धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
राजीव के कॉटेज से वापस आकर संध्या निढाल सी बिस्तर पर गिर पड़ी. उसकी आंखों के आगे से राजीव की वह विभत्स आकृति हट ही नहीं रही थी. राजीव की इस अचेतावस्था को देखकर उसका दिल तड़प उठा था. वह आज तक ऐसे रोगी को न देखी थी. वह तो बाल्यावस्था में ही अपने परिवार और समाज से दूर कर दी गयी थी. प्यार, अपनत्व और स्नेह जैसी कोमल भावनाओं से वह वंचित रह गयी. पितृ-हीन संध्या को तो यह भी पता न था कि पिता का प्यार कैसा होता है. आज एक पिता के रूप में सेठ द्वारिका दास को अपने रूग्ण पुत्र के लिए तड़पते हुए देखकर उसकी संवेदना इस तरह उमड़ पड़ी कि उसने पल भर की भी देर किये बिना राजीव की सेवा करने का व्रत ले लिया. ऐसी संवेदना उसके मन में उपजी कैसे, वह स्वयं इससे अनभिज्ञ थी. चूंकि वह मनोविज्ञान की छात्रा रही है इसलिए इतना अवश्य जानती है कि मानवीय संवेदना सूक्ष्म तंतुओं के सहारे हृदय से लेकर मस्तिष्क तक जुड़ी हुई होती है. संवेदना के दो रूप हैं. एक है बाह्य संवेदना और दूसरी है आन्तरिक संवेदना. बाह्य संवेदना में किसी की त्रासदी पर मात्र दया दिखाने, दुःख प्रकट करने और आंसू बहाने की औपचारिकता पूरी करने तक ही सीमित रहती, परंतु आन्तरिक संवेदना संवेदनशील प्राणी के सम्पूर्ण अस्तित्व को झकझोर कर रख देती है. और उस प्राणी के मन में रोग शय्या पर पड़े अपने इष्ट के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हो जाने का भाव उत्पन्न कर देता है. इस समर्पित भावना के समक्ष समस्त सांसारिक ऐश्वर्य-भोग तुच्छ हो जाते हैं. यह आन्तरिक संवेदना विरले प्राणियों में ही पायी जाती है. ऐसे प्राणियों में जो क्षणिक सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य भोग, काम-लिप्सा जैसे भौतिक कामनाओं से ऊपर उठकर निस्पृह हो जाते हैं. संध्या इसी श्रेणी में आ चुकी थी. सांसारिक ऐश्वर्य-भोग की इस अवस्था में संध्या जैसी खुबसूरती युवती के मन में ऐसा निस्पृह भाव उत्पन्न क्यों कर हुआ यह आश्चर्य की बात है.
संध्या की सहेली बन चुकी शान्ति को भी संध्या के इस कठिन संकल्प को देखकर आश्चर्य तो हुआ ही साथ ही वह संध्या के इस निर्णय से मन ही मन क्षुब्ध हो उठी. जब बड़े-बड़े डाक्टरों ने भी राजीव बाबू की बीमारी से हार मान ली तब यह संध्या क्या चीज़ है.? विगत नौ दस महीनों से राजीव बाबू इसी अवस्था में पड़े हैं. बड़े मालिक से लेकर बुआजी तक निराश हो चुकी है. मगर ईश्वर कितने निष्ठुर हैं जो राजीव बाबू को इतना कष्ट दे रहे हैं. जिस रोगी को उनके अपने परिजन भगवान के भरोसे छोड़ चुके हैं, उसके लिए यह लड़की क्यों पागल बनी हुई है.? शान्ति तो अल्पज्ञानी थी, संवेदना नाम की भी कोई चीज होती है, यह वह क्या जाने ?
शाम ढलने से पूर्व ही शारदा देवी वापस आ गयी. शान्ति ने आते के साथ उन्हें आज की पूरी दास्तान सुना दी. हालांकि कि उसके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी. वह संध्या के लिए मन ही मन परेशान हो रही थी - यह मासूम लड़की इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे संभालेगी ? शारदा देवी भी संध्या के इस संकल्प को सुनकर अचंभित रह गई. उनके मन में क्षुद्र ईर्ष्या भाव उत्पन्न हो गया - कहीं यह लड़की भैया के समक्ष मुझे नीचा दिखाना तो नहीं चाहती है. उनके मन में ऐसा विचार आते ही संध्या के प्रति उनके दिल में तरह तरह के कलुषित विचार उत्पन्न होने लगे. साथ ही वे इस सच्चाई को भी समझ गयी कि संध्या नाम की यह लड़की जितनी ही वाक्पटु है उतनी ही चुस्त चालाक भी. अपने मन में वे तरह तरह के कुविचार लिए संध्या के कक्ष में प्रविष्ट हुई. संध्या राजीव के ख्यालों में खोई हुई बिछावन पर लेटी थी.
"संध्या." कुर्सी पर बैठते हुए किंचित मृदुल स्वर में उन्होंने उसे आवाज दी. संध्या उठकर बैठ गई और प्रसन्नचित्त भाव से शारदा देवी को देखने लगी. उनके ललाट की सलवटों को देखकर वह समझ गयी कि आज की घटना की जानकारी इन्हें मिल चुकी है. वह इस सम्बन्ध में उनका मंतव्य जानने के लिए उत्सुकता पूर्वक उनकी ओर देखने लगी. शारदा देवी भी अनुभवी थी. वे उसके मन के भाव को समझ गयी और पूर्व की तरह मृदुल स्वर में पूछा बैठी -
"तुमने जो दायित्व अपने ऊपर लिया है, क्या तुम उसे पूरा कर लोगी ?" भले ही उन्होंने अपने स्वर को मृदुल बनाया था, परंतु उनके मन की दुर्भावना को संध्या समझ चुकी थी. वह शान्त स्वर में बोली -
"बुआ जी मैं दावा तो नहीं करती फिर भी मुझे विश्वास है कि राजीव बाबू ठीक हो जाएंगे." संध्या के इस आत्मविश्वास को देखकर शारदा देवी अचंभित रह गयी. और उन्होंने मौन साध लिया. कुछ पल वहां खामोशी छाई रही फिर इस तल्ख़ खामोशी को भंग करती हुई संध्या की आवाज उभरी -"एक बात पूछूं बुआ जी."
"हां....हां, पूछो."
"राजीव बाबू को उस साधारण से कॉटेज में क्यों रखा गया है ? उन्हें इस बंगले में भी तो रखा जा सकता था."
"राजीव को उस कॉटेज में रखने का मकसद उसे उसके शत्रु से बचाना है."
"शत्रु.....!" संध्या बुरी तरह से चौंक पड़ी -"उनका शत्रु कौन हो सकता है?"
"उसकी सौतेली मां, मिसेज प्रभा दास."
"राजीव बाबू की सौतेली मां भी है.?" संध्या का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.
"हां.....!"
"बुआ जी, आप लोग मुझे परायी समझकर इस सत्य को मुझसे छुपाती रही हैं. अब चूंकि मैं उनकी सेवा करने का संकल्प लें चुकी हूं इसलिए यदि आप उचित समझें तो मुझे उनकी दुःख भरी कहानी सुनाकर मेरी जिज्ञासा को शांत करें."
"ठीक है, मैं तुम्हें राजीव की कहानी सुनाती हूं, धैर्य पूर्वक सुनो -"मेरे भैया सेठ द्वारिका दास, लखनऊ की मानी हुई हस्तियों में से एक हैं. इनका हीरों का व्यापार है. लखनऊ के निशांत गंज में एक मशहूर चौक इनके ही नाम पर - सेठ द्वारिका दास चौंक के नाम से विख्यात है. इसी चौक पर इनका बहुत बड़ा शो रूम है, जिसमें दुनिया के बेशकीमती हीरो का कारोबार होता है. इस शो रूम की सुरक्षा व्यवस्था इतना चुस्त दुरुस्त है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता. जब राजीव पांच वर्ष का था, तभी उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. मेरी भाभी यानी राजीव की मां की अकाल मृत्यु हो गयी. भाभी देवी समान थी, साक्षात् लक्ष्मी की अवतार. उनकी मृत्यु से भईया विक्षिप्त से हो गये. डा० के एन० गुप्ता भैया के बचपन के मित्र हैं, साथ ही हमारे फैमिली डाक्टर भी. इन्होंने भैया को संभाला. चूंकि मेरी शादी हो चुकी थी और मैं अपने ससुराल में खुश थी. इस कारण राजीव की जिम्मेदारी मैं ले नहीं सकती थी. मेरी गोद में भी मेरा अपना बेटा था. राजीव को तो किसी न किसी की ममता चाहिए थी. सो मजबूर होकर उन्होंने प्रभा नाम की एक गरीब युवती से शादी कर ली. कुछ दिनों तक प्रभा का राजीव के साथ अच्छा व्यवहार रहा. परंतु जैसे ही वह स्वयं मां बनी कि उसकी नजर ही बदल गयी. वह बात-बे-बात पर राजीव को प्रताड़ित करने लगी. इसी बीच मेरे साथ भी ऐसी हृदय विदारक दुर्घटना हो गयी कि मैं अपने सुहाग के साथ साथ अपनी ममता भी खो बैठी. मेरे दुखों का यहीं अंत नहीं हुआ. मेरी सास मुझ पर तरह तरह के लांछन लगाकर मुझे प्रताड़ित करने लगी. जब भैया को मुझपर ढाए जाने वाले जुल्मों-सितम की जानकारी मिली तब वे इतने व्यथित हुए कि मेरे ससुराल पहुंच कर ससुर जी से झगड़ पड़े. मगर झगड़ा तो इस समस्या का निदान तो नहीं था न. मैंने दबी जुबान में उनके साथ चलने की इच्छा प्रकट की. वे हंसी-खुशी से मुझे अपने घर ले आये. हालांकि भैया मेरी दूसरी शादी करवाना चाहते थे, लेकिन मैंने साफ साफ इंकार कर दिया. मगर भैया के उस आलीशान महल में भी मेरे दुर्भाग्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा. प्रभा नाम की वह चाण्डालीन औरत मेरी और राजीव की ऐसी दुश्मन बन गयी कि हमारा जीवन नर्क बन गया! भैया तो अपनी पहली पत्नी के शोक में पहले से ही दुखी थे, इसलिए मैं उनका दुःख और बढ़ाना नहीं चाहती थी. अतः चुपचाप उस नागिन का फुंफकार सहती रही. मगर मासूम राजीव कितना बर्दाश्त करता ? एक दिन रोते-रोते उसने प्रभा की पूरी कारगुजारियां सुना दी अपने पापा को. मजबूर होकर भैया ने मुझे और राजीव को इस फार्महाउस में लाकर रख दिया. साथ ही उन्होंने पूरा फार्महाउस राजीव के नाम करके उसकी संरक्षिका मुझे बना दिया. भैया की इतनी हैसियत है कि यदि वे चाहते तो राजीव को विदेश भी भेज सकते थे. लेकिन वे अपने बेटे से इतना प्यार करते थे कि उसे पल भर के लिए भी अपनी आंखों से ओझल होने देना नहीं चाहते थे. इसलिए उसका नाम लखनऊ के ही एक महंगे कान्वेंट स्कूल में लिखा दिया गया. वे प्रायः प्रत्येक रविवार को राजीव से मिलने के लिए फार्महाउस में आ जाया करते. भैया को आशंका थी कि उनकी कर्कशा पत्नी राजीव को नुक्सान पहुंचा सकती है, इसलिए यहां उन्होंने उसकी सुरक्षा की पूरी व्यवस्था करवा दी. राजीव को स्कूल ले जाने और पहुंचा जाने के लिए एक बुलेट प्रूफ गाड़ी रख दी गयी. भैया ने प्रभा के बेटे और बेटी से राजीव का परिचय करवा दिया था. रविवार को वे प्रभा से छुपाकर उसके बेटे और बेटी को यहां ले आते. वे तीनों इस तरह से हिल-मिलकर खेलने लग जाते जैसे वे तीनों सगे भाई बहन हों. धीरे-धीरे राजीव बड़ा होने लगा. उसका नाम एक अच्छे कालेज में लिखवा दिया गया. वहीं प्रभा की जिद पर भैया ने उसके बेटे और बेटी को नैनीताल भेज दिया. मां के ढोंगी प्यार और भैया की लापरवाही का नतीजा यह हुआ कि प्रभा के बेटे और बेटी दोनों ही बिगड़ते चले गये.
अब तक राजीव बी. ए. कर चुका था. भैया ने सोचा कि राजीव तो अब इस लायक हो चुका है कि अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है, इसलिए उन्होंने शो रूम उसके हवाले कर दिया. मगर वह रात्रि विश्राम मेरी निगरानी में इस बंगले में ही किया करता था. एकबार भैया हीरों की खरीददारी के लिए साउथ अफ्रीका चले गये. उसी बीच डा० गुप्ता भी अपने एक थिसिस को पूरा करने के लिए कैलिफोर्निया चले गये. भैया को अफ्रीका में एक महीना रूकना पड़ गया. इस बीच उस चुड़ैल को मौका मिल गया और उसने पुलिस तथा भैया के कुछ नौकरों को खरीद कर अपने पक्ष में मिला लिया और मासूम राजीव पर चोरी का झूठा इल्ज़ाम लगा कर उसे गिरफ्तार करवा दिया. राजीव के ऊपर लगे इस झूठे और घटिया इल्ज़ाम ने राजीव के दिलो-दिमाग पर ऐसा प्रतिकूल असर डाला कि वह पुलिस हाजत में पागलों जैसी हड़कते करने लगा. फिर तो उस हरामजादी की बांछे खिल गयी. वह अपने मंसूबे में कामयाब हो चुकी थी. पुलिस के बड़े अफसरों को खरीद कर उसने राजीव को पुलिस कस्टडी से सीधा पागलखाने में डलवा दिया. एक सरकारी डॉक्टर ने भी राजीव को पागल घोषित कर दिया था. उस कलमुंही ने राजीव को पागल घोषित करवाने के लिए ऐसा पुख्ता जाल बिछाया था कि मेरे साथ साथ इस फार्म हाउस के सारे नौकर नौकरानियां भी फंस गयी. अब पागल खाने में भी राजीव को चैन से नहीं रहने दिया गया. उसे प्रत्येक दिन तीन से चार बार बिजली के झटके दिलवाने लगी वह चुड़ैल. बिजली के झटके के कारण राजीव की जो हालत हुई उसे तो तुम अपनी आंखों से देख ही रही हो." इतना कहकर शारदा देवी चुप हो गई. राजीव की दर्द भरी दास्तान सुनकर संध्या सुबकने लगी. कुछ देर रोने के पश्चात उसने पूछा -"फिर क्या हुआ बुआ जी?"
"लगभग एक महीने बाद भैया और गुप्ता जी एक-साथ यहां आए. जब उन्हें राजीव के बारे में जानकारी मिली तब उन दोनों के होश उड़ गए. मैंने भी रोते रोते उस चुड़ैल के सारे किस्से सुना दिया. बड़ी मुश्किल से गुप्ता जी ने भैया को संभाला. फिर एक दिन हम तीनों राजीव को देखने पागलखाना पहुंचे. राजीव की हालत देखकर हम-लोगों पर जो बीती उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती. जिस तरह का कुचक्र उस चाण्डालीन ने रचा था, कुछ वैसा ही कुचक्र भैया ने भी रचा. उसी दिन पागलखाने में एक पागल की मौत हो गयी थी. वह लावारिस था. उसे राजीव बना कर राजीव की मौत की घोषणा करवा कर पागलखाने में ही उसका दाह संस्कार कर दिया गया. फिर बड़ी चालाकी से राजीव को डा० गुप्ता के निर्सिंगहोम में रखकर हम सभी घर आ गये और राजीव के लिए विलख विलख कर रोने लगे. हमारे उस रूदन में साथ देती हुई वह चुड़ैल भी मगरमच्छी ऑंसू बहाने लगी. मगर दिल ही दिल में वह हंस रही थी. हां उसका बेटा, जो अब तक पूरी तौर पर आवारागर्द हो चुका था, वह भी अपने भाई के लिए दिल से रो रहा था. भले ही वह आवारा था मगर उसे अपने राजीव भैया से बेहद प्यार था. राजीव के दिखावटी क्रियाकर्म के पश्चात उसका ट्रीटमेंट बड़े बड़े डाक्टरों से करवाया जाने लगा. यहां तक कि लाखों रुपए खर्च करके अमेरिका और लंदन से भी डाक्टरों को बुलवाया गया, मगर कोई फायदा न हुआ." अबकी बार शारदा देवी भी फुट फुट कर रोने लगी.
"मत रोइए बुआ." संध्या शारदा देवी को चुप कराती हुई बोली -"मुझे पूर्ण विश्वास है कि राजीव बाबू ठीक हो जाएंगे."
"यदि ऐसा हो गया बेटी तो मेरे माथे पर लगा हुआ कलंक मिट जाएगा."
"आपके माथे पर कौन सा कलंक लग गया." संध्या चकित भाव से उसकी ओर देखने लगी.
"भैया यही समझ रहे हैं कि मैं राजीव की ओर से लापरवाह हो चुकी हूं. मगर सच यह नहीं है बेटी. मैं दिन रात राजीव की जिन्दगी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती रहती हूं. हां, मुझसे उसकी तकलीफ़ नहीं देखी जाती, इसलिए ही मैं उस काॅटेज में देर तक नहीं रह पाती."
"मैं आपके दर्द को समझती हूं बुआजी."
"अच्छा ये बताओ, तुम कॉटेज में कब जा रही हो.?"
"कल ही सुबह जाऊंगी. और हां बुआ जी. शान्ति और गोपाल को भी मैं अपने साथ लेती जाऊंगी."
"ठीक है." शारदा देवी उठकर खड़ी हो गयी. संध्या भी बिछावन पर से उतर कर उनके साथ ही बाहर निकल गयी.
∆∆∆∆∆
क्रमशः........!
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