धारावाहिक उपन्यास 


- राम बाबू नीरव 

संध्या कारिडोर पर ही ठिठक कर रूक गयी. हॉल के बीचोबीच खड़े जिस भद्र पुरुष पर उसकी दृष्टि पड़ी वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे. सूट-बूट धारी लगभग साठ वर्षीय उक्त सज्जन के आकर्षक व्यक्तित्व की खास विशेषता यह थी कि उनके पीछे चार अंगरक्षक अपने अपने हाथों में राइफल लिये पूरी चौकसी से खड़े थे. उनके साथ एक सजीला नौजवान भी था, जिसके हाथ में एक छोटा सा ब्रीफकेस था. उसका हाव-भाव बता रहा था कि वह इनका पी. ए.रहा होगा. इनके ठाठ-बाट को देखकर संध्या को समझते देर न लगी कि ये सज्जन कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हैं. उसे उस कॉटेज की याद आ गयी जिसमें न जाने की हिदायत बुआ जी ने दी थी. इसका मतलब ये सज्जन उसी कॉटेज में रहते होंगे. मगर संध्या को इतने विशिष्ट व्यक्ति के मुंह से अशिष्ट बातें सुनकर बहुत ही आश्चर्य हुआ. वे बिल्कुल अभद्र ढंग से बुआ जी को पुकार रहे थे -

"शारदा..... शारदा.!" उनकी इस अशिष्ट और रोबिली आवाज से पूरा बंगला कांप उठा. पलक झपकते ही बंगले के सारे नौकर-चाकर दौड़ते हुए आकर उनके समक्ष नतमस्तक से खड़े हो गये. उन नौकरों में सबसे आगे शान्ति थी.और उसके पीछे माधव तथा अन्य नौकर. संध्या कुछ समझ नहीं पायी कि आखिर ये सज्जन हैं कौन, जिनके समक्ष बुआ जी के समस्त नौकर नतमस्तक हैं. यह बंगला बुआजी की मिल्कियत है. ये सज्जन बड़े होंगे तो अपने घर के. इन्हें बुआजी को इतनी अशिष्ट भाषा में पुकारने का क्या हक है? उक्त सज्जन ने अपनी उचटती हुई नजर एका-एकी सारे नौकरों पर डाली फिर उनकी नजर शान्ति पर जाकर स्थिर हो गयी. शान्ति की नजरें झुकी हुई थी और उसके पांव कांप रहे थे. 

"शारदा कहां है.?" बेहद कसैले स्वर में उन्होंने पूछा. 

"जी बड़े मालिक, वे‌ शहर गयी हैं." कांपती हुई आवाज निकली शान्ति के मुंह से. 

"हुंह...." उपेक्षा भाव से अपने ओठों में बुदबुदाते हुए वे बोले -"जब देखो तब शारदा यहां से गायब ही रहा करती है." उनके चेहरे का तनाव बता रहा था कि वे अंदर ही अंदर काफी क्षुब्ध हो चुके हैं. शान्ति उनकी तीखी बातों को सुनकर जोर जोर से कांपने लगी. तभी अनायास ही उनकी नजर कॉरिडोर पर खड़ी संध्या पर पड़ गयी. संध्या को देखते ही उनका चेहरा तन गया - "यह लड़की कौन है?" उन्होंने कड़कती हुई आवाज में पूछा. इस बार संध्या भी घबरा गयी. और वह शान्ति की तरह ही कांपने लगी.

"जी मालिक, यह अनाथ है, बुआ जी को लखनऊ की एक गली में भटकती हुई मिली थी और वे इस पर दया करके यहां ले आयीं." शान्ति ने कांपते स्वर में संध्या की संक्षिप्त कहानी सुना दी. संध्या की कहानी सुनकर वे और भी क्रोधित हो उठे - "शारदा ने इस फार्म हाउस को कोई अनाथ आश्रम समझ रखा है क्या, जिसे पाती है उठाकर ले आती है. जब शारदा यहां आये तो उससे बोल देना मैं उसके इस रवैये से बहुत खफा हूं. समझी....!"

"जी मालिक बोल दूंगी." 

उनकी तीखी बातें सुनकर संध्या के पूरे बदन में आग लग गयी. उसकी इच्छा हुई कि वह नीचे उतर कर इस मगरुर इंसान का मुंह नोच ले. परंतु वह ऐसा न कर पाई. करती भी कैसे....! उसके माथे पर तो बदनसीबी लिखी थी. अपनी तकदीर की इस रेखा को वह कैसे बदल देती.? आत्मग्लानि से वह अंदर ही अंदर घुलने लगी. उसके पांव कांपने ‌लगे और‌ उसकी आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे. 

"तुम्हारा नाम माधव है.?" शान्ति के निकट खड़े माधव से पूछा उस मगरुर इंसान ने.

"जी मालिक." माधव का स्वर भी लड़खड़ा रहा था.

"तुम मेरे साथ आओ." वे द्वार की ओर बढ़ गये. माधव भी उनके पीछे-पीछे जाने लगा. उनलोगों के जाने के बाद संध्या अपने कमरे में आकर औंधे मुंह बिछावन पर गिर पड़ी और अपने दुर्भाग्य पर सिसकियां ले लेकर रोने लगी. उस आदमी ने उसके साथ साथ बुआ जी को भी अपमानित कर दिया. इतना अपमान सहन कर क्या यहां रुकना उचित होगा ? भले ही उसके माथे पर पिता का साया नहीं है, मगर उसकी मां गुलाब बाई तो जिंदा है. अब उसकी मां उसे जिस हाल में भी रखे, वह वहीं चली जाएगी.

"संध्या, यह क्या तुम उनकी बातों का बुरा मान गयी.!" संध्या आंसुओं से तर अपना चेहरा उठाकर देखने लगी. सामने शान्ति खड़ी थी. 

"आखिर वे हैं कौन जो इस तरह से बुआजी और मुझे बेइज्जत करके चले गये." वह बेशाख्ता शान्ति से लिपट गयी.

"हे मेरे रामजी, यह लड़की तो बड़े मालिक को भी नहीं पहचानती !"

"बड़े मालिक, कौन बड़े मालिक?" शान्ति से अलग होकर संध्या चकित भाव से उसे घूरने लगी. 

"इस पूरे फार्म हाउस के असली मालिक वे ही तो हैं."

"फिर बुआ जी कौन है?" इस रहस्योद्घाटन पर संध्या चकित रह गयी. 

"उनकी छोटी बहन."

"ओह, अब समझी." संध्या के चेहरे की रौनक लौट आयी. 

"नहीं, तुम कुछ भी नहीं समझी." शान्ति व्यंग्य भाव से उसकी ओर‌ देखती हुई बोल पड़ी. 

"क्या मतलब.?" 

"मतलब यह कि तुमने बड़े मालिक के स्वभाव को ठीक से परखा नहीं है. वे ऊपर से देखने में जितने कठोर और कड़क हैं, अंदर से उतने ही कोमल और सहृदय हैं. इनका नाम सेठ द्वारिका दास है. लखनऊ की बड़ी बड़ी हस्तियों में से एक हैं ये. निशांत गंज में इनका हीरों और जवाहरातों का बहुत बड़ा शो रूम है. किसी भी नये आदमी को फार्म हाउस में देखकर पहले तो ये कुपित हो जाते हैं, फिर जब इनको अपनी ग़लती का एहसास होता है तब उसके सामने आकर मासूम बच्चे की तरह रोते हुए माफी मांगने लगते हैं ."

"शान्ति ठीक कह रही है बेटी मैं पागल हूं" इस आवाज को सुनकर वे‌ दोनों चौंक पड़ी. सामने सेठ द्वारिका दास जी खड़े थे और उनकी आंखों से टप टप आंसू टपक रहे थे. उन्हें इस रूप में देखकर संध्या को अपनी आंखों पर विश्वास ही न हुआ. अभी चंद लम्हें पहले जो आदमी संध्या को चाण्डाल नजर आ रहा था, वही अब देवतुल्य नजर आने लगे. इनके चेहरे पर पाशविक कठोरता की जगह दैवी विनम्रता, दयाभाव और करुणा परिलक्षित होने लगे थे. उनका ऐसा अनोखा सौम्य और वात्सल्य रूप देखकर संध्या दंग रह गयी.

"मेरी बातों से तुम्हें बहुत दु:ख हुआ है न, मुझे माफ़ कर दो बेटी." किसी अभ्यागत की तरह उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये."

"यह क्या कर रहे हैं बाबू जी आप.?" संध्या ने झट से उनके हाथों को थाम लिया. 

"अपनी ग़लती के लिए माफी मांग रहा हूं."

"आप माफी नहीं मांग रहे हैं, बल्कि बेटी तुल्य इस अभागी लड़की पर पाप चढ़ा रहे हैं."

"किसने कहा तुम अभागी हो. तुम शारदा और सेठ द्वारिका दास की शरण में आयी हो, कोई तकलीफ़ न होगी तुम्हें यहां. एक बात बताओ क्या तुमने मेरे बेटे को देखा है."

"आपके बेटे को....?" संध्या का सर चकरा कर रह गया.

"हां मेरे बेटे को, राजीव नाम है उसका. वह इसी फार्म हाउस में रहता है."

"न....अब तक तो मैंने आपके बेटे को नहीं देखा है."

"जब तुमने मेरे बेटे को देखा ही नहीं, तब तुम मेरे दु:ख-दर्द का अंदाजा नहीं लगा सकती. मैं इस संसार का वह अभागा बाप हूं जो अपने बेटे के लिए ईश्वर से प्राणों की भीख मांगने के बजाए मौत की दुआ मांगता है." सेठ द्वारिका दास दीवार पर मुक्का मारते हुए फफक-फफक कर रोने लगे. संध्या अपनी जिन्दगी में प्रथम बार एक लाचार बाप को अपने बेटे के लिए तड़पते हुए देख रही थी. उसका कलेजा टुकड़े टुकड़े होकर बिखरने लगा. शान्ति भी खुद को रोक न पाई और आंखों से बेशुमार ऑंसू बहाने लगी. कुछ देर सेठ द्वारिका दास के साथ वे दोनों भी रोती रही फिर संध्या अपने आंचल से सेठजी के आंसू पोंछती हुई बोली निराश मत होइए बाबू जी, ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक हो जाएगा."

"नहीं ठीक होगा बेटी. उसकी हालत देख कर अब तो मेरा ईश्वर पर से भी भरोसा ही उठ चुका है."

"ऐसा मत कहिए बाबू जी, ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं. वैसे आपके पुत्र को हुआ क्या है?"

"बड़े-बड़े डाक्टर नहीं समझ पाये कि मेरे बेटे को कौन सा रोग है, तो फिर मैं क्या बताऊं. बस ये समझ लो कि वो मृत्यु शय्या पर पड़ा मौत से जुझ रहा है. डाक्टरों ने कहा है कि वह कोमा में चला गया है. उसकी हालत देखकर मैं हताश हो चुका हूं बेटी."

"बाबू जी, क्या मैं राजीव बाबू को देख सकती हूं?" उसकी बात सुनकर दंग रह गये सेठ द्वारिका दास. ठीक ही कह रही है यह लड़की मुझे ईश्वर पर अविश्वास नहीं करना चाहिए था. उन्होंने ने ही तो देवी स्वरुपा इस लड़की को भेजा है यहां, क्या पता इसके ही हाथों में यश हो और मेरा राजीव नवजीवन पा जाए.?

"ठीक है चलो बेटी, तुम्हें अपने बेटे से मिलवाता हूं." वे उत्फुल्लित भाव से बोले और दरवाजे की ओर मुड़ गये. तभी तेजी से शान्ति उनके सामने आकर विनती करने लगी -"मालिक, राजीव बाबू को देखने के लिए मैं भी चलूं "

"हां.... हां ज़रूर चलो." 

संध्या और शान्ति सेठ द्वारिका दास के पीछे पीछे कमरे से बाहर निकल गयी.

                *****

सेठ द्वारिका दास का यह पूरा काफिला उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित उसी कॉटेज की ओर बढ़ गया, जिस कॉटेज की ओर न जाने की हिदायत बुआ जी ने उसे दी थी. यानी सेठजी के पुत्र उसी कॉटेज में रहते हैं, मगर संध्या की समझ में न आया कि सेठजी ने अपने पुत्र को अपनी आलिशान कोठी में न रखकर इस फार्म हाउस में दुनिया की नजरों से छुपाकर क्यों रखा हुआ है.? और बुआ जी ने उसे उस कॉटेज की ओर जाने से मना क्यों कर दिया था.? उसे ये सारी बातें रहस्यमय लगी. जब वह सेठ द्वारिका दास और शान्ति के साथ उस फार्म हाउस पर पहुंची तब उसे वह फार्म हाउस एक छोटा-मोटा नर्सिंग होम नजर आया. एक कमरे को आईसीयू का रूप रूप दे दिया गया था. उसी आईसीयू में एक साफ-सुथरे बिछावन पर चित लेटा था सेठ द्वारिका प्रसाद जी का बेटा राजीव. संध्या की दृष्टि जैसे ही राजीव पर पड़ी उसके मुंह से एक चीख निकल पड़ी. यदि शान्ति ने उसे अपनी बाहों में थाम न लिया होता तो निश्चित रूप से वह मूर्छित होकर गिर पड़ी होती. 

"होश में आओ संध्या." शान्ति ‌उसके गाल पर थपकियां देती हुई बोली. बड़ी मुश्किल से संध्या ने स्वयं को संभाला और शान्ति की आगोश से मुक्त होकर फर्श पर बैठ गयी. भय के मारे उसका चेहरा स्याह पड़ गया और वह लम्बी लम्बी सांसें लेने लगी. किसी मनुष्य का ऐसा विभत्स रूप वह अपनी जिन्दगी में प्रथम बार ही देख रही थी. वह मनुष्य नहीं बल्कि सूखी हुई हड्डियों का ढ़ांचा मात्र लग रहा था. उसकी आंखें कटोर में धंसी हुई थी. दाढ़ियां बड़ी बड़ी होकर उसके रूप को भयानक बना रही थी. उसके बाल भी लम्बे लम्बे तथा उलझे हुए थे. उसके चेहरे की हड्डियां विचित्र ढ़ंग से उभरी हुई थी. मुंह के दोनों ओर से लार टपक रहा था. ऐसे रोगी को देखकर एकसाथ घृणा, दया और भय का भाव किसी के भी मन में उत्पन्न हो सकता था. फिर संध्या तो भावुक थी. राजीव को देखकर उसे ऐसा झटका लगा कि वह चेतना शून्य होने लगी. 

"देख लिया न मेरे बेटे को." सेठ द्वारिका दास उसके सामने आकर करुण स्वर में बोल पड़े. -"जब इसे देखकर तुम्हारी यह हालत हुई है, तब सोचो मेरी क्या हालत हो रही होगी. हम निराश हो चुके हैं बेटी, शारदा भी ‌निराश हो चुकी है इसलिए ही वह इसकी ओर से लापरवाह रहने रगी है." 

"लेकिन बाबू जी मैं निराशावादी नहीं हूं." संध्या एक झटके में उठकर खड़ी हो गयी. और राजीव के निकट आकर गौर से उसे देखने लगी. राजीव के आंखों की पुतलियां निस्तेज तो नहीं थी, हां स्थिर अवश्य थी. वह बिछावन पर बैठ गयी और अपने आंचल से राजीव के मुंह से बह रहे लार को पोंछने लगी. ऐसा करते समय उसकी आंखों से दो बूंद आंसू टपक कर राजीव के गाल पर गिर पड़े. सहसा संध्या को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे राजीव की स्थिर पुतलियों में क्षीण सा कंपन हुआ हो. उसके हृदय का तार झनझना उठा. इसका मतलब राजीव बाबू की जीजिविषा मरी नहीं है. इसमें चेतना है. उसके इस कृत्य को देखकर सेठ द्वारिका दास, शान्ति तथा ड्यूटी पर तैनात नर्स भी हैरान रह गयी. राजीव के लार को पोंछते समय इस लड़की को तनिक भी घृणा महसूस न हुई. जबकि नर्स के साथ साथ शान्ति और उनके बगल में खड़ा माधव भी अपना मुंह ढंके हुए था. सेठ द्वारिका दास के दिल से आवाज आयी -"यह लड़की किसी देवी का अवतार है. अवश्य ही यह लड़की कोई न कोई चमत्कार दिखाएगी. 

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क्रमशः........!

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