(एक)
-रामबाबू नीरव
मेरा मूल नाम माया है, माया झा. मैं बिहार प्रान्त के मिथिलांचल की रहने वाली हूं. मेरा जन्म एक शुद्ध मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था. मैं तीन भाई बहन में सबसे छोटी हूं, यानि मुझसे बड़े मेरे दो भाई हैं. मेरा परिवार मध्यम श्रेणी का था. जब मैं मात्र सात या आठ साल की थी, तभी मेरे माता-पिता का स्वर्गवास हो गया. हमारे पिताजी कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे और पुरोहित का कर्म करते हुए अपने परिवार का प्रतिपालन किया करते थे. हमारे पास एक घरारी के अतिरिक्त कुछ खेत की जमीनें भी थी. चूंकि मैं परिवार की सबसे छोटी थी, इसलिए अपने दोनों भाइयों की राजदुलारी थी. माता-पिता के गुजर जाने के बाद मेरे बड़े भैय्या पं० उमाकांत झा ने भी पुरोहित का पेशा अपना लिया.
मेरी परवरिश बड़े भैय्या और भाभी मालती देवी ने ही की. उन दोनों ने कभी मुझे माता पिता की कमी न खलने दी. मेरे छोटे भैय्या देवकांत झा को पढ़ा-लिखा कर हाकिम बनाने का सपना देख रहे थे बड़े भैय्या. वे भाभी से कहा करते -"देखना मालती एक दिन मेरा भाई हाकिम बनकर हमारे पिताजी के साथ साथ इस गांव का भी नाम रौशन करेगा." जब मैं दस या ग्यारह वर्ष की थी तब भाभी ने रीतेश को जन्म दिया. रीतेश के आ जाने से हमारे छोटे से परिवार में खुशियों की बहार आ गयी. मुझे भी खेलने के लिए एक खिलौना मिल चुका था. जब मैं स्कूल से आती तब रीतेश के साथ खेलते हुए अपना जी बहलाने लगती. वह मेरे साथ ही सोया करता. न तो मेरे बिना उसे चैन था और न ही उसके बिना मुझे. जब मैं सोलह वर्ष की हुई, तभी मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गयी. मेरी इच्छा आगे पढ़ने की थी, परंतु हमारे यहां कालेज नहीं था और भैय्या पुराने ख्यालों के थे, इसलिए उन्होंने मेरी आगे की पढ़ाई रूकवा दी. मैं मन मसोस कर रह गयी. भाभी के साथ साथ मेरी आवाज़ भी बहुत सुरीली थी. मैथिल कोकिल विद्यापति जी के गीत मैं जब अपनी भाभी के साथ गाती तब सुननेवाले मुग्ध हो जाया करते. आस पड़ोस में होने वाली शादियों में हम दोनों ननद-भाभी की मांग बढ़ गयी. धीरे-धीरे हम दोनों विवाह तथा अन्य मांगलिक कार्यों के गीत गाने में पारंगत हो चुकी थी. परंतु बड़े भैय्या को हम-दोनों का घर-घर में जाकर गीत गाना पसंद न था, इसलिए उन्होंने हमलोगों का घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी. वे घर के मालिक थे, उनकी आज्ञा को न मानने का साहस हम दोनों में नहीं था. उन्हीं दिनों छोटे भैय्या देवकांत झा को एक सरकारी बैंक में नौकरी लग गयी. उनकी नौकरी लग जाने पर बड़े भैय्या इतने खुश हुए कि उन्होंने पूरे गांव में मिठाइयां बांटी. छोटे भैय्या को नौकरी मिल जाने के कारण हम सभी रीतेश को भाग्यशाली मानने लगे. छोटे भैय्या भी बिना रीतेश का मुंह चुमे हुए घर से बाहर नहीं निकलते. छोटे भैय्या को जब पहला वेतन मिला तब उन्होंने बड़े भैय्या के हाथ में थमा दिया. मगर बड़े भैय्या रुपए लौटाने हुए बोले -
"देवकांत, यह तुम्हारी कमाई है, अपनी कमाई तुम अपने पास रखो. ईश्वर की कृपा से मैं इतना कमा लेता हूं जिससे हमारे परिवार की परवरिश हो जाती है."
"नहीं भैय्या, मेरी कमाई पर पहला हक आपका है, पिताजी के गुजर जाने के बाद, आपने ही न सिर्फ मेरा और माया का भरण-पोषण किया बल्कि पढ़ा लिखा कर मुझे इस लायक बनाया कि समाज में मैं गर्व से सीना तानकर चल सकूं."
"लेकिन देवकांत.....!" बड़े भैय्या ने प्रतिवाद किया.
"मैं कुछ भी नहीं सुनूंगा, यदि आपने इन रूपयों को लेने से इंकार किया तो मैं नौकरी छोड़ दूंगा." मजबूर हो गये बड़े भैय्या. उस दिन के बाद से छोटे भैय्या अपना वेतन बड़े भैय्या के हाथ में ही दिया करते. चूंकि छोटे भैय्या की बैंक में नौकरी लग गयी थी इसलिए एक ऊंचे घराने की ग्रेजुएट लड़की से उनका विवाह हो गया. उस समय रीतेश की उम्र लगभग दस वर्ष की रही होगी. मेरी छोटी भाभी खुबसूरत तो थी मगर वे बहुत ही दुष्ट स्वभाव की थी. आते के साथ वे घर में अपनी हुकूमत चलाने लगी. एक दिन जब छोटे भैय्या वेतन लाकर बड़े भैय्या को देने लगे तब तमतमायी हुई छोटी भाभी आयी और बड़े भैय्या के हाथ से रुपए छीन कर बड़ी बेशर्मी से गिनने लगी. बड़े भैय्या को ऐसा लगा जैसे छोटी भाभी ने उनके मुंह पर कसकर तमाचा मार दिया हो. वे हतप्रभ से खड़े कुछ पल बड़ी भाभी को निहारते रहे, फिर उनकी आंखों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी. उन्हें इस बात का दु:ख नहीं था कि रुपए छोटी भाभी ने ले लिए. दु:ख उसकी घिनौनी हरकत से हुआ. बड़ी भाभी तो गौ समान थी, वे कुछ न बोली. मगर उनके दिल पर जो बीत रही थी वह मुझे स्पष्ट सुनाई देने लगी. छोटे भैय्या खामोश खड़े थे. ऐसा लगा जैसे वे या तो छोटी भाभी के गुलाम बन चुके हैं या फिर उनसे डरते हैं. मगर छोटी भाभी द्वारा बड़े भैय्या का किया गया यह अपमान मुझसे बर्दाश्त न हुआ और मैं उनपर तन गयी -
"छोटी भाभी, ये रुपए बड़े भैय्या को लौटा दीजिए."
"क्यों.... क्यों लौटा दूं.?" वे मुझ पर ऑंखें तरेरती हुई बोली.
"क्योंकि बड़े भैय्या इस घर के मालिक हैं."
"ओह.....तो ये मालिक हैं और मेरे पति नौकर हैं.!" वह मुंह ऐंठती हुई बोली.
"यहां न कोई नौकर है न मालिक, सवाल बड़े और छोटे का है."
"चुप तू, मुझे छोटे बड़े का ज्ञान मत दे."
"हां दूंगी, जब आप इस परिवार की मान-मर्यादा का उलंघन करेंगी तब आपसे छोटी होती हुई भी मैं आपको ज्ञान दूंगी." अब छोटी भाभी ने अपना उग्र रूप अख्तियार कर लिया और न आव देखा न ताव और तड़ातड़ कई तमाचे मेरे गाल पर मारती चली गयी. छोटी भाभी का ऐसा रूप देखकर बड़े भैय्या एकदम से सन्न रह गये. आज तक इस घर में किसी ने मुझे फटकार तक न लगाई थी और छोटी भाभी ने....! मेरी ऑंखों से ऑंसुओं की मोटी मोटी धारा बहने लगी. बड़ी भाभी का कलेजा फट गया. वे मुझे अपनी आगोश में समेट कर मेरे कमरे में ले आयी. बड़े भैय्या के धैर्य का बांध टूट गया. उन्होंने छोटे भैय्या को दो टूक में जवाब दे दिया -"देवकांत, पानी अब सर से ऊपर होकर बहने लगा है, हम-दोनों की भलाई अब इसी में है कि हमलोग अलग हो जाएं."
"हां .... हां....कर दीजिए हमलोगों को अलग. ऐसे गन्दे लोगों के साथ नहीं रहना है हमें. मैं बड़े बाप की बेटी हूं, किसी की गुलाम नहीं." छोटी भाभी तमकती हुई बोली और उसी दिन अपने घर में ताला लगा कर छोटे भैय्या के साथ मधुबनी चली गयी.
बड़े भैय्या और मालती भाभी ने अपने सीने पर सब्र का पत्थर रख लिया. मुझे छोटी भाभी की दुष्टता पर उतना दु:ख न हुआ, जितना कि छोटे भैय्या की खामोशी को देखकर हुआ. उनके इस रवैए को देखकर उनसे किसी भी तरह की उम्मीद लगाना ही व्यर्थ था. अब मेरे लिए जो भी थे बड़े भैय्या थे और मालती भाभी थी.
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मैं इस बात से बिल्कुल बेखबर थी कि मेरे बड़े भैय्या मेरी शादी को लेकर रात और दिन बेचैन रहने लगे हैं. जबकि मेरी रत्ती भर भी अभी शादी करने की इच्छा नहीं थी, क्योंकि बड़े भैय्या की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे मेरी शादी में लाखों रुपए खर्च कर सकते. एक मध्य रात्रि में बड़े भैय्या की आवाज सुनकर मैं चौंक पड़ी. वे भाभी से कह रहे थे - "मालती, तुम देखना मैं अपनी राजकुमारी जैसी बहन की शादी किसी राजकुमार जैसे डाक्टर या इंजीनियर से करूंगा."
"क्यों कभी न पूरा होने वाला सपना देख रहे हैं आप. हमारी हैसियत ऐसी नहीं है कि माया की शादी....!" भाभी ने उनकी बातों का प्रतिवाद किया. वे थोड़ा उत्तेजित होते हुए बोल पड़े-
"भले ही मेरी हैसियत नहीं है, मगर इलाके के दस गांवों में मेरी प्रतिष्ठा तो है.!"
"प्रतिष्ठा से कुछ नहीं होता, डाक्टर या इंजीनियर लड़के से विवाह करने के लिए रुपयों की जरूरत होती है."
"तुम इसकी फ़िक्र मत करो..... मैं सब संभाल लूंगा."
मेरी इच्छा हुई कि मैं भैय्या के समक्ष जाकर साफ साफ कह दूं -"मुझे किसी डाक्टर या इंजीनियर से शादी नहीं करनी है. आप मेरे लिए कोई मजदूर लड़का भी ढूंढ लेंगे तो मैं हंसी-खुशी से शादी कर लूंगी." मगर बड़े भैय्या के सामने जाकर उनसे कुछ कहने की हिम्मत मुझ में नहीं थी. मेरे बड़े भैय्या थे बड़े जिद्दी स्वभाव के. एकबार जो ठान लेते उसे पूरा करके ही दम लेते. गुप्त रूप से वे मेरे लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़का की तलाश में लग चुके थे. चूंकि वे पुरोहित के साथ साथ ज्योतिषाचार्य भी थे, इसलिए उनके चेले-चपाटियों की भी कमी न थी.
अब मैं पूरे उन्नीस वर्षो की हो चुकी थी. हमारे ग्रामीण समाज में लड़कियों के विवाह की चिंता उनके परिजनों से अधिक पड़ोसियों को होने लगती है. खास कर वैसी महिलाओं को जिन्हें कोई काम-धाम तो रहता नहीं है सिर्फ बैठकर दूसरों के पारिवारिक जीवन में मीन-मेख निकालना ही जिनका पेशा हुआ करता है. उन्हीं औरतों में से एक थी जीबछी देवी, पं० शोभाकांत झा की पत्नी. वह सिर्फ ईर्ष्यालू ही नहीं, बल्कि झगड़ालू स्वभाव की भी थी. न जाने उस औरत को मुझसे कैसी दुश्मनी थी कि हर समय वह मेरे पीछे पड़ी रहा करती थी. जबकि मैं बचपन से ही उसको जीबछी काकी कहकर पूरा सम्मान दिया करती थी. मेरी शादी की सबसे अधिक चिंता उसी कर्कशा औरत को थी. अपने दरवाजे पर तीन-चार औरतों को बैठाकर वह मेरे भैय्या और भाभी को कोसा करती. लेकिन भैय्या और भाभी को उस कर्कशा औरत के इस दुर्व्यवहार की तनिक भी चिंता न थी. क्यों कि वे जानते थे कि यह औरत दुष्ट स्वभाव की है और इसके मुंह से विष के बदले अमृत वमन करने की आशा करना व्यर्थ है.
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हमारे गांव से पूरब मनीगाछी नाम का एक स्थान है. वहां एक सभागाछी है. इस सभागाछी में मैथिल ब्राह्मणों की एक सभा लगती है जिसे सौराठ मेला अथवा सौराठ सभा के नाम से जाना जाता है. इस सभा (मेला) में मैथिल ब्राह्मणों के विवाह योग्य युवक बड़ी संख्या में जुटते हैं. यहां एक पंजीकार होता है, जिसके पास एक पंजी (रजिस्टर) होती है. जिसमें विवाह योग्य मैथिल ब्राह्मणों के युवकों का पूरा विवरण लिखा होता है. कभी कभी इस मेला में विदेशों में रहनेवाले ब्राह्मण युवक भी आते हैं. इस मेले में विवाह योग्य युवतियां तो नहीं आती, हां उनके परिजन अवश्य आते हैं, जो अपनी कन्या के लिए योग्य वर का चुनाव कर वर के पिता से सम्पर्क स्थापित करते हैं. और सारा कुछ तय हो जाने के पश्चात विवाह की तिथि तय कर दी जाती है.
मेरे गांव से होकर कमला नदी बहती है. उन दिनों इस नदी पर पुल नहीं था. बरसात के दिनों में इस नदी पर ग्रामीणों द्वारा चचरी का पुल बनाया जाता था. आवागमन का यह चचेरी पुल ही एकमात्र साधन हुआ करता था. इस नदी के उस पार भी मैथिल ब्राह्मणों का ही एक सुखी सम्पन्न गांव था. इस गांव के लोग सम्पन्न होने के साथ साथ शिक्षित भी थे. उनका गोत्र हमारे ग्रामीणों के गोत्र से अलग था. इसलिए इस गांव के ब्राह्मणों से उस गांव के ब्राह्मणों के परिवार से विवाह संबंध हो सकते थे. हिन्दुओं के उच्च वर्णों में समगोत्री विवाह वर्जित है. उस गांव में पं० धनेश्वर मिश्र सम्पन्न किसान थे. पच्चीस बीघा खेत के जोतनिया थे. उनका एक ही पुत्र था, जो दरभंगा मेडिकल कॉलेज में अंतिम वर्ष का छात्र था. उस लड़के का नाम था मृत्यंजय कुमार मिश्र. मेरे भैय्या की नजर उस लड़के पर ही टिकी हुई थी. वह लड़का अपने पिता की अनुमति के बिना ही घूमने के ख्याल से अपने कुछ दोस्तों के साथ, सौराठ मेला में आ गया. यह मृत्यंजय का दुर्भाग्य था, जो वह बिना गार्जियन की अनुमति के वहां चला गया. उस मेले में भैय्या के कुछ शिष्य मौजूद थे. उनमें से एक शिष्य दौड़ा हुआ हमारे घर पर आया और इसकी सूचना भैय्या को दे दिया. भैय्या ने भी पल भर की भी देर किये बिना उस भरे हुए मेले में जाकर अपने शिष्यों के सहयोग से मृत्यंजय का अपहरण करवा लिया और बिना आगे पीछे कुछ सोचे समझे उन्होंने मैथिल रीति रिवाजों के अनुसार मेरी शादी मृत्यंजय के साथ सम्पन्न करवा दी. अब मैं मृत्यंजय की पत्नी थी. इस शादी से मेरे भैय्या की जिद तो पूरी हो गयी, मगर जबरदस्ती करायी गयी इस शादी से न तो मैं खुश थी और न हीं मेरे पति मृत्यंजय खुश थे.
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क्रमशः.......!
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