धारावाहिक उपन्यास 


- राम बाबू नीरव 

संध्या कुछ पल राजीव के निस्तेज आंखों में झांकती रही फिर बिछावन पर से उतर कर सेठ द्वारिका दास के निकट आकर पूरे आत्मविश्वास के साथ बोल पड़ी -"बाबू जी आप चिंता न करें आपके पुत्र राजीव बाबू ठीक हो जाएंगे." उसीसंध्या का ऐसा आत्मविश्वास देखकर सेठजी का दिल प्रसन्नता से उछलने लगा. माधव के साथ साथ नर्स और शान्ति भी हैरान रह गयी. सेठ द्वारिका दास भाव विभोर होते हुए बोल पड़े -"यदि ऐसा हो गया न बेटी तो मैं अपनी आधी दौलत तुम्हारे नाम कर दूंगा."

"नहीं...." संध्या कुपित हो उठी -"राजीव बाबू की जिन्दगी दौलत से नहीं खरीदी जा सकती है. उन्हें सेवा की जरूरत है. ऐसी सेवा जो सात्विक हो. सेवा दो तरहों की होती है, एक नि:स्वार्थ सेवा और दूसरी क्रय सेवा. अभी तक आप लोगों ने इन्हें क्रय सेवा प्रदान किया है. जिस सेवा का कुछ भी असर इन पर नहीं हुआ. परिणाम यह हुआ कि इनकी जीजिविषा मर गयी. इस नर्स को देखिए और शान्ति तथा माधव को देखिए ये सभी अपने अपने मुंह को ढंके हुए हैं. इन्हें भय है कि राजीव बाबू का रोग कहीं इन्हें भी न लग जाए. यह क्रम सेवा है, जिसमें संवेदना नहीं होती. वहीं अगर इन लोगों की जगह यदि राजीव बाबू की मां, बहन या पत्नी रही होती, तब वे लोग ऐसा नहीं करती." तभी संध्या रूक कर थोड़ा कंपित स्वर में बोली -"क्षमा कीजिएगा बाबू जी, मैं नहीं जानती कि राजीव बाबू की मां है या नहीं?"

"नहीं है, न मां है न बहन और‌ न ही पत्नी." चकित भाव से संध्या को घूरते हुए बोले सेठजी.

"तभी तो इनकी ऐसी हालत हुई है. इनके जैसे रोगी को मां, बहन अथवा पत्नी ही नि:स्वार्थ सेवा प्रदान कर सकती थी. शिशु जब भूख से बिलखने लगता है, तब उसकी चीत्कार सुनकर मां का हृदय तड़पने लगता है, परंतु किसी दासी पर कोई फर्क़ नहीं पड़ता. क्योंकि वह सिर्फ अपनी ड्यूटी निभा रही होती है. यही अंतर है नि:स्वार्थ सेवा और क्रय सेवा में."

"तुम्हारा नाम क्या है?" चमत्कृत भाव से एकटक संध्या की ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.

"जी संध्या."

"तुम इस धरती की नहीं लगती, किस लोक से आयी हो बेटी.?"

"जी, माफ कीजिए बाबू जी, मैं आपका मतलब नहीं समझ पाई." संध्या विस्मय से उनकी ओर देखने लगी.

"मतलब, मतलब पूछती हो तुम.?" द्वारिका दास जी के आंखों से हर्ष के आंसू टपकने लगे -"तुम्हारी जैसी लड़की क्या इस युग में ‌मिल सकती है.? मैं तुम से यह नहीं पुछूंगा कि तुम मेरे पुत्र की सेवा सुश्रुषा करोगी या नहीं. मैं तो तुम्हारे कृत्य को देखकर ही हैरान हूं. तुमने मेरे मरणासन्न पुत्र के मुंह से बह रहे लार को अपने आंचल से पोंछा. जिसे देखकर स्वयं मुझे घृणा हो रही थी. तुम महान हो बेटी. देवी हो, अपना रज-कण लेने दो." वे संध्या के कदमों में झुकने लगे. संध्या ने उन्हें बीच में ही थाम लिया. 

"यह क्या कर रहे हैं बाबू जी, फिर मुझ पर पाप चढ़ा रहे हैं.?"

"नहीं बेटी पुण्य बटोरना चाह रहा हूं, पापी तो मैं हूं....जो अपने बेटे को....!" 

"बस अब आप एक भी अपशब्द नहीं बोलेंगे." संध्या उनके मुंह पर अपनी हथेली रखती हुई रुष्ट स्वर में बोली -"आपने अभी अभी कहा कि मैं राजीव बाबू की सेवा करुंगी या नहीं! तो मेरा निर्णय सुन लीजिए, मैं इनकी सेवा करुंगी परंतु बिल्कुल नि:स्वार्थ भाव से. इस सेवा के बदले एक फूटी कौड़ी भी न लूंगी. मगर हां, भूख मिटाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़े तो अवश्य लूंगी." अंतिम बात कहते-कहते संध्या हंस पड़ी, मुक्त भाव से. मगर सेठ द्वारिका दास ने उसकी हंसी की ओर ध्यान नहीं दिया. वे अपलक इस अद्भुत लड़की को घूरे जा ‌रहे थे. 

"क्या हुआ बाबू जी, क्या आपको मुझ पर भरोसा नहीं है.?"

"तुम आज से यहीं रहोगी, इसी कॉटेज में. मुझे बताओ तुम्हें किस किस चीज की आवश्यकता पड़ेगी.?"

"किसी भी चीज की नहीं, यहां तो सभी चीजें मौजूद हैं ही." संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा.

"माधव...."

"जी मालिक." उनके पीछे से निकल कर माधव सामने आ गया. 

"बाहर मेरा पी ए खड़ा है, उसे बुलाकर लाओ."

माधव तेजी से बाहर निकल गया. संध्या और‌ शान्ति पी ए के बुलाने का कुछ‌ भी मतलब नहीं समझ पायी. वे दोनों एकटक द्वारिका दास की ओर देखती रह गयी. उधर नर्स संध्या के क्रिया कलापों को देखकर क्षुब्ध थी. उसे भय था कि कहीं सेठजी उसे नौकरी से न निकाल दें. कुछ ही देर में माधव के साथ सेठजी का पी ए अंदर आ गया और सेठ द्वारिका दास की ओर देखते हुए बोला -

"आपने मुझे बुलाया सर.?"

"हां.....! तुम अभी का अभी जाओ और किसी भी बैंक से दस लाख रुपये लेकर आओ, क्या चेकबुक लाए हो?"

"हां सर, स्टेट बैंक का है." पी ए ने ब्रीफकेस से चेकबुक निकाल कर सेठजी को थमा दिया. सेठ द्वारिका दास ने चेकबुक पर हस्ताक्षर करके उसे लौटाते हुए कहा -"रुपए लाकर संध्या बेटी को दे देना."

"ओ के सर." पी ए तेजी से पलटकर आईसीयू से बाहर निकल गया. संध्या हैरत से द्वारिका दास जी की ओर देखती हुई पूछ बैठी 

"बाबू जी इतनी बड़ी रकम किसके लिए मंगवाया आपने."

"तुम्हारे लिए नहीं मंगवाया, अपने बेटे के लिए मंगवाया है. आखिर मेरी पूरी दौलत उसकी ही तो है."

"लेकिन बाबूजी, वे तो.....!"

"वह कोमा में है, यही कहना चाहती हो ना."

"हां.....!"

"तुमने मेरे बेटे की सेवा करने का व्रत लिया है. आज के इस आर्थिक युग में इतनी बड़ी जिम्मेदारी तुम बिना पैसों के कैसे संभाल पाओगी."

"मैं पहले ही कह चुकी हूं....!"

"देखो बेटी बड़े बुजुर्गो से मुंह नहीं लगाया करते." द्वारिका दास थोड़ा उग्र होते हुए बोले -"आज से इस कॉटेज की मालकिन तुम हो. और जो रुपए मैं मंगवा रहा हूं, उन रुपयों की भी मालकिन तुम ही हो.... जैसे चाहो वैसे खर्च करना. मैं एक पैसे का भी हिसाब नहीं मांगूंगा. समझ गयी न."

"लेकिन.....!"

"बस....आगे प्रतिवाद नहीं."

"अरे यह कैसे हो गया." तभी इस आवाज को सुनकर सभी चौंक पड़े. अभी अभी आईसीयू में डा० के० एन० गुप्ता दाखिल हुए थे और उनकी दृष्टि अचेत पड़े राजीव की आंखों पर टिकी हुई थी. उनकी आवाज को सुनकर कुछ पल के लिए संध्या घबरा गयी. नर्स और शान्ति भी भौंचक थी. वहीं सेठ द्वारिका दास जी के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा -

"क्या हुआ गुप्ता."

"अनहोनी हो गया." डा० गुप्ता ने कुछ इस अंदाज में कहा कि संध्या के होश उड़ गये. वह डा० गुप्ता के सामने आकर रुआंसी आवाज में बोल पड़ी -"सर क्या कुछ ग़लत हो गया.?"

"नहीं संध्या बेटी, यहां तो चमत्कार हो चुका है."

"मैं कुछ समझी नहीं.!"

"देखो उधर." डा० गुप्ता सिटी स्कैन कैमरे के स्क्रीन की ओर इशारा करते हुए कहा -"वो आड़ी-तिरछी रेखाओं को देख रही हो....? वे सारी रेखाएं राजीव के मस्तिष्क की स्नायु की हैं. कल्ह तक इसके सारे स्नायु शिथिल थे. आज इसकी एक स्नायु सक्रिय हो चुकी है. मगर मेरी समझ‌ में नहीं आ रहा है कि आखिर यह चमत्कार किया किसने."

"मैं बताता हूं गुप्ता, यह चमत्कार इस लड़की ने किया है." सेठ द्वारिका दास डा० गुप्ता के सामने आकर आह्लादित स्वर में बोल पड़े. -"जो काम मैं राजीव का बाप होकर मैं न कर सका वह काम इस एक अनजान लड़की ने किया है. इसने अपने आंचल से राजीव के मुंह से बह रहे लार को पोंछा था."

"एक्सीलेंट, यही.... यही वजह है कि राजीव की चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी है." फिर डा० गुप्ता संध्या की ओर पलट गये -"सच सच बताओ संध्या तुम हो कौन?"

"मैं तो अपनी कहानी सुना चुकी हूं."

"लेकिन विश्वास नहीं होता." 

"गुप्ता, यह जो कोई भी है, मेरे बेटे के लिए देवी बनकर आई है. इससे कोई सवाल मत करो."

"ओके.... ओके डीके. मैं तो पहली नजर में ही इस लड़की के टैलेंट को पहचान गया था. यू आर जिनियस बेटी."

"थैंक्यू अंकल, लेकिन प्लीज़ मुझे इतना बड़ा सम्मान मत दीजिए." संध्या की आंखों में हर्ष के आंसू झिलमिलाने लगे. वह द्वारिका दास जी की ओर देखती हुई बोली -"बाबू जी, मैं आज की रात बुआ जी के साथ बिताना चाहती हूं. कल्ह मैं शान्ति और माधव भैया के साथ यहां आ जाऊंगी."ठीक है बेटी, तुम जैसा उचित समझो"

संध्या द्वारिका दास तथा डा० गुप्ता के चरण रज लेकर शान्ति और माधव के साथ बाहर निकल गयी. 

"वे दोनों आश्चर्य चकित से जाती हुई संध्या को इस भाव से देखते रहे जैसे वह कोई देवी हो.

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क्रमशः.......!

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