-रामबाबू नीरव


रितेश को रोते देख अभय का दिल तड़पने लगा. वह उसे सांत्वना देते हुए बोला -

"चुप हो जाओ रीतेश, यह सब किस्मत का खेल है. तुम ही बताओ किसी ने भी कल्पना की होगी कि राजनगर के प्रतिष्ठित राज घराने की बहू नौटंकी में नाच-गाकर लोगों  का मनोरंजन करती हुई अपनी बेटी को डाक्टर बनाने का सपना देख रही है. जब दादाजी इस सच्चाई को जानेंगे तब उन पर क्या बीतेगी.? मैं स्वयं अपने पिता की इन काली करतूतों को जानकर शर्म से मरा जा रहा हूं.... मैं ऐसे पापी इंसान का बेटा हूं, यह जानकर मुझे अपने आप से नफ़रत होने लगी है. मेरी रगों में किशन राज जैसे पापी इंसान का खून बह रहा है, शायद इसलिए ही मैं भी पाप के दल दल में धंसता चला गया.?" अब रीतेश की तरह अभय भी अपना मुंह ढांप कर रोने लगा. उसी समय ड्यूटी पर तैनात नर्स अंदर आ गयी और उन दोनों को रोते देख भौंचक रह गयी. उसे उम्मीद न थी कि रीतेश को इतनी जल्दी होश आ जाएगा. परंतु इस तरह से उसका रोना भी अच्छा न था. वह अभय को झिड़कती हुई बोली-

"यह क्या सर, आप खुद भी रो रहे हैं और पेशेंट को भी रूला रहे हैं.?" नर्स की आवाज सुनकर वे दोनों चौंक पड़े और अपने ऑंसू पोंछते हुए सहज होने की चेष्टा करने लगे.

"सॉरी सिस्टर, रीतेश को होश में आया देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाया, शायद इसलिए ही हम दोनों भावुक हो गये." अभय ने अपने दर्द को छुपाते हुए कहा. वह नहीं चाहता था कि हुस्नबानो की हकीकत जग जाहिर हो. तभी  उसका ध्यान अमृता की तस्वीर पर चला गया. फिर तो उसने बड़ी चालाकी से तस्वीर को नर्स की नजरों से छुपा लिया. नर्स को उसकी चालाकी का आभास तक न हुआ. नर्स रीतेश के करीब आकर बोली-"सर आप लेट जाइए." रीतेश ने उसके आदेश का पालन किया. नर्स उसका मुआयना करके बीपी चेक करने लगी. बीपी नार्मल था. टेंपरेचर भी नार्मल था. संतुष्ट होने के पश्चात वह बोली -

"ईश्वर को धन्यवाद दीजिए सर कि इतनी गहरी चोट लगने के बाद भी आप बिल्कुल स्वस्थ हैं." 

"यह डाक्टर दयाल सर और आप लोगों के परिश्रम का प्रतिफल है सिस्टर." अपने ओठों पर फीकी मुस्कान लाते हुए रीतेश ने कहा. 

"थैंक्स......!" मुस्कराती हुई वह रीतेश का आभार प्रकट करती हुई बोली और उसे इंजेक्शन तथा दवा देकर चली गयी. उसके जाने के बाद रीतेश फिर उठकर बैठ गया और अभय से बोला -

"वह पत्र और तस्वीर कहां है, एकबार फिर अपनी बहन को देखना चाहता हूं.?"

"यह रहा....!" अभय ने पत्र और अमृता की तस्वीर उसकी ओर बढ़ा दिया. रीतेश गहरी नज़रों अमृता की तस्वीर को निहारते रहने के पश्चात पत्र पढ़ने लगा. पत्र पढ़ने के बाद उसकी ऑंखों से पुनः ऑंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी. अपनी माया बुआ के साथ हुए अन्याय को जानकर उसका दिल हाहाकार करने लगा. उसे अब इस बात पर अफसोस होने लगा कि बिना सच्चाई को जाने ही उसने अपनी उस माया बुआ को जान से मारने की कुचेष्टा की जिसने उसे पाल-पोस कर समझदार बनाया.

उसी समय रग्घू के साथ अनुपमा आईसीयू में दाखिल हुई. अनुपमा की ऑंखों से मोटी मोटी ऑंसुओं की धारा प्रवाहित हो रही थी. रीतेश को रोते देखकर उसके दिल का दर्द और भी बढ़ गया.और वह उसके करीब  बैठ गयी. इस समय वह नर्स नहीं बल्कि अपने प्रियतम की प्रियतमा थी. रोते रोते अनुपमा की हिचकियां बंध गयी. रग्घू भी अंदर ही अंदर रो‌ रहा था, मगर उसे खुशी इस बात की थी कि रीतेश को समय से पहले ही होश आ चुका था. कुछ पल तक रोते रहने के पश्चात अपने ऑंसू पोंछती हुई अनुपमा अभय पर बिफर पड़ी -"इतना बड़ा हादसा हो गया, लेकिन आपने मुझे खबर तक करना मुनासिब न समझा, क्यूं?" अनुपमा के आक्रोश को देखकर अभय सिटपिटा कर रह गया. उसकी समझ में न आया कि अनुपमा के इस सवाल का वह क्या जवाब दे.? उसके बदले रीतेश अपने ऑंसू पोंछ कर सफाई देते हुए बोला -

"वो क्या है अनु कि....!" रीतेश अपनी बात पूरी कर पाता कि उससे पहले ही अनुपमा की नजर अमृता की तस्वीर पर पड़ गयी और वह रीतेश के हाथ से तस्वीर छीनकर चकित भाव से उसे देखने लगी. हू-ब-हू अभय की कॉपी को देखकर  उसका सर चकराने लगा था -"यह किसकी तस्वीर है अभय बाबू?" उसने चकित भाव अभय की ओर देखते हुए पूछा.-

"मेरी बहन अमृता राज की."

"क्या......?" अवाक रह गयी अनुपमा और रग्घू तो बुरी तरह से चौंक कर उछल ही पड़ा. वह चालीस वर्षों से राज खानदान की सेवा करता आ रहा है लेकिन   कभी नहीं जान पाया कि राज खानदान की बहू पूर्णिमा राज की एक बेटी भी है. 

"यह कैसी अनहोनी बात तुम कर रहे हो अभय, छोटी मालकिन की बेटी कहां से आ गयी?" 

"काका, यह मेरी सगी मॉं की नहीं, बल्कि मेरी विमाता और एमपी किशन राज की बेटी है. जानते हैं आप मेरी विमाता कौन है....?."

"कौन है.....?" रग्घू को ऐसा लगा जैसे वह बेहोश होकर गिर पड़ेगा. उसने बेड का राड थाम लिया और विस्मय से अभय की ओर देखने लगा.

"कल्पना थियेटर की नर्तकी हुस्नबानो."

"क्या......?" रग्घू ने दोनों हाथों से अपना सर थाम लिया -

"ओह, से भगवान! मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि यह सब हो क्या रहा है.?"

"लेकिन मेरी समझ में सारी बातें आ चुकी है."

इस आवाज को सुनकर सभी चौंक पड़े और एक साथ उन सबों की नजरें द्वार की ओर चली गयी, द्वार पर डा० दयाल के साथ सेठ धनराज जी खड़े थे. उनकी ऑंखों से टप टप ऑंसू टपक रहे थे. उन्हें देखते ही सभी उठकर खड़े हो गये. किसी को भी आभास ही न हुआ कि सेठ धनराज जी कब से आईसी यू के द्वार पर खड़े उन लोगों की बातें सुन रहे हैं. हुस्नबानो की हकीकत तथा उसकी बेटी के बारे में जानकर उनका दिल आहत होकर तड़पने लगा था. उनका बेटा ऐसा निकृष्ट इंसान है, जो सिर्फ अपनी ब्याहता पत्नी की ही नहीं, बल्कि न जाने हुस्नबानो जैसी कितनी अन्य मासूम औरतों की जिन्दगी तबाह कर चुका होगा. उनके सम्मान में रीतेश भी उठने की कोशिश करने लगा, मगर डा० दयाल ने लपक कर उसे पकड़ लिया.

"आप क्यों उठ रहे हैं रीतेश बाबू, आप आराम से लेटिये."

अनुपमा सेठ जी को चकित नजरों से निहारने लगी. इतना तो‌ वह समझ ही चुकी थी कि आगंतुक महापुरुष अभय के दादाजी हैं, उसने इनका नाम तो सुना था, परंतु इनके दर्शन का सौभाग्य उसे प्राप्त नहीं हुआ था. आज इनके दर्शन पाकर उसकी आत्मा के साथ साथ ऑंखें भी तृप्त हो गई. वह तेजी से आगे बढ़कर उनके चरणों में झुक गयी. चूंकि वह नर्स वाली लिवास में नहीं थी इसलिए सेठ धनराज उसे कंचन समझ बैठे. और उसे स्नेहिल आशीर्वाद देते हुए बोले- "खुश रहो कंचन बेटी."

"दादा जी मैं कंचन नहीं अनुपमा हूं."

"अनुपमा, कौन अनुपमा.?" सेठ धनराज चौंक पड़े. 

"दादा जी, बाद में मैं आपको सब समझा दूंगा." अभय उनके चरण स्पर्श करते हुए बोला.

"कहां है मेरी पोती की तस्वीर." वे व्यग्र भाव से बोल पड़े.

"यह रही दादा जी." अभय ने अनुपमा के हाथ से अमृता की तस्वीर लेकर उन्हें थमा दिया. तस्वीर देखकर सेठ धनराज जी को भी चक्कर आ गया, यदि अभय ने उन्हें थाम न लिया होता तो निश्चित रूप से वे गिर पड़े होते. 

"दादाजी, खुद को संभालिए." 

"क्या संभालूं बेटा, कैसे संभालूं.... तुम्हारे बाप ने तो मुझे किसी को भी मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मेरी दूसरी बहू हुस्नबानो कहां है?" 

"वे सभी इस शहर को छोड़कर जा चुकी हैं." 

अभय ने कहा और हुस्नबानो की चिट्ठी तथा डायरी उनके हाथ में थमा दिया. सेठ धनराज एक ही सांस में हुस्नबानो की चिट्ठी पढ़ गये. उनकी ऑंखों से बहने वाले ऑंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. चिठ्ठी पढ़ने के बाद वे उलट-पुलट कर डायरी को देखने लगे. डायरी के प्रथम पृष्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था -"हुस्नबानो की आत्मकथा."

"हुस्नबानो की डायरी को पढ़ना होगा, तभी असलियत का पता चलेगा." उनके मुंह से स्फुट सा स्वर निकला फिर वे डा० दयाल की और देखते हुए पूछ बैठे -"डाक्टर, रीतेश की हालत अब कैसी है?, क्या इसे हमलोग बंगले पर ले जा सकते हैं?"

"मैं बिल्कुल ठीक हूं दादाजी, यहां मेरा दम घूट रहा है, प्लीज़ मुझे ले चलिए यहां से." रीतेश का अनुनय-विनय सुनकर सेठ धनराज जी ने कहा -"हां, तुम यहां नहीं रहोगे, चलो बंगले पर ही रहना."

"ये जा सकते हैं." रीतेश का मुआयना करने के बाद डा० दयाल ने अनुमति देते हुए कहा. -"वैसे मैं एहतियात के तौर पर अपने सबसे काबिल नर्स अनुपमा को इनके साथ भेज देता हूं." डाक्टर साहब की बात सुनकर रीतेश के साथ साथ अनुपमा का भी चेहरा खिल उठा.

                    *****

राज पैलेस में आने के बाद सबसे पहले वे लोग फ्रेस हुए. हुस्नबानो की डायरी में लिखी हुई उसकी आत्मकथा को जानने की जितनी उत्सुकता अभय और रीतेश को थी, उससे कहीं अधिक सेठ धनराज, रग्घू और अनुपमा को थी. सेठ धनराज जी की समझ में न आ रहा था कि एक थियेटर की नर्तकी उनके बेटे के सम्पर्क में आयी कैसे.? किशन राज की एक बेटी भी है, इतने बड़े राज को उसने छुपा कैसे लिया.?  क्या हुस्नबानो की तरह अन्य औरतें  भी उसके सम्पर्क में थी. इस तरह के अनेकों सवाल उनके जेहन में कौंधने लगे थे और इन सारे उद्वेलित कर देनेवाले सवालों का जवाब हुस्नबानो की डायरी में ही छुपा हुआ था. चूंकि रीतेश का रिश्ता भी हुस्नबानो के साथ था, और वह अधिक चल-फिर करने योग्य नहीं था, इसलिए सेठ जी ने उसके कमरे में ही हुस्नबानो की डायरी को पढ़वाने का मन बना लिया. लंच लेने के बाद सभी रीतेश के कमरे में आ गये. अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि हुस्नबानो की डायरी को पढ़ें कौन? रीतेश ने ही अनुपमा का नाम सामने रख दिया. अनुपमा के बारे में अभय ने अपने दादाजी को बता दिया था. वे यह जानकर प्रसन्न थे कि रीतेश और अनुपमा एक-दूसरे से प्रेम करते हैं. सेठजी की आज्ञा से अनुपमा डायरी खोलकर पढ़ने लगी. उसकी आवाज सधी हुई और उच्चारण बिल्कुल शुद्ध था. ऐसा लगने लगा जैसे कोई सिद्धहस्त कथा वाचिका कहानी सुना रही हो.

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क्रमशः.........!

(अगले अंक से पढ़ें "हुस्नबानो की आत्मकथा.")

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