुआ जैसे कोई दुरात्मा अपने हाथ में नंगी तलवार लिए हुए उसके कक्ष में प्रविष्ट हुआ है और अपनी तलवार से उसकी पुत्री को मार डालना चाह रहा है. जब उस दुरात्मा के मुखड़े पर मंदोदरी की दृष्टि पड़ी तब वह बुरी तरह से चौंक पड़ी. वह दुरात्मा कोई और नहीं बल्कि उसका पति रावण था. तभी उसकी आंखें खुल गयी. वह अचंभित सी कक्ष का कोना-कोना निहारने लगी. परंतु वहां कोई भी न था. फिर भी मंदोदरी को यह आशंका हो गयी कि उसका पति उसकी नवजात पुत्री की हत्या कर देगा. वह भय से कांपती हुई अपनी पुत्री को गोद में लेकर कक्ष से बाहर निकली. द्वार पर द्वारपाल खड़े थे. वह कन्या को उन द्वारपालों को सौंपती हुई बोली -"तुमलोग मेरी पुत्री की रक्षा करो. एक दुरात्मा इसे मारना चाहता है." वह अद्भुत बालिका एक द्वारपाल की गोद में विहंस रही थी. उस अद्भुत कन्या की मृदुल मुस्कान ने दोनों द्वारपालों को सम्मोहित कर लिया. वे दोनों उसे एक स्वर्ण मंजूषा में रखकर राजमहल के उस गुप्त द्वार की ओर दौड़ पड़े, जिसका रास्ता सुरंग के रूप में समुद्र की ओर चला गया था.

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रावण अपने शयनकक्ष में गहरी नींद में सोया था. मध्य रात्रि में उसे ऐसा आभास हुआ जैसे उसके कक्ष में एक दिव्य ज्योति आलोकित हो रही हो. वह ज्योति धीरे धीरे बढ़ती हुई एक युवती का आकार ग्रहण करने लगी. जब उसने पूर्ण आकार ले लिया तब रावण आश्चर्यजनक रूप से चौंक पड़ा. उसे ऐसा लगने लगा जैसे उसने इस युवती को पहले कहीं देखा है, परंतु कहां? यही उसे स्मरण नहीं हो रहा था. तभी युवती के रक्तिम ओंठ हिले और उस कक्ष में वीणा जैसी मधुर झंकार गूंज उठी -"मुझे पहचाना रक्षपति रावण! मैं वेदवती हूं. जिसकी तपस्या भंग करके तुमने अपनी हवस का शिकार बनाने की चेष्टा की थी. तुम्हारे विनाश के लिए मेरा पुनर्जन्म हो चुका है. वह भी तुम्हारी पुत्री के रूप में. मगर मैं तुम्हारे महल से लुप्त हो चुकी हूं. अब तुम मेरी परछाईं को भी छू नहीं सकते. हां, आज के बाद से तुम इस बात को भी भूल जाओगे कि कोई तुम्हारी पुत्री भी थी." इतना कहकर वह युवती पुनः दिव्य ज्योति में परिवर्तित हो कर अन्तर्ध्यान हो गयी. वेदवती की छवि के लुप्त होते ही रावण भयाक्रांत हो उठा. उसे ब्रह्मर्षि कुशध्वज जी की पुत्री वेदवती की याद आ गयी. "इसका मतलब, उस ऋषि पुत्री ने मेरी ही पुत्री के रूप में दुबारा जन्म लिया है.!" उसने जैसे तैसे अपने भय पर काबू पाया और हाथ में नंगी तलवार लेकर दौड़ पड़ा महारानी मंदोदरी के कक्ष की ओर. परंतु यह क्या..... अपने बिछावन पर महारानी मंदोदरी प्रगाढ़ निद्रा में सोयी थी और उस बालिका का कोई अता-पता ही न था.

"उठो प्रिय....!" उसने अपनी रानी को जगाया.  चिहुंक पड़ी मंदोदरी और उठकर बिछावन पर बैठ गयी. चकित भाव से रावण की ओर देखने लगी. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे कुछ ज्ञात ही न हो. 

"तुम्हारी पुत्री कहां है.?"

"मेरी पुत्री.....?" मंदोदरी चौंकाने का अभिनय करती हुई बोली. "अभी तो यहीं थी, अचानक कहां चली गयी.?" रावण अपनी पत्नी के इस कुशल अभिनय को समझ नहीं पाया. मंदोदरी अपनी पुत्री के लिए करुण विलाप करने लगी. रावण को पूर्ण विश्वास हो गया कि वह मायावी कन्या चमत्कारिक रूप से गायब हो चुकी है.

   जैसा कि वेदवती ने स्वप्न में रावण को बताया था कि आज के बाद वह इस बात को भूल जाएगा कि उसकी कोई पुत्री भी थी। सचमुच रावण के साथ साथ मंदोदरी भी भूल गयी उस दिव्य कन्या को जिसने उसकी कोख से जन्म लिया था.

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क्रमशः..........!

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*बाल्मीकि रामायण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित मां सीता के पूर्व जन्म की कथा वेदवती के आत्मदाह के साथ ही समाप्त हो जाती है. इसके बाद मां सीता का प्रार्दुभाव मिथिला राज्य के पुनौराधाम में महाराज सीरध्वज जनक द्वारा भूमि पर हल जोतते जाने के क्रम में होता है. महाराज जनक धरती से प्राप्त उस कन्या को अपनी दत्तक पुत्री बना कर जनकपुर के राज महल में ले आते हैं. परंतु अद्भुत तथा जैन रामायण में माता सीता के जन्म से जुड़ी हुई एक तीसरी कथा भी है.  जिसमें माता सीता को लंका पति रावण एवं रानी मंदोदरी की पुत्री बताते हुए ऋषि कुशध्वज की पुत्री वेदवती का दूसरा जन्म बताया गया है. हालांकि बाल्मीकि रामायण तथा गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में इस तरह की कोई कथा नहीं है. मानस में तो वेदवती वाली कथा का भी उल्लेख नहीं है. फिर भी एक क्षेपक (जोड़े गये अंश) के रूप में अद्भुत रामायण, ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा जैन रामायण में वर्णित उस कथा को मैं पाठकों के अवलोकनार्थ यहां दे रहा हूं. इस कथा को यहां क्षेपक के रूप में देने से वेदवती की प्रतिज्ञा, उसके आत्मदाह से लेकर मां सीता के प्रार्दुभाव तक की कथा का तारतम्य जुड़ जाता है.*

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