धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)
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महाराज दशरथ की तीसरी पत्नी : कैकेई
- राम बाबू नीरव
उन दिनों कैकेय देश के राजा अश्वपति की बड़ी ख्याति थी. वे देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से भाग लिया करते थे. चूंकि अयोध्या नरेश दशरथ भी उस संग्राम में देवताओं का साथ दिया करते थे, अतः उन दोनों के बीच अच्छी घनिष्ठता हो चुकी थी. राजा अश्वपति की
आठ संतानों में राजकुमारी कैकेई सबसे छोटी थी. उनसे बड़े सात भाई थे. वे सातों भी अपने पिता की तरह ही वीर और कुशल रणबांकुरे थे. राजकुमारी कैकेई का बचपन काफी कष्टमय रहा. उनके जन्म लेते ही उनकी माता रानी शुभलक्षणा का अपने पति राजा अश्वपति के साथ किसी बात को लेकर अनबन हो गयी. रानी शुभलक्षणा रुष्ट होकर अपनी पुत्री को छोड़कर मायके चली गयी. राजा अश्वघोष के समक्ष समस्या उत्पन्न हो गयी -"उनकी पुत्री का लालन-पालन कैसे होगा?" तभी उन्हें ध्यान आया, राजमहल में उनकी एक विश्वासपात्र दासी है, मंथरा. किसी दुर्घटना में उसकी कुबर निकल गयी थी. जिस कारण वह महल में कुबरी दासी के नाम से विख्यात हो गयी. राजा अश्वपति ने मंथरा को बुलवाया और उसे अपनी पीड़ा से अवगत कराते हुए पूछा -
"मंथरा क्या तुम मेरी पुत्री का प्रतिपालन एक मां की तरह कर सकती हो.?"
"मेरा अहोभाग्य महाराज.!" मंथरा सहर्ष तैयार हो गयी और उस दिन से ही वह राजकुमारी कैकेई का पालन-पोषण करने लगी. अपनी नवजात पुत्री कैकेई को मंथरा को सौंप कर राजा अश्वपति चिंता मुक्त हो गये.
कैकेई मंथरा को उसकी कुबर के कारण कुबरी मां कहकर पुकारा करती थी. जैसे जैसे कैकेई सयानी होती जा रही थी, वैसे वैसे उसके सौंदर्य और तेजस्विता में निखार आता जा रहा था. चूंकि उसके सभी भाई वीर योद्धा थे और वह अपने भाइयों की दुलारी थी, इसलिए वह भी अपने भाइयों की तरह योद्धा बनना चाहती थी. उसने अपने भाइयों से युद्ध कौशल सिखा, घुड़सवारी सिखी, और रथ चलाने में भी प्रवीण हो गई. अपने पिता अश्वपति के साथ वह कई युद्धों में भाग भी ले चुकी थी. उसके शौर्य के समक्ष अच्छे अच्छे योद्धा भी नहीं टिक पाते थे.
अपनी पुत्री के शौर्य को देखकर राजा अश्वपति ने मन ही मन निर्णय ले लिया कि वे अपनी वीरांगना पुत्री का विवाह किसी ऐसे पराक्रमी राजा के साथ करेंगे जिन्होंने असुरों को पराजित किया हो. उन्हीं दिनों अयोध्या नरेश महाराज दशरथ ने सिंधु, सौवीर, सौराष्ट्र, काशी, दक्षिण कौशल, मगध, अंग-बंग और कलिंग आदि राजाओं को पराजित करके अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश कर दिया था. उस काल के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले पांचाल नरेश दिवोदास को भी महाराज दशरथ ने धूल चटा दी थी.
उन दिनों देवताओं तथा असुरों के बीच अपने अपने वर्चस्व को लेकर भयंकर संघर्ष हुआ करते थे. जिन युद्धों को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है. उत्तर कोसल (अयोध्या) के राजा दशरथ के साथ कैकेई देश के राजा अश्वपति भी उस महासंग्राम में भाग लिया करते थे. महाराज दशरथ के युद्ध कौशल से राजा अश्वपति काफी प्रभावित थे. हालांकि महाराज दशरथ युवावस्था पार कर चुके थे, फिर भी राजा अश्वपति उन्हें अपनी पुत्री कैकेई के पति के रूप में पसंद कर चुके थे. संयोग से अयोध्या के कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ तथा महामंत्री सुमंत जी द्वारा भेजे गये दूत से राजा अश्वपति को यह शुभ संवाद मिला कि महाराज दशरथ उनकी पुत्री को अयोध्या की तीसरी रानी बनाना चाहते हैं. राजा अश्वपति ने सहर्ष इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया. इस तरह कैकेय देश की राजकुमारी कैकेई अयोध्या की तीसरी रानी के रूप में राजमहल में आ गयी. हालांकि कि इस बेमेल विवाह से राजकुमारी कैकेई संतुष्ट नहीं थी, फिर भी अपने पिता की आज्ञा का वे अनादर करना नहीं चाहती थी. विवाहोपरांत राजा अश्वघोष ने महाराज दशरथ से कुछ गुप्त वार्ता की थी, जो इन दोनों राजाओं के बीच ही रह गयी. जब कैकेई अयोध्या आने लगी तब राजा अश्वपति ने अपनी दुलारी पुत्री की देखभाल के लिए दासी मंथरा को भी साथ में भेज दिया.
अयोध्या के राजमहल में रानी कैकेई का भव्य स्वागत हुआ. महारानी कौशल्या तथा रानी सुमित्रा ने कैकेई को छोटी बहन मानकर भरपूर प्यार दिया. रानी कैकेई भी उन दोनों को बड़ी बहन मानकर भरपूर सम्मान देने लगी. उन तीनों का प्रेम दिनों दिन प्रगाढ़ होता चला गया. परंतु कैकेई की कुबरी मां मंथरा को उन तीनों का यह प्रेम तनिक भी नहीं भाया. वह मन ही मन ईर्ष्या रूपी अग्नि में जलने लगी. आते के साथ वह दुष्टा औरत अयोध्या के राजमहल में कुचक्र रचने लगी. वह निर्मल और निश्छल स्वभाव की रानी कैकेई के मन में रानी कौशल्या और सुमित्रा के प्रति कैकेई के मन में ईर्ष्या रूपी विष भरा करती. परंतु कैकेई उसकी जहरीली बातों को इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देती.
महाराज दशरथ को अपनी तीसरी पत्नी कैकेई से अत्यधिक अनुराग हो गया. उनका अधिकांश समय अब रानी कैकेई के साथ ही बीतने लगा. उन्हें विश्वास था कि अब रानी कैकेई ही उत्तर कोसल राज्य को उत्तराधिकारी देंगी. इसी आशा में वे सुनहरे स्वप्न देखने लगे.
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इसी बीच असुरों के राजा शम्बासुर (शम्बर) के साथ देवताओं का विग्रह हो गया. यह विग्रह बढ़ते बढ़ते भयानक युद्ध में परिणत हो गया. देवर्षि नारद ने यह भविष्यवाणी की थी कि शम्बासुर का वध अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के हाथों ही हो सकता है. देवराज इन्द्र ने महाराज दशरथ से इस युद्ध में भाग लेने की याचना की. महाराज ने देवराज इन्द्र के अनुरोध को सहर्ष स्वीकार कर लिया. जब वे युद्ध क्षेत्र में जाने की तैयारी करने लगे तब उनकी तीसरी रानी कैकेई उनके समक्ष आकर खड़ी हो गयी और उनके साथ युद्ध क्षेत्र में जाने की जिद्दकर बैठी. महाराज विवश हो गये और उन्हें अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी. रानी कैकेई प्रसन्नता से झूम उठी.
इस युद्ध में वीरांगना कैकेई महाराज दशरथ के दिव्य रथ की सारथी बनी. देवताओं द्वारा प्रदत्त उस रथ को रानी कैकेई बड़ी कुशलता पूर्वक हांक रही थी. शम्बासुर के साथ महाराज दशरथ का भीषण युद्ध आरंभ हो चुका था. दोनों ओर से दिव्य बाणों की बरसात हो रही थी. शम्बासुर भी वीर योद्धा था. परंतु महाराज दशरथ धुरंधर योद्धा के साथ साथ सिद्धहस्त धनुर्धर भी थे. उनके बाणों के प्रहार से शम्बासुर की सेना तीव्र गति से हताहत होने लगी. अपनी सेना को हताहत होते देख शम्बासुर क्रोधित हो उठा और अपने रथ को स्वयं हांकते हुए महाराज दशरथ के समक्ष ले आया. परंतु वह भी महाराज दशरथ के बाणों के प्रहार से स्वयं को पराजित होता हुआ सा महसूस करने लगा. तभी दुर्भाग्य से महाराज दशरथ के रथ के पहिए की धूरी की कील निकल गयी और रथ की गति धीमी पड़ गयी. किसी भी समय रथ पलट भी सकता था. उधर शम्बासुर ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था. तभी किसी चमत्कार की तरह रानी कैकेई ने रथ की धूरी में अपनी अंगुली* घुसा दी. अब रथ ने रफ्तार पकड़ ली. शम्बासुर जैसे ही महाराज दशरथ के सामने आया कि उन्होंने अपने तीरों के प्रहार से उसकी इह लीला समाप्त कर दी. असुरों पर महाराज दशरथ की विजय हुई, परंतु यह विजय उनकी प्रिय रानी कैकेई की सूझबूझ से मिली थे. वे अपनी रानी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोले -"प्रिय आज तुमने मेरे प्राण की रक्षा करके मुझ पर और अवध राज्य बड़ा उपकार किया है."
"यह तो मेरा धर्म था स्वामी." कैकेई ने मुस्कुराते हुए कहा.
"हां, तुम्हारा धर्म था, फिर भी मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं. मुझसे कोई दो वर मांग सकती हो."
"आपके ये दो वर उधार रहे. समय आने पर मांग लूंगी."
"मांगना अवश्य भूलना मत."
"आप निश्चिंत रहें स्वामी मैं मांग लूंगी." कैकेई हंस पड़ी मुक्त भाव से.
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शम्बासुर मारा गया और अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के हाथों मारा गया." यह सुखद सम्वाद पूरे आर्यावर्त में विद्युत तरंग की भांति फैलता चला गया. अयोध्या नगरी में हर्ष का वातावरण था. नगरवासियों ने अपने अपने घरों पर घी के दिये जलाए. जब अयोध्या वासियों को यह ज्ञात हुआ कि महाराज के इस विजय में उनकी तीसरी रानी कैकेई की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तब लोगों की दृष्टि में रानी कैकेई का भी मान बढ़ गया. अयोध्या आने पर महाराज के साथ साथ रानी कैकेई का भी भव्य स्वागत किया गया. राजमहल में भी रानी कैकेई का मान बढ़ गया. रानी कैकेई महारानी कौशल्या और रानी सुमित्रा के आंखों की पुतली बन गई. इतना मान सम्मान पाकर कैकेई फूली न समा रही थी.
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क्रमशः............!
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बाल्मीकि रामायण के अनुसार रानी कैकेई का दायां हाथ बज्र के समान कठोर था. कुमारी अवस्था में कैकेई ने एकबार दुर्वासा ऋषि की काफी सेवा की थी. उसकी सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि ने अपने तेज बल से उनके दाहिने हाथ को बज्र की तरह कठोर बना दिया था.
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