धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
"लो चाय पी लो." रूपा की आवाज सुनकर संध्या की तंद्रा भंग हो गई. रूपा चाय का कप टेबल पर रखकर तीक्ष्ण दृष्टि से उसे घूरने लगी. इसका मतलब संध्या के प्रति उसने अपने मन में जो घृणित धारणा बना ली थी, वह अब तक इसके मन से निकल नहीं पाई है. संध्या हंसती हुई उसकी कलाई पकड़ कर बिछावन पर खींच ली.
"रूपा तुम्हें बहुत आश्चर्य हो रहा है न कि मैं दुबारा इस रंग महल में कैसे आ गयी.?" उसके बारे में जानने की जिज्ञासा तो रूपा के मन में भी थी, मगर उसके मन से वह शंका दूर न हुई थी, जो संध्या को दुबारा यहां देखने के बाद उत्पन्न हुई थी. इसलिए वह अनमने भाव से बोली -
-"ऊं.....हां.!"
"तो सुनो, आज मैं तुम्हें अपनी पूरी कहानी सुनाती हूं. ध्यान पूर्वक सुनो." फिर वह रूपा को अपने बगल में बैठाती हुई अपनी कहानी सुनाने लगी-"रूपा, सबसे पहले तुम यह जान लो, जैसा तुम सोच रही हो, मैं किसी संभ्रांत परिवार की बेटी नहीं हूं."
"क्या.....?" उसकी बात सुनकर रूपा एकदम से उछल पड़ी.
"तो फिर तुम कौन हो?" सशंकित नजरों से संध्या को घूरती हुई रूपा ने पूछा.
"मैं लखनऊ की मशहूर तवायफ
गुलाब बाई की बेटी हूं."
"तुम....तुम एक तवायफ यानी वेश्या हो?" संध्या की सच्चाई जानकर रूपा की भी वही प्रतिक्रिया हुई जो शारदा देवी के फार्म हाउस में शान्ति की हुई थी.
"मैं तवायफ या वेश्या नहीं हूं, मेरी मां है. मैं तो गंगा जल की तरह पवित्र हूं रूपा. मगर आज मुझे मेरी मां के पापों की सजा मिल रही है." संध्या की आंखों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी. उसे रोती देख संध्या घबरा गई.
"चुप हो जाओ, तुम रोती क्यों हो?" उसके आंसू पोंछती हुई रूपा स्नेहिल स्वर में बोली. इस स्नेहिल स्वर को सुनकर संध्या समझ गयी रूपा के दिल में उसके प्रति शान्ति जैसी नफ़रत नहीं है.
"रूपा, मैं तुम्हें अपनी कहानी सुनाऊं या नहीं?"
"सुनाओ न." रूपा की बेताबी बढ़ गयी. संध्या आश्वस्त होकर उसे
कोठे से लेकर इस रंग महल में लाए जाने और यहां से भागने के बाद शारदा देवी की गाड़ी से टकराने फिर उनके फार्म हाउस में पहुंचने और सेठ द्वारिका दास जी से मिलने और कोमा में पड़े राजीव के सेवा में जुटकर उसे नयी जिन्दगी देने के साथ साथ उस पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने की घटना तक उसने सुना दी. इस बीच वह कभी हंसी तो कभी रोई. रूपा भी उसकी इस दर्दनाक कहानी को सुनकर फफक फफक कर रोने लगी. यह नन्ही सी जान, कश्मकश भरी इस जिंदगी की कितने थपेड़े खाती रही है. और उस पापी धनंजय को इस बेचारी की हालत पर तरस न आया. " वह मन ही मन संध्या के बारे में सोचने लगी. अब रूपा के हृदय की सारी मलिनता दूर हो गयी. उसे इस बात का महान आश्चर्य हुआ कि एक तवायफ की बेटी इतनी निर्मल मन की कैसे हो सकती है ? संध्या रोती हुई रूपा को कुछ पल अपलक निहारती रही, फिर उसके आंसू पोंछने के बाद बोली -"रूपा मैंने सेठ द्वारिका दास जी के बड़े बेटे को इस लायक बना दिया है कि वह उनके कारोबार को संभाल सके. अब यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं उनके बिगड़े हुए इस दूसरे बेटे को भी सही रास्ते पर लाने की कोशिश करूंगी."
"भगवान ने तुझे ऐसी काया कहां से दे दी. " भावातिरेक से रूपा की आंखें पुनः छलछला पड़ी. -"तुम सिर्फ परोपकार पर परोपकार ही करती जा रही हो, क्या अपने बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है तुम्हें.?"
"अपने लिए ही तो कर रही हूं यह सब." संध्या मुक्त भाव से हंसने लगी.-"संसार में दो तरह के प्राणी होते हैं. एक होते हैं स्वार्थी और दूसरे होते हैं परोपकारी. जो स्वार्थी होते हैं, वे सिर्फ अपने लिए जीते हैं, वहीं जो परोपकारी होते हैं, उनके मन में परमार्थ की भावना होती है. ऐसे लोग किसी के भी दुःख-दर्द को देखकर दयार्द्र हो जाया करते हैं और उनके तकलीफों को दूर करने लिए समर्पित हो जाया करते हैं. मैं इसी दूसरे तरह की प्राणियों में से हूं. यह अलग बात है कि मेरा जन्म एक तवायफ की कोख से हुआ है, मगर आखिर हूं तो मैं मनुष्य योनि की ही." संध्या ने क्या कहा और क्या नहीं वह सब रूपा के पल्ले नहीं पड़ा. इतनी दार्शनिक बातें वह समझती भी कैसे? मगर संध्या की इन सारी बातों में एक व्यक्ति जो गौण हो चुका था, वह बार बार रूपा के मन-मस्तिष्क को झकझोरने लगा. और वह था राजीव. संध्या ने जिस राजीव को अपना सबकुछ समर्पित कर दिया, उसे भूल कैसे गई ?"
"संध्या तुम्हें इस बात का एहसास है कि राजीव बाबू को अपनी जिन्दगी का सबसे अनमोल रत्न अर्पित कर चुकी हो."
"कैसी बातें करती हो रूपा तुम, भला मैं उन्हें केसे भूल सकती हूं. वे मेरी जिंदगी के संबल बन चुके हैं. समझो तो मेरे प्राणाधार हैं. हालांकि पहले मैंने ऐसा नहीं सोचा था कि सेठ द्वारिका दास के कुल की वधू बनूंगी, परंतु अब मेरे समक्ष दो ही विकल्प बचे हैं, या तो सेठ द्वारिका दास की बहू बनूंगी या फिर मौत को गले लगा लूंगी."
"चुप....!" रूपा उसे डपटती हुई चीख पड़ी. -"प्राण त्यागने का नाम लोगी तो मैं इसी क्षण तुम्हें यहां से निकाल दूंगी." रूपा की इस झिड़की में जो आत्मीयता छुपी थी उसे महसूस कर संध्या विभोर हो उठी और उसकी गोद में मुंह छुपाकर रो पड़ी. रूपा स्नेह से उसके बाल सहलाती हुई बोली -"मेरी अन्तर्रात्मा कह रही है कि एक न एक दिन तुम उस खानदान की बहू अवश्य बनोगी."
"सच रूपा."
"बिल्कुल सच."
संध्या रूपा से लिपट गयी और अपने भविष्य के सुन्दर स्वप्न में खो गई.
*****
लगभग चार दिनों पश्चात धनंजय अपने रंगमहल में वापस आया. इन चार दिनों में वह एक भी दिन चैन से नहीं रह पाया था. संध्या ने जो प्रस्ताव उसके समक्ष रखा था, वह उसी दुश्चिंता में घुलता जा रहा था. एक तवायफ की बेटी भला उसके आला खानदान की बहू कैसे बन सकती है.? वह अपने पिता जी को जैसे तैसे मना भी लेता परंतु उसकी कर्कशा मां.... क्या वह श्वेता को अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लेगी. नहीं.... कभी नहीं. कई बार उसने कोशिश की अपनी मां से बात करने की, मगर हर बार उसकी हिम्मत जवाब दे जाती. वह श्वेता के मोह में इस तरह से ग्रसित हो चुका था कि उसका परित्याग करने का अर्थ अपना प्राण त्याग देना था. वह रेत पर पड़ी हुई मछली की तरह छटपटाने लगा. श्वेता का विछोह अब उससे बर्दाश्त न हो रहा था. आज वह दृढ़ निश्चय करके आया था, चाहे श्वेता की नजरों से गिर ही क्यों न जाऊं, इसे अपना बना कर रहूंगा. वह जैसे ही अपने विलास कक्ष के द्वार पर पहुंचा कि उसके मन की सारी पाप वृत्ति बर्फ की तरह पिघल गई. वह द्वार पर ही ठीठक कर रूक गया. उस कक्ष का दृश्य ही पूर्णतः बदल चुका था. दीवारों पर जो कामुक तस्वीरें लगी थी, उसकी जगह विभिन्न देवी-देवताओं तथा महापुरुषों की तस्वीरें इस कक्ष की शोभा बढ़ा रही थी. जहां अर्द्धनग्न नायिका की प्रतिमा खड़ी थी, वहां अब पूजा वेदी दृष्टिगोचर हो रहा था. और वहां श्री सीता राम तथा श्री राधा कृष्ण की छोटी-छोटी प्रतिमाएं खड़ी अपने दिव्यस्वरूप से धार्मिक भावनाएं बिखेर रही थी. धूप और अगरवत्ती के सुवास से वहां का वातावरण सुवासित हो रहा था. उसकी श्वेता साध्वी का वेश धारण किये भक्ति में लीन थी. धनंजय विस्मय से एकटक श्वेता को निहारे जा रहा था. अचानक श्वेता का ध्यान भंग हो गया और वह गर्दन घुमाकर धनंजय की ओर देखने लगी. फिर मुस्कुराती हुई वह मृदुल स्वर में बोली -"अरे धनंजय, वहां क्यों खड़े हो, अंदर आ जाओ." मगर श्वेता के इस आग्रह को सुनकर भी अंदर आने की उसकी हिम्मत न हुई. उसे इस तरह झिझकते देख श्वेता पूजा वेदी पर से उठकर खड़ी हो गयी और उसके निकट आकर बोली -"यदि इस कमरे के अंदर आने में तुम्हें झिझक हो रही है तो चलो हमलोग दूसरे कमरे में चलते हैं. श्वेता आगे बढ़ गयी और धनंजय मुक्त भाव से उसके पीछे-पीछे चल दिया. उस कमरे में आकर संध्या बोली - "हां, अब बोलो, क्या तुम मुझ से कुछ कहना चाहते हो?"
"हां श्वेता, मैंने तुम्हारे प्रस्ताव पर काफी गम्भीरता से चिंतन किया, मगर कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाया." दर्द भरी आवाज निकली धनंजय के मुंह से.
"तब तो एक ही रास्ता बचता है."
"वह क्या.?" बेचैन नजरों से देखने लगा धनंजय श्वेता को.
"तुम मुझे भूल जाओ." संध्या ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया.
"नहीं.....!" धनंजय के मुंह से घूंटी हुई सी चीख निकल पड़ी -"ऐसा मत कहो श्वेता मैं तुम्हारे बिना एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता. तुमने मुझे बार बार कहा कि मैं अब से तुम्हें संध्या कहकर पुकारूं, मगर श्वेता के रूप में जो तुम्हारी छवि मेरे दिलो-दिमाग पर अंकित हो चुकी है वह मिटाएं नहीं मिट रही." भावावेश में आकर धनंजय ने श्वेता की कलाई थाम ली. संध्या को ऐसा लगा जैसे उसके सम्पूर्ण शरीर में बिजली सी दौड़ने लगी हो. कुछ पल के लिए वह चेतना शून्य सी हो गयी. मगर शीघ्र ही संभल गयी और धनंजय का हाथ झटकती हुई क्रुद्ध स्वर में बोल पड़ी.-
"खबरदार धनंजय मेरे शरीर को छूने की धृष्टता मत करना. मैं तुम्हारे बड़े भाई की परिणीता हूं."
अवाक रह गया धनंजय. विस्मय से उसकी ओर देखने लगा. उसकी आंखें फटी की फटी रह गयी. पल भर में ही उसके सारे मंसूबे चकनाचूर हो गये. वह अपना आहत दिल थाम कर फर्श पर बैठ गया. संध्या अपनी शय में बोलती जा रही थी -
"मैंने तुम्हें इतना समझाया मगर तुम्हारे कानों पर जूं तक न रेंगा. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर तुम किस मिट्टी के बने हो ? तुम ठीक उस आदमखोर शेर की तरह हो, जिसे इंसानी खून का चस्का लग जाता है. तुम्हारी मां ने तुम्हें बहकाया और तुम बहकते चले गये. यह भी न सोचा तुमने कि तुम्हारे भविष्य का क्या होगा. तुम्हें इस बात का एहसास भी है कि जिस तरह से तुम बहक चुके हों ठीक उसी तरह से तुम्हारी बहन भी बहक चुकी है."
"क्या.....?" संध्या की अंतिम बात सुनकर बुरी तरह से चौंक पड़ा धनंजय.
"हां धनंजय." संध्या का स्वर थोड़ा बदल गया. अब वह नम्र पड़ गयी. -"मैंने पहली बार तुम्हारी बहन को देखा था और देखते ही समझ गयी कि उसके चाल-चलन ठीक नहीं हैं. तुम्हारी बहन सिगरेट पीती है, शराब पीती है, क्या पता उसके कदम भी बहक गये हों."
"नहीं ऐसा नहीं हो सकता." धनंजय के मुंह से हल्की सी चीख निकल गयी.
"ईश्वर न करे ऐसा हुआ हो. मगर जरा सोचो जवानी के लिए जोश में आकर, वह कहीं अपना होश खो बैठी और उसके कदम बहक गये, तब सेठ द्वारिका दास की इज्जत का क्या होगा? मैं तो एक तवायफ की बेटी हूं. मेरी आबरू यदि लूट भी जाएगी तब मुझे पर किसी की अंगुली नहीं उठेगी, क्योंकि मैं पहले से ही बदनाम हूं. मगर यदि सेठ द्वारिका दास की बेटी के दामन में यदि दाग लग गया तब तुम ही बताओ, उनकी मान-मर्यादा का क्या होगा? क्या सेठ जी या तुमलोग समाज में सर उठाकर चल सकोगे.? स्त्री की इज्जत ही उसकी जिंदगी होती है धनंजय. धन-दौलत यदि चली जाए तो दुबारा मिल जाता है, मगर यदि किसी स्त्री की इज्जत चली गई तो करोड़ों की दौलत लुटाकर भी उसे वापस नहीं पाया जा सकता. तुम्हारी मां नेअपनी बेटी को भी आधुनिकता के रंग में इस कदर से रंग डाला है कि वह सेठ द्वारिका दास के खानदान की मान-मर्यादा को ताक पर रख चुकी है. अब भी वक्त है मेरे इस नश्वर शरीर का मोह त्यागो और जाकर पहले अपने घर को संभालो."
"बस, बस करो संध्या." पहली बार उसके मुंह से श्वेता के बदले संध्या निकला. दर्द से तड़पने लगा वह -"मेरे कान के पर्दे फटे जा रहे हैं." धनंजय एक झटके में उठकर खड़ा हो गया और धनुष से निकले हुए तीर की भांति सनसनाता हुआ बाहर की ओर भागता चला गया. संध्या के ओठों पर मुस्कान उभर आयी. उसका तीर सही निशाने पर लगा था. देखें परिणाम क्या है.
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क्रमशः........!
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