टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं, बल्कि प्रकृति का मौन प्रहरी है। किसान उसके अंडों की संख्या, स्थान और समय देखकर बारिश, बाढ़ या अकाल का अनुमान लगाते रहे हैं। विज्ञान भी मानता है कि ऐसे पक्षी “इकोसिस्टम इंडिकेटर” होते हैं, जो पर्यावरणीय बदलावों का पहले से संकेत दे देते हैं। आज शहरीकरण और रसायनों के प्रयोग से इनका आवास खतरे में है। यदि हम टिटहरी जैसे पक्षियों की चेतावनी अनसुनी कर देंगे, तो भविष्य में आपदाओं के प्रति हमारी संवेदनशीलता और भी घट जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि हम इन्हें बचाएँ और इनके संदेश को गंभीरता से सुनें।

---डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत का ग्रामीण जीवन सदियों से प्रकृति के साथ गहरे संवाद में रहा है। खेत, मौसम और जीव-जंतु मिलकर किसान की दिनचर्या और भविष्य दोनों को प्रभावित करते हैं। इन सबके बीच टिटहरी एक ऐसा छोटा-सा पक्षी है, जो सामान्य आँखों से मामूली दिखता है, लेकिन किसानों और लोकजीवन की स्मृतियों में यह मौसम की सटीक भविष्यवाणी करने वाला प्रहरी माना जाता है। यह केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि धरती और आकाश के बीच संवाद का माध्यम है, एक मौन दूत है जो संकट और समृद्धि दोनों की आहट पहले ही दे देता है।

ग्रामीण अनुभव बताते हैं कि टिटहरी का व्यवहार मौसम और कृषि की दिशा तय करने में अहम संकेत देता है। यदि वह चार अंडे देती है तो चार महीने अच्छी वर्षा होने का विश्वास किया जाता है। जब वह ऊँचाई पर अंडे देती है, तो लोग मानते हैं कि सामान्य से अधिक वर्षा होगी। यदि कभी वह मजबूरी में छत या पेड़ पर अंडे दे, तो यह भीषण बाढ़ का संकेत माना जाता है। वहीं, यदि वह अंडे न दे तो यह सबसे डरावनी स्थिति होती है, क्योंकि लोग इसे अकाल का दूत मानते हैं। किसान कहते हैं कि जिस खेत में टिटहरी अंडे देती है, वह खेत खाली नहीं रहता। वहाँ फसल ज़रूर होती है। इस तरह यह पक्षी न केवल वर्षा और मौसम से जुड़े संकेत देता है बल्कि उपजाऊपन और अकाल जैसी चरम स्थितियों की चेतावनी भी बन जाता है।

लोकजीवन में एक और मान्यता है कि टिटहरी का मृत शरीर कुरुक्षेत्र के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता। चाहे यह तथ्य हो या प्रतीकात्मक कल्पना, लेकिन यह विश्वास उसे जीवन और अस्तित्व की रक्षा का प्रतीक बना देता है। टिटहरी को देखने वाला किसान समझ जाता है कि यह पक्षी उसकी मिट्टी, फसल और भविष्य का पहरेदार है। यही कारण है कि ग्रामीण लोकगीतों और कहावतों में भी टिटहरी का उल्लेख मिलता है। यह उन जीवों में से है जिनकी गतिविधियों पर पीढ़ियाँ भरोसा करती रही हैं।

अब सवाल उठता है कि जब विज्ञान मौसम की भविष्यवाणी के लिए उपग्रह, राडार और कंप्यूटर मॉडल जैसे अत्याधुनिक साधन लेकर आया है, तब टिटहरी जैसे पक्षियों की भूमिका क्या रह जाती है। वास्तव में इसका उत्तर यही है कि विज्ञान और लोकअनुभव एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो टिटहरी जैसे पक्षी पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। हवा की नमी, तापमान का उतार-चढ़ाव, भूमि की नमी, जल स्तर का बढ़ना या घटना – इन सबका असर उनके व्यवहार पर पड़ता है। यही कारण है कि वैज्ञानिक भाषा में इन्हें “इकोसिस्टम इंडिकेटर” कहा जाता है। यानी ऐसे जीव जो अपने आचरण के माध्यम से हमें पर्यावरणीय बदलावों की समय रहते जानकारी दे देते हैं।

हमारे पूर्वजों ने विज्ञान के औज़ारों का सहारा लिए बिना ही इन संकेतों को अनुभव के आधार पर समझा और उनका लाभ उठाया। सदियों से किसान टिटहरी की गतिविधियों पर नज़र रखते आए हैं। अगर वह अंडे देने का समय टाल दे तो किसान पहले से ही सतर्क हो जाते थे। यदि वह ज़मीन छोड़कर ऊँचाई पर चली जाए, तो वे अधिक वर्षा और संभावित जलभराव को लेकर चौकन्ने हो जाते थे। इस प्रकार लोकानुभव ने जो बातें कही हैं, वे वास्तव में वैज्ञानिक कारणों से जुड़ी हुई हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि किसानों ने इन्हें अपनी भाषा और प्रतीकों में व्यक्त किया।

आज जब हम शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की चमक में डूबे हैं, तब सबसे बड़ा संकट यही है कि हमने प्रकृति की इस मौन भाषा को सुनना लगभग छोड़ दिया है। शहरों में रहने वाला इंसान यह नहीं जानता कि कब कोई पक्षी अपनी आदत बदल रहा है, कब उसकी संख्या घट रही है या कब उसका स्वर बदल रहा है। यही लापरवाही हमें अचानक आने वाली आपदाओं के सामने असहाय बना देती है। यदि हम टिटहरी और अन्य पक्षियों के संदेशों को गंभीरता से लें तो आपदा प्रबंधन की हमारी क्षमता कई गुना बढ़ सकती है।

टिटहरी के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह पक्षी खेत को कभी खाली नहीं छोड़ता। उसका वहाँ अंडे देना किसानों के लिए आश्वासन का प्रतीक है। यह विश्वास अपने आप में गहरा संदेश है कि प्रकृति मनुष्य को निराश नहीं करती, बशर्ते हम उसका सम्मान करें। लेकिन जब हम प्रकृति के नियम तोड़ते हैं, उसके साथ छेड़छाड़ करते हैं, तब उसके प्रहरी पक्षी भी अपने संकेत बदलने को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि कई बार बाढ़ या अकाल जैसी स्थिति का पूर्वाभास हमें टिटहरी के व्यवहार से पहले ही मिल जाता है।

इस पक्षी का महत्व केवल ग्रामीण जीवन तक सीमित नहीं है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन का हर रूप पर्यावरण के विशाल ताने-बाने से जुड़ा है। जब एक छोटा-सा पक्षी अपने अंडों के ज़रिए भविष्य की तस्वीर दिखा सकता है, तब यह हमारे लिए चेतावनी भी है कि हम इस तंत्र के साथ खिलवाड़ न करें। विज्ञान भी यही कहता है कि पर्यावरण में सूक्ष्मतम बदलाव का सबसे पहले असर पक्षियों और छोटे जीवों पर दिखाई देता है। यदि हम समय रहते उन्हें सुन लें, तो बड़ी त्रासदियों से बच सकते हैं।

संपादकीय दृष्टि से यह कहना उचित है कि टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं है। यह हमें यह समझाती है कि ज्ञान केवल प्रयोगशालाओं और उपग्रहों से नहीं आता, बल्कि खेत-खलिहानों और जीव-जंतुओं के आचरण से भी आता है। आधुनिक विज्ञान जहाँ आँकड़ों और तकनीक पर आधारित है, वहीं टिटहरी सहज संवेदना और प्राकृतिक जुड़ाव पर आधारित चेतावनी देती है। दोनों के बीच पुल बनाना ही आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

आज की स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न संरक्षण का है। यदि

टिटहरी जैसे पक्षी हमारे बीच से लुप्त हो जाएँगे तो न केवल लोकविश्वास टूट जाएगा, बल्कि पर्यावरणीय चेतावनी प्रणाली का एक अहम हिस्सा भी खो जाएगा। इसके संरक्षण के लिए हमें खेतों में अत्यधिक कीटनाशकों का उपयोग कम करना होगा, प्राकृतिक आवासों को सुरक्षित रखना होगा और जलस्रोतों को बचाना होगा। यह केवल एक पक्षी का संरक्षण नहीं होगा, बल्कि अपने भविष्य और अस्तित्व की रक्षा भी होगी।

निष्कर्ष यही है कि जहाँ विज्ञान आँकड़ों और मशीनों पर भरोसा करता है, वहीं टिटहरी जैसी पक्षियाँ सहज चेतावनी देती हैं। विज्ञान देर से अलर्ट करता है, लेकिन टिटहरी पहले से सावधान कर देती है। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हम इस मौन संवाद को सुनें और उसके अनुसार कदम उठाएँ। यदि हमने इस आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया, तो आने वाले समय में न केवल टिटहरी गायब हो जाएगी, बल्कि उसका दिया हुआ संदेश भी हमारे जीवन से खो जाएगा।

- डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट।

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