(दो) 


-रामबाबू नीरव 

मैथिल ब्राह्मणों में नव विवाहित दुल्हे को नौ दिनों तक ससुराल में रहने की परंपरा है. इस परंपरा को नवरत्न कहा जाता है. विवाह के नौ दिनों के बाद दुल्हे के परिजन तथा इष्टमित्र आते हैं और दुल्हा के साथ साथ दुल्हन की भी विदायी कराकर ले जाते हैं. इन नौ दिनों में दुल्हे का ससुराल में  खूब आदर सत्कार किया जाता है. मिथिला में दुल्हे को पाहुन कह कर निकट सम्बन्धी पुकारते हैं. पाहुन के साथ रिश्ते में साली और सरोजनी लगने वाली युवतियां तथा महिलाएं काफी अश्लील मजाक किया करती हैं. ताकि पाठक अनजान जगह पर दुल्हे का मन लगा रहे. मेरी कोई छोटी बहन तो थी नहीं. चूंकि मेरी शादी चोरी-छुपे हुई थी इसलिए मेरी सहेलियां भी इस शादी से अनजान थी. मेरी भाभी ही मेरे पतिदेव से हंसी-मजाक करने लगी, मगर न जाने मेरे पति किस मिट्टी के बने थे, वे भाभी के मज़ाक पर चिढ़ जाते और उन्हें बुरी तरह से फटकार देते. भाभी  के दिल को चोट लगती और वे अपने कमरे में जाकर विलाप करने लग जातीं. फिर भाभी ने भी उनसे हंसी-मजाक करना छोड़ दिया. भले ही मैं मृत्यंजय की पत्नी बन चुकी थी, परंतु वे मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करने को तैयार ही न थे. मिथिला की परंपरा के अनुसार मैं घूंघट में थी. कोहबर में (मिथिला में नव ब्याहता पति-पत्नी जिस एकांत कमरे में रहते हैं, उसे कोहबर कहा जाता है.) मैं  अपने पति के साथ अकेली रहती हुई भी संकोच के मारे उनके समक्ष घूंघट नहीं उठा पा रही थी. न ही मेरे स्वामी ने ही मेरा घूंघट उलटने का प्रयास किया. मैं इस बात को अच्छी तरह से समझ रही थी कि मेरे पतिदेव जबरदस्ती की इस शादी से खुश नहीं हैं और मेरे भैय्या के प्रति उनके दिल में तीव्र आक्रोश है. मैं समझती हूं कि मृत्यंजय इस सत्य से भलीभांति परिचित रहे होंगे कि मिथिलांचल की परंपरा के अनुसार एकबार विवाह हो जाने के बाद किसी कन्या का पुनर्विवाह नहीं हो सकता है. इस सत्य को जानते हुए भी उन्होंने मुझसे दूरी बनाए रखा इससे अधिक दु:ख की बात और क्या हो सकती थी.? मैं यह दावे के साथ कह सकती हूं कि यदि उन्होंने एकबार मुझे देख लिया होता तब निश्चित रूप से मेरे सौंदर्य पर मोहित हो गये होते. मेरी भाभी अपनी ननद यानि मेरी तुलना स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका से किया करती थी. इसलिए मुझे पूर्ण विश्वास था कि यदि वे मेरी एक झलक भी देखें होते तो मेरे अप्रतिम सौंदर्य पर मोहित होकर मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया लिए होते. परंतु हाय रे मेरा दुर्भाग्य.! शादी तो दो दिलों का मिलन होता है. जब दो युवा दिल इसके लिए राजी‌ ही न हो तब ऐसे विवाह का मतलब ही क्या? यह हमारा सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य था. हमारे समाज में प्रचलित कुछ सड़ी-गली मान्यताओं के कारण मुझ जैसी अनगिनत अभागिन युवतियों की जिन्दगी नर्क बन जाया करती होगी.

मेरे भैय्या भी इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि मृत्यंजय इस विवाह से प्रसन्न नहीं हैं. कहीं वे भाग न जाएं इसलिए उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी. उन्हें अकेले बाहर निकलने नहीं दिया जाता था. इस बात को लेकर मृत्यंजय का क्रोध और भी बढ़ता जा रहा था. हमारे विवाह के चौथे दिन भैय्या के कुछ मित्रों ने सलाह दी कि इस विवाह की सूचना जितनी जल्द हो सके पं० धनेश्वर मिश्र को दे दी जाए. अपने मित्रों की राय मानकर भैय्या ने अपने एक शिष्य को मृत्यंजय के घर पर भेज दिया. जब धनेश्वर मिश्र को मेरे भैय्या के खुराफात की जानकारी हुई तब वे आगबबूला हो उठे और सैकड़ों लठैतों के साथ हमारे घर पर आ धमके. हमारे  गांव में महाबवाल मंच गया. नौबत खून-खराबा होने तक पहुंच गयी. इस विषम परिस्थिति में हमारे गांव के लोगों ने भैय्या का साथ दिया. क्योंकि अब यह मामला गांव की एक मासूम बेटी की इज्जत-आबरू से जुड़ चुका था. गांव वालों के उग्र रूप को देखकर धनेश्वर मिश्र ठंडा पड़ गये. और दोनों  गांवों के प्रतिष्ठित लोगों की पंचायत बैठायी गयी. पंचायत में तय हुआ कि आश्विन पूर्णिमा को धनेश्वर मिश्र बारात लेकर आएंगे और अपनी बहू की बिदाई कराकर ले जाएंगे. तब तक नौ रत्न का नेग भी पूरा हो जाएगा. पंचायत के इस निर्णय को सुनकर सभी खुश हो गये, परंतु मेरे पतिदेव को खुशी नहीं हुई. मैं यह सोच कर अपने दिल को तसल्ली देने लगी कि मेरे श्वसुर जी राजी हो गये तो एक न एक दिन मैं अपने पति को भी मना ही लूंगी. मगर नियती को तो कुछ और ही मंजूर था. 

एक रात्रि को मैंने साहस बटोर कर मृत्यंजय से कहा -"अब तो आप मेरे स्वामी हैं फिर मुझ से दूर दूर क्यों रहते हैं.?" 

"मैं तुम्हारा स्वामी नहीं हूं. इस विवाह को मैं विवाह नहीं मानता. तुम्हारे भैय्या ने मेरे साथ साथ तुम्हारी और मेरी प्रेमिका की भी जिन्दगी बर्बाद कर दी है, उस आदमी को मैं कभी माफ नहीं करूंगा."

उनकी बात सुनकर मैं एकदम से स्तब्ध रह गयी. इनकी कोई प्रेमिका भी होगी इस सत्य ने तो सचमुच मेरे पूरे अस्तित्व को ही झकझोर कर रख दिया. मैं उनके कदमों में गिरकर विनती करती हुई बोली - "आपकी कोई प्रेमिका भी है, इस बात से मैं बिल्कुल अनजान थी और फिर इसमें मेरा क्या कसूर है?  किसी और के अपराध की  सजा मुझे क्यों ‌दे‌ रहे हैं आप.?" मेरी ऑंखों से अविरल ऑंसू बहने लगे, परंतु मेरे‌ उन ऑंसुओं का भी कोई मोल न रहा. मैं उनके कदमों में गिर कर सिसकती रही और‌ वे अपनी प्रेमिका की याद में ऑंसू बहाते रहे. 

               ***** 

 दो दिनों से मूसलाधार बारिश हो रही थी. कमला नदी पूरे उफान पर थी. अचानक रात्रि के तीसरे पहर में बादल के गरजने और बिजली  के चमकने से मेरी ऑंखें खुल गयी. तभी मेरी नजर मृत्यंजय के बिछावन पर चली गयी. बिछावन खाली था. मेरा कलेजा धक से रह गया. फिर मेरी नज़र खुले हुए द्वार पर पड़ी अब तो मेरे होश ही उड़ गये. किसी अनहोनी की आशंका से मेरा सर्वांग कांपने लगा.  भाभी बगल वाले कमरे में रीतेश के साथ सोयी हुई थी. भैय्या बाहर वाले कमरे‌ में सोये हुए थे. मैं चीख पड़ी -"भाभी......!"

"मेरी चीख सुनकर भाभी घबराई हुई बाहर आ गयी -"क्या हुआ माया?"

"वे भाग गये.!" और इसके साथ ही मैं बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी. गिरते गिरते मेरे कानों में भाभी की चीख सुनाई पड़ी थी -"रीतेश के बाबू जी उठिए, पाहुन भाग गये."

मैं नहीं जानती उसके बाद क्या हुआ. जब मुझे होश आया तब मेरा सुहाग उजड़ चुका था. दाम्पत्य जीवन का सुख भोगने से पहले ही मैं विधवा हो चुकी थी. किसी ने बताया कि पाहुन यानि मेरे पतिदेव ने उफनती हुई कमला नदी में छलांग लगा दी थी. काफी खोजबीन के बाद नदी से उनकी लाश निकली. दिल को दहला देने वाले इस संवाद को सुनकर पहले तो मैं खूब हंसी, खुद के दुर्भाग्य पर और इस निष्ठुर समाज द्वारा बनाए गये क्रूर विधानों पर. फिर घर से बाहर निकल कर अपने पति के निष्प्राण हो चुके शरीर से लिपट कर फूट फूट कर रोती हुई, विक्षिप्तता की हदें  पार करती हुई अंटशंट बकने लगी-" उठो मेरे प्राणनाथ उठो, मुझे बीच मझधार में छोड़ कर मत जाओ. तुम जिससे प्रेम करते हो उससे ही ब्याह कर लेना. अपने घर के किसी कोने में मुझे थोड़ी सी जगह दे देना. मैं तुम्हारी दासी बनकर जी लूंगी. मुझे यूं बेसहारा छोड़कर मत जाओ मेरे प्राणेश्वर. मेरे भैय्या की ग़लती की सजा मुझे मत दो." मेरे करूण क्रंदन से भैय्या और भाभी का कलेजा फटा जा रहा था. महल्ले के लगभग सभी स्त्री, पुरुष और बच्चे छाती पीट पीटकर रो रहे थे, मगर कर्कशा जीबछी काकी को मेरी दारुण्य दशा पर तनिक भी दया न आयी. उसने मुझे ही हत्यारिन, डायन, चुड़ैल और न जाने क्या-क्या बना दिया. वह गला फाड़कर मुझे कोसती हुई चिल्ला रही थी -

"इस डायन को इस गांव से निकाल दो, राम राम राम....कैसी कुलक्षिणी है यह, जन्म लेते ही मां बाप को खा गयी और अब कोहबर में ही अपने भतार को खाकर झूठ-मूठ का टेसू बहा रही है." उस कर्कशा की जली-कटी सुनकर भैय्या और भाभी तड़प उठे. रीतेश मुझ से लिपटकर रो‌ रहा था, उसे भी गुस्सा आ गया और वह अंगार बरसाती आंखों से जीबछी काकी को घूरने लगा. मेरे भैय्या उस औरत के सामने जाकर बम की तरह फट पड़े -

"जीबछी काकी, माया मेरी बहन है, खबरदार उसके बारे में एक भी अपशब्द मुंह से निकाला तो मैं तुम्हारी ज़ुबान खींच लूंगा." भैय्या का रौद्र रूप देखकर वह डर गयी और अपने घर के अंदर जाकर किवाड़ बंद कर ली. फिर भी वह भद्दी भद्दी गालियों से मुझे तथा मेरे भैय्या को ताड़ने लगी.

                 *****

मेरे पति का दाह- संस्कार ससुराल में नहीं हो सकता था. इसलिए तत्काल ही हमारे एक पड़ोसी श्रीकांत भैय्या ने एक आदमी को इस मनहूस खबर की सूचना देने के लिए मेरे ससुराल भेज दिया. जब मेरे श्वसुर जी और सासु मां ने अपने एकलौते बेटे के मौत‌ की खबर सुनी होगी तब उन दोनों पर क्या बीती होगी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. वे अपने ग्रामीणों के साथ आ धमके. ओह.....! अपने श्वसुर जी और सासु मां की जो हालत मैंने देखी उसे देखकर मेरा कलेजा मुंह को आ  गया. मेरे श्वसुर जी भैय्या पर किसी हिंस्र पशु की भांति टूट पड़े. कसूर मेरे भैय्या का था, इसलिए उन्हें हर तरह का अपमान तो सहना ही था. ग्रामीणों ने जैसे  तैसे मेरे श्वसुर जी के कोप से भैय्या को बचाया. मैं अपनी सासु मां से लिपट कर रोना चाह रही थी, मगर मेरी सासु मां ने मुझे परे धकेल दिया. मैं कटे हुए पेड़ की भांति गिर पड़ी और‌ वह विकराल रूप धारण करके मुझे पर बरस पड़ी -"भाग चुड़ैल..... मेरी नज़रों के सामने से दूर हो जा. कैसी कुलक्षिणी है तू .....तीन दिन भी शादी के न हुए और तू मेरे बेटे को खा गयी." उनकी जली कटी सुनकर मेरी इच्छा हुई कि मैं भी कमला नदी में कूदकर अपनी जान दे दूं . मैं वहां से उठकर भागने भी लगी, मगर भाभी के साथ-साथ अन्य औरतों ने मुझे पकड़ लिया. 

गांव के भद्रपुरुषों के बहुत समझाने बुझाने के बाद मेरे श्वसुर जी शान्त हुए और अपने मृत पुत्र के साथ  मुझ अभागिन को भी अपने गांव ले जाने को राजी हुए. मेरे साथ कहीं कोई अनहोनी न हो जाए इसलिए मेरे रक्षक के रूप में भैय्या भी मेरे साथ थे. जहां मैं डोली में बैठकर दुल्हन के रूप में जानेवाली थी. वहां अपने पति की अर्थी के साथ विधवा के रूप में पहुंची. जिस नवब्याहता दुल्हन की आरती उतारी जानेवाली थी, उस अभागन का गालियों से स्वागत होने लगा. औरतों की जली-कटी तथा दिल को छेद देनेवाली बातों को सुनने से तो अच्छा था मैं मर जाती, मगर यह निष्ठुर समाज मुझे मरने भी न दे रहा था. अब मेरे भाग्य में अपमान सहना ही लिखा था. इसलिए जितना भी अपमान मिलता गया, सहती चली गयी. अपनी ससुराल की देहरी पर तीन दिनों की सुहागन माया ने अपनी चूड़ियां फोड़ी और सुहाग के प्रतिक सिंदूर को मांग से मिटाया. हवेली के बाहर कफ़न में लिपटा हुआ मेरे पतिदेव का निर्जीव शरीर पड़ा था, मेरी इच्छा हुई कि एकबार फिर अपने पति से लिपटकर रोऊं, मगर वहां की पाषाण हृदया औरतों ने मुझे अपने पति के मृत शरीर का स्पर्श भी न करने दिया. वहां मेरा अपना तो कोई था नहीं, सिर्फ भैय्या थे.....बस उनसे ही लिपटकर मैं अपने हृदय का उत्ताप शांत करने लगी. भैय्या तेरहवीं कर्म तक मेरे साथ थे. इन तेरह दिनों में मेरे साथ साथ भैय्या की भी तेरहों दुर्गति हो गयी. जो भी मुझे और मेरे भैय्या को देखता हम-दोनों को गालियों से ताड़ कर निहाल कर देता. इन तेरह दिनों के भीतर हम दोनों भाई बहन को क्षण भर के लिए भी हवेली के अंदर पांव भी न रखने दिया गया. जैसे हमलोग कोई निकृष्ट जानवर हों. हवेली के सामने एक झोपड़ी थी, रहने के लिए हमें वही झोपड़ी दी गयी थी. तेरहवीं के बाद मेरे‌ श्वसुर ने मुझे घसीटते हुए उस झोपड़ी से भी बाहर निकाल दिया. इतना अपमान सहकर मैं जिन्दा कैसे रह गयी मुझे खुद आश्चर्य हो रहा है." हुस्नबानो की आत्मकथा सुनकर सेठ धनराज, अभय, रीतेश और रग्घू का रोते रोते बुरा हाल हो‌ चुका था, वहीं अनुपमा की हिचकियां बंध गई. ऐसी दर्दनाक कहानी उसने न तो आज तक पढ़ी थी और न सुनी थी. कौन किसको सांत्वना दें. कोई  समझ नहीं पाया. कुछ देर‌ के बाद सेठजी ने ही अपने दिल को तसल्ली देने के बाद अनुपमा से कहा - 

"देखो बेटी, यदि तुम्हारी आगे पढ़ने की इच्छा न हो तो .....!"

"नहीं, दादाजी मैं पढ़ती हूं.....!" अपने करुण क्रंदन को रोककर अनुपमा पुनः हुस्नबानो की आत्मकथा पढ़ने लगी. 

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क्रमशः.........!

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