धारावाहिक उपन्यास 


--राम बाबू नीरव 

राजीव की सुरक्षा को लेकर सेठ द्वारिका दास जी की दुश्चिंता अब और भी बढ़ गयी. उनकी कर्कशा पत्नी प्रभा दास, अब तक अंधेरे में ही थी. मगर जिस दिन उसे पता चलेगा कि उसका सौतेला बेटा राजीव अभी जिंदा है और उसके फार्महाउस में ही है, उस दिन से ही वह उसे रास्ते से हटाने की साज़िश रचने लगेगी. अपने परम प्रिय मित्र डा० के० एन० गुप्ता से राय-मशविरा करके राजीव को अपने मुम्बई वाले शो रुम को चलाने के लिए भेजने का निर्णय उन्होंने ले लिया. अपने मन की बात उन्होंने शारदा देवी, संध्या और अपने जिगर के टुकड़े राजीव को बता दी. उनका यह निर्णय शारदा देवी और संध्या को तो पसंद आ गया, परंतु राजीव को रत्ती भर भी पसंद न आया. वह अपनी प्राण-प्रिया संध्या को छोड़कर कहीं भी जाने को तैयार न था. हालांकि उसने प्रत्यक्ष रूप से अपने पिता को कुछ भी न कहा था, लेकिन सेठ द्वारिका दास इतने नासमझ न थे कि उसके दिल की बात को न समझ पाते. फिर भी वे राजीव की जिन्दगी को अब दुबारा खतरे में डालना नहीं चाहते थे. उन्होंने एकांत में संध्या से विनती करते हुए कहा -

"बेटी, राजीव को सिर्फ तुम ही समझा सकती हो, किसी भी तरह तुम उसे मुम्बई जाने के लिए तैयार कर लो. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा. हम सभी जानते हैं कि मेरी कर्कशा पत्नी प्रभा राजीव को अपने रास्ते से हटाने का कोई न कोई कुचक्र रचेगी ही. यदि दुबारा मेरे बेटे को कुछ हो गया तब मैं भी जिन्दा न बचूंगा."

"ऐसी बातें मुंह से मत निकालिए बाबू जी. यदि राजीव को कुछ हो गया तो क्या मुझे तकलीफ़ न होगी? मैं राजीव को मुम्बई  जाने के लिए राजी कर लूंगी." संध्या ने कहने को तो कह दिया, मगर राजीव को मना लेना इतना आसान न था. 

               *****

मौसम बड़ा सुहाना था. शाम से ही आकाश  में बादल उमड़ने -घुमड़ने लगे थे. फिर हल्की-हल्की बूंदाबांदी के साथ तेज हवा चलने लगी थी. कभी कभी बिजली भी चमक जाती. लगभग रात्रि के दस बजे जब संध्या राजीव के कमरे में पहुंची तब उसके चेहरे पर छाई विषाद की कालिमा को देखकर तड़प उठी.  उसकी समझ में न आया कि वह राजीव से कैसे बात करें ? हालांकि स्वयं उसके दिल में भी एक कशक उभरी थी. दिल के किसी कोने से आती हुई एक आवाज उसे सुनाई दी -"संध्या क्या तुम राजीव के बिना रह पाओगी.?" मगर इससे पहले कि यह आवाज उसके दर्द को बढ़ा देता उसने बड़ी बेरहमी से उसे अपने दिल में ही दफ़ना दिया. वह राजीव का हाथ अपने हाथ में लेकर प्रेम से सहलाती हुई मृदुल स्वर में पूछ बैठी -"राजीव....तुम इतने उदास क्यों हो?" 

"क्या....तुम नहीं जानती." एक दम से उखड़ गया राजीव. पहली बार संध्या राजीव के तमतम रहे चेहरे को देख रही थी. -"ये सभी लोग मुझे तुम से अलग कर देना चाहते हैं."

"तुम गलत सोच रहे हो राजीव. बाबू जी तुम्हें मुझसे अलग नहीं कर रहे हैं, बल्कि तुम्हारी सुरक्षा के लिए.....!"

"मैं अब बच्चा नहीं हूं जो अपनी सुरक्षा न कर पाऊं." आक्रोश से राजीव का सम्पूर्ण शरीर कांपने लगा.

"शान्त हो जाओ राजीव.!"

"कैसे शान्त हो जाऊं.... तुम्हीं बताओ क्या मैं तुम्हारे बिना रह सकता हूं." राजीव की आंखों से बेशुमार ऑंसू बहने लगे. -" संध्या तुमने मुझे सिर्फ नयी जिन्दगी ही नहीं दी है, बल्कि जिन्दगी जीने का सलीका भी सिखाया है. अब मैं  तुमसे पूछता हूं - क्या  तुम मेरे बिना रह सकती हो."

"राजीव." संध्या उसके आंसू पोंछती हुई शान्त स्वर में बोली. -"तुम मेरे बारे में क्या जानते हो ?"

"मुझे कुछ भी नहीं जानना है तुम्हारे बारे में. मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि तुमने मुझे इस लायक बनाया है कि मैं जीवन पथ पर चल सकूं. लेकिन इस टेढ़े-मेढ़े पथ पर मैं अकेला नहीं चल सकता संध्या, तुम्हें मेरा साथ देना होगा, जीवन संगिनी के रूप में." राजीव की आंखों से फिर आंसू बहने लगे. उसकी हालत देखकर संध्या दिल ही दिल में तड़प उठी. उसकी समझ में न आया कि वह राजीव को अपनी हकीकत कैसे बताएं.? कैसे समझाए इसे कि वह इसकी जीवन संगिनी नहीं बन सकती. उसके माथे  पर एक तवायफ की बेटी  होने का ठप्पा लगा है. मगर यदि वह राजीव की बात नहीं मानेगी तो कहीं इसकी हालत फिर न बिगड़ जाए. "ओफ्.....हे भगवान, मुझे किस भंवर में फंसा दिया. डाक्टर अंकल ने ठीक ही कहा था, इस तपस्या को मैं जितना आसान समझ रही थी, यह उतना आसान है नहीं." वह अपने दिल में उठे तूफान के थपेड़े खाती हुई राजीव से बोली -"देखो राजीव मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मैं तुम्हारी ही जीवन संगिनी बनूंगी."

"सच संध्या.....!" राजीव के चेहरे की रौनक लौट आयी.

"बिल्कुल सच." संध्या भी मुस्कुराती हुई बोली -"लेकिन उससे पहले तुम्हें मेरी अतीत की कहानी सुननी होगी."

"संध्या..... तुम्हारी कोई भी कहानी मुझे नहीं सुननी है." राजीव ने साफ शब्दों में इंकार कर दिया.

"मगर राजीव....!"

"कह दिया न नहीं....!" उसका चेहरा फिर तमतमाने लगा. उसकी इस जिद के सामने संध्या ने हार मान लेना ही उचित समझा. कुछ पल मौन रहने के पश्चात वह बोली -"ठीक है राजीव, मैं तुम्हें अपने बारे में कुछ भी न बाताऊंगी. लेकिन तुम्हें मुम्बई जाना ही पड़ेगा ."

"मुम्बई भी जाऊंगा, परंतु मेरे साथ तुम्हें भी चलना होगा."

"ऐसे कैसे चली जाऊंगी." संध्या तमकती हुई बोल पड़ी. -"पहले तुम वहां जाओ और अच्छी तरह से व्यवस्थित हो जाओ फिर जब यहां आना तब बाबू जी से अनुमति लेकर मैं भी तुम्हारे साथ चल दूंगी.

"ओह.....संध्या तुम कितनी अच्छी हो." भावना के प्रवाह में बहकर राजीव ने उसे अपनी बाहों में भर लिया.

"यह क्या कर रहे हो, छोड़ो न." संध्या मीठे स्वर में झिड़कती हुई खुद को उसके बंधन से मुक्त करने की कोशिश करने लगी. 

"नहीं छोड़ूंगा." राजीव की बाहों का बंधन और भी मजबूत हो गया. 

"क्या कर रहे हो राजीव, छोड़ो ना....देखो, देखो कोई आ रहा है." दरवाजे की ओर देखती हुई कुछ ऐसे अंदाज में बोली संध्या कि राजीव सकपका गया और उसके बाहों के घेरे का बंधन ढीला पड़ गया फिर तो एक ही झटके में संध्या उसके बंधन से मुक्त होकर खिलखिला कर हंसने लगी और बिछावन पर से उतर कर दरवाजे की ओर बढ़ गयी. राजीव भी उछल पड़ा और उसकी कलाई थामते हुए बोला -"चिटिंग.... चिटिंग करती हो मुझसे."

"छोड़ो न मुझे नींद आ रही है."

"तो यहीं सो जाओ न."

"नहीं, यहां नहीं सो सकती.!"

"क्यों नहीं हो सकती, पहले तो मेरे साथ सोती थी." मासूमियत से बोला राजीव.

"तबकी बात और थी, तब मैं तुम्हारी परिचारिका थी. परिचारिका का कर्तव्य रोगी की सेवा करना होता है, सो मैं तुम्हारी सेवा कर रही थी."

"तुम मेरी परिचारिका, जब थी तब. अब मेरी ज़िन्दगी हो, मेरी प्रेयसी हो. मुझसे दूर न जाओ संध्या नहीं तो.....!"

"राजीव.....!" संध्या का अंग-प्रत्यंग झनझनाने लगा. वह चाहकर भी राजीव के हाथ से अपनी कलाई छुड़ा न पाई. तभी कसकर बिजली तड़क उठी, बादल गरजने लगे. और बत्ती गुल हो गयी. भय के मारे राजीव के मुंह से एक चीख निकल पड़ी. वह बेतहाशा संध्या से लिपट गया. बादल की भयानक गर्जना ने संध्या को भी भयभीत कर दिया. फिर तो वह भी राजीव को अपनी गिरफ्त में भींचती चली गयी.   अचानक जोर से बिजली कड़की और वे दोनों  एक-दूसरे से लिपटे हुए बिछावन पर गिर पड़े. संध्या इस अप्रत्याशित घटना से इतनी संवेदनशील हो गयी कि राजीव के बंधन से खुद को मुक्त न करा पाई. उसके कानों में सांय सांय की आवाज गूंजने लगी. राजीव को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके अंदर ज्वालामुखी धधकने लगा हो. वह अपनी उत्तेजना को संभाल नहीं पाया और संध्या उसकी मासूमियत तथा निश्छलता के समक्ष पराभूत हो गयी. उसके पावन प्रेम की सरिता में डूब कर चेतना शून्य हो गयी. उसे धर्म अधर्म का कुछ भी ज्ञान न रहा. संध्या का पवित्र और निर्मल सामीप्य पाकर राजीव  की आत्मा तृप्त हो गयी और संध्या को भी ऐसा लगा जैसे जीवन का वह अलौकिक आनन्द उसे क्षण भर में ही प्राप्त हो गया हो जो दाम्पत्य सूत्र में बंधने के बाद प्राप्त होता है. चरम सुख की प्राप्ति के पश्चात वह एकाएक आत्मग्लानि से भर उठी. उत्तेजना के प्रवाह में वह यह क्या कर बैठी.? क्षणभर में ही यह सब कैसे हो गया, जो नहीं होना चाहिए था. हालांकि उसने तृष्णा के प्रवाह को रोकने की बहुत कोशिशें की थी, परंतु रोक न पाई. इसलिए नहीं रोक पाई कि कहीं राजीव के मनोमस्तिष्क पर इसका प्रतिकूल असर न पड़े जाए. वह राजीव की ओर देखने लगी. वह निश्चल पड़ा खर्राटे भर रहा था. संध्या ने भी महसूस किया जैसे उसका अंग अंग टूट रहा हो. निढाल सी वह भी बिस्तर पर पसरा गयी. बाहर तूफान थम चुका था और मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी.

              *****

  सेठ द्वारिका दास ने अपने सबसे विश्वस्त पी. ए. तथा दो काबिल कर्मचारियों के साथ राजीव को मुम्बई भेजने की योजना बना ली थी. राजीव को एयरपोर्ट तक छोड़ने वे स्वयं डा० गुप्ता के साथ गये. हालांकि संध्या की एयरपोर्ट जाने की इच्छा नहीं थी, क्योंकि राजीव से बिछोह की वेदना उससे बर्दाश्त नहीं होती, परंतु द्वारिका दास के समक्ष उसकी एक न चली और वह बुआ जी तथा दीपक के साथ बुआ जी की गाड़ी पर बैठने को विवश हो गयी. 

   जब राजीव का प्लेन आकाश की ओर उड़ा तब संध्या को ऐसा लगा जैसे कोई बड़ी बेदर्दी से उसका कलेजा निकाल कर लिये जा रहा हो. बहुत रोकने के बावजूद भी उसकी आंखों से आंसू ढुलक ही पड़े. उन आंसुओं को और किसी ने तो नहीं, मगर दीपक ने देख लिया. दीपक का दिल तड़प उठा. क्या संध्या राजीव बाबू से प्यार करने लगी है? कहीं यह लड़की पागल तो नहीं है. धूल का मामूली सा कण होकर किसी राजकुमार के मुकुट की शोभा बनना चाहती है. क्या संध्या जैसी अनाथ लड़की को, जिसकू खुद अपने माता-पिता का पता नहीं, उसे सेठ द्वारिका दास अपने खानदान की बहू बना लेंगे.? ऐसा सपना देखकर इस लड़की ने खुद के पांव पर कुल्हारी मार ली है. 

प्लेन के उड़ जाने के बाद सेठ द्वारिका दास और गुप्ता जी तो शहर की ओर चले गये और शारदा ‌देवी भी अपनी गाड़ी में से यह कहकर उतर गयी कि मुझे एक समारोह में जाना है. गाड़ी में सिर्फ संध्या और दीपक रह गये. गाड़ी को गोपाल ड्राइव कर रह था. वह इन दोनों की ओर से लापरवाह तीव्र गति से गाड़ी चलाते हुए फार्महाउस की ओर भागा जा रहा था. संध्या और दीपक अपने अपने विचारों में खोए हुए थे. संध्या के ख्यालों में राजीव था, वहीं दीपक के ख्यालों में संध्या थी.  अचानक खामोशी को भंग करने की कोशिश करते हुए दीपक धीमी आवाज में बोल पड़ा - "संध्या मुझे तुमसे एक बात कहनी है."

संध्या चौंक कर उसकी ओर देखने लगी. वह दीपक का अभिप्राय समझ चुकी थी, इसलिए झुंझलाती हुई थोड़ा कुपित स्वर में बोली -

"क्या कहना चाहते, यही न कि तुम मुझसे प्यार करते हो. ?"

संध्या की इस तल्ख़ बात को सुनकर जहां वह दंग रह गया वहीं उसके दिल को चोट भी लगी. वह आहत स्वर में बोला -"तुम गलत समझ रही हो संध्या, मुझे तुम से प्यार नहीं बल्कि सहानुभूति है." 

"यह कोई नयी बात नहीं है." संध्या के ओठों पर फीकी मुस्कान उभर आयी. -"मुझे अनाथ समझ कर सभी मुझसे सहानुभूति रखते हैं."

"ठीक है कि सभी को तुमसे सहानुभूति है, मगर मेरी सहानुभूति की वजह दूसरी है."

"क्या है तुम्हारी सहानुभूति की वजह.?" संध्या का दिल धड़कने लगा. कहीं दीपक को राजीव के साथ उसके कमरे में बीताए गए मधुर पल की जानकारी तो नहीं हो गयी.? नहीं.... नहीं.... ऐसा कैसे हो सकता है. उस मूसलाधार बारिश में दीपक बंगले में कैसे आ सकता है? वह सशंकित नजरों से दीपक की ओर देखने लगी.

"मैं तुम्हें अगाह करना चाहता हूं."

"किस बात के लिए?"

"तुम अंगारों पर चलने की कोशिश कर रही हो, धरती का तुक्ष्य प्राणी होकर  चांद को प्राप्त करने की चेष्टा कर रही हो." दीपक की इन बातों में छुपे ईर्ष्या भाव को संध्या सहज ही भांप गयी. और उसकी मनोदशा पर मन ही मन हंसने लगी. 


"देखो दीपक तुम जो समझ रहे हो, ऐसा कुछ नहीं है. मैं न तो राजीव से प्यार करती हूं और न ही तुम से. यदि मेरे लिए तुमने अपने दिल में कोई ग़लत धारणा बना रखी है तो उसे अपने दिल से निकाल दो." कहने को तो संध्या कह गयी मगर राजीव के साथ उसका जो रिश्ता बन चुका था उस सत्य को वह कैसे झूठला देती. उसके दिल से एक आह निकलने ही वाली थी कि उसे उसने बड़ी सख्ती से दिल में ही दबा लिया और अपनी वेदना को छुपाती हुई खिड़की से बाहर झांकती हुई पीछे छूटते जा रहे लखनऊ शहर की ओर देखने लगी. 

         ∆∆∆∆∆

क्रमशः........!

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