कहने को तो सावन आ गया, इस बार तो वैसे भी जल्दी ही आ गया। आलोकतांत्रिक परंपरा से — इससे पहले कि सावन के स्वागत की तैयारियाँ कर पाते — सावन घुसपैठियों की तरह घुस आया। ग़रीब की झोंपड़ियों में बहता चला गया और अपने साथ ग़रीबों के सपने और आशाएँ भी बहा ले गया।
यह वह सावन तो नहीं लगता जो कभी काव्य-रसिकों की कलम से गलबहियाँ करता हुआ आया करता था। जो जब फैलकर छा जाता था, तो मन-मयूर नाच उठते थे। जो विरहणी के मन की आग को बुझाने का निरर्थक प्रयास करते हुए अपनी प्रेमिल उपस्थिति दर्ज करवाता था। अब तो लगता है विरहिणी के मन में भी वह आग नहीं रही। थोड़ी बहुत आग लगी भी तो उसे बुझाने सावन की फरज़ी ई-मेल लेकर कई ‘सजनी के घर’ पर दस्तक देने आ गए हैं।
अब सावन भी आए न आए — क्या फ़र्क पड़ता है? उसकी सूचना कौन देगा? पपीहा और मोर ? वो सब तो मीडिया ने गोद ले लिए हैं, और लगा दिए हैं सत्ता के चरण-पादुका में 'राग दरबारी' गाने के लिए।
सच कहें तो सावन से डर-सा लगने लगा है। गाँव में भी अब वह पहले वाला सावन नहीं रहा। गाँव का सावन तो शहर ने पूरी तरह निगल लिया। कभी गाँव में ही सावन का असली इंतज़ार हुआ करता था। सावन आता भी था — बिना नागा, हर साल, अपने पूरे उल्लास के साथ। कभी धोखा नहीं दिया।बल्कि सावन की धमकी दी जाती थी –‘आने दो सावन को ,इस बार तुम बच न पाओगे गोरी ,झूला तो हमई झुलाएंगे तुम्हे ! ‘
साहूकार को दिलासा भी- ‘सेठ ,इस बार सावन अच्छा रहेगा देख लेना, फसल अच्छी होगी ,सारा कर्ज चूका दूंगा तुम्हारा ! ‘
पेड़ों पर झूले पड़ते थे, उन पर लंबे-लंबे झोंटे लेतीं हमारे पड़ोस और मोहल्ले की बालाएँ, जिनके एकतरफ़ा आकर्षण में हम दिन भर पेड़ों पर उनके एक इशारे भर से चढ़कर रस्सी डाल देते थे। उन्हें झूला दिलाने का काम बड़े मनोयोग से करते थे। गाँव के इक्के-दुक्के प्रेम-प्रसंग भी इन सावन के झूलों पर ही लंबी पींगे मारते थे।
अब तो गाँव का भी सावन सूख सा गया है। पेड़ की छाँव अब शराबियों और नशेड़ियों के अड्डे बन गए हैं। चरसियों और गांजियों की सूखी काया बिना झूले-पटरी के ही हवा में अटकलबाज़ियाँ खाती है।
शहर में सावन को ख़ुद डर लगने लगा है — आने पर जो हील-हुज्जत होती है उसकी ! कोई टका सेर भी नहीं पूछता यार । बस खुश होते हैं तो शहर के गड्ढे और नाले— उनकी सूखी आत्माएँ तृप्त हो जाती हैं।
आम आदमी तो अपनी छत के लीकेज को सँभालने में व्यस्त है। सावन जैसे उसका बजट बिगाड़ने के लिए आया है, उसके मज़े लेने के लिए आया है — बिल्कुल कोढ़ में खाज की तरह!
जो पैसा बच्चों की पढ़ाई के लिए सेव करके रखा था, उसे इस बार छत की मरम्मत में लगाना पड़ेगा। अगर छत बची रही, तो बेटे की शादी अगले साल टाल देंगे। घर में मेहमान आएँगे, कहीं बेटे का रिश्ता टपकती छत देखकर न टूट जाए!
सावन अब सिर्फ राहत-बजट को ठिकाने लगाने वालों के घरों तक सीमित रह गया है। आम आदमी तो सिर्फ इन अधिकारियों को रिश्वत की पटरी पर बैठाकर झोंटे लगाए जा रहा है, झूला झुला रहा है!
देखो तनिक गौर से ,सावन के बादल भी बदल गए हैं — ‘बदले-बदले से हैं हमारे सनम’, बिल्कुल दल-बदलू नेता की तरह। कभी आँख दिखाते हैं, कभी ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।
बादलों की गड़गड़ाहट भी डराने वाली हो गई है — आम आदमी को अंदर तक सिरहन पैदा कर दे रही है। ऐसा लगता है जैसे रात आठ बजे कोई नई घोषणा रेडियो और टीवी पर होने वाली हो! भाइयो और बहिनों..
बादलों के मन की बात भी डरावनी लगने लगी है। बादलों द्वारा की गई बारिश भी अब आश्वासनों की बारिश लगने लगी है। आम आदमी भीग तो रहा है, सावन थोडा खुश भी हुआ की चलो यार कोई तो है जो भीग रहा है ,मजबूरी में ही सही , चाहे लीक करती छत वाले या टूटी झोंपड़े वाले ! लेकिन ये क्या थोडा भीगा और शिकायत चालू कि यह बारिश उसे बीमार कर देगी।कह रहे हैं ‘यह सावन नजला-जुकाम का बहाना बनकर आएगी और हॉस्पिटल में पहुँचते ही न्यूमोनिया बन जाएगी।‘
अरे मित्र..आम आदमी को मरने के नए-नए तरीके ईजाद करके लाया है यह सावन। सिर्फ हॉस्पिटल में बीमारियों से ही क्यों मारे? फिर तुम सारा ठीकरा हॉस्पिटल की व्यवस्था पर फोड़ोगे?
इसलिए आओ — पुल के नीचे दबकर मरो, तहखानों में डूबकर मरो — यह नए मिज़ाज का सावन है मित्र !
तुम ने सावन का जो बिगाड़ा है ,उस पर भी तो गौर करो , सावन की खुशबू तुम्हारे कॉन्क्रीट के बंकर में कैद होकर दम तोड़ रही है। जिस सावन की बारिश से गुंथकर मिट्टी से सोंधी महक आती थी, वहाँ अब पार्किंग लॉट बना दिए है। कागज़ी पेड़ों की हरियाली में फोटो खिंचवाने वाली पीढ़ी क्या जानेगी असली सावन की नमी मित्र । इंस्टाग्राम पर बरसात की तस्वीरें डालकर जो 'रेन लवर्स' कहला रहे हैं, वे क्या जानेंगे कि सावन कभी सिर पर बोरी रखकर, स्कूल से लौटते बच्चों के चेहरे पर बहता चला जाता था। अब तुम भी सावन को सिर के ऊपर के छाते पर पर नहीं, फ़िल्टर की स्टोरी में टिकाने पर लगे हो — डिजिटल, डिफेक्टिव और दस्तावेज़ी सावन बना दिया है तुमने !
"अब ऐसे सावन का भला कौन इंतज़ार करेगा... अगर कहीं इसकी आहट सुनाई भी दे, तो वो बस ग़रीब की झोंपड़ी से टपकती छत, भीगी रोटियाँ और भीगी आँखों के संग यही पुकार सुनायी देगी —। ऐसा सावन अगर जल्दी चला जाए, तो ही अच्छा है ।"डॉ. मुकेश ‘असीमित’
हड्डियों का डॉक्टर
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