धारावाहिक पौराणिक उपन्यास
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- रामबाबू नीरव
यक्षपति कुबेर
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पुलत्स्य ऋषि के पुत्र थे विश्रवा ऋषि. वे धर्मात्मा, वेदज्ञ, तपस्वी, संयमी एवं तत्व मर्मज्ञ थे. उनकी प्रथम पत्नी का नाम देववर्णिणी* था. वेववर्णिणी महर्षि भारद्वाज की पत्नी थी. विश्रवा ऋषि को उनकी पत्नी देववर्णिणी के गर्भ से एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने गुणनिधि रखा. ऋषिपुत्र होने के नाते गुणनिधि को धर्मपरायण होना चाहिए था, परंतु हो गया ठीक इसका उल्टा. वह कुछ दिनों तक अपने पिता के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करता रहा, परंतु उसका मन विद्याध्ययन में नहीं लगा. वह कुछ लंपट युवकों की संगत में पड़कर कुकर्मी बन गया. उसे द्यूत क्रीड़ा की बुरी लत पड़ गयी. द्यूत क्रीड़ा के लिए तो धन चाहिए. फिर क्या था, धन प्राप्ति हेतु वह चोरी जैसा दुष्कर्म करने लगा. जब ऋषि विश्रवा को अपने पुत्र के कुकृत्यों की जानकारी हुई तब वे उस पर कुपित हुए और आवेश में आकर उसे आश्रम से निष्कासित कर दिया. आश्रम से निष्कासित कर दिए जाने के बाद भटकते भटकते गुणनिधि एक शिवालय में पहुंचा. शिवालय के पुजारी शिवजी के भक्त के साथ साथ दयालु भी थे. गुचनिधि केई दिनों का भूखा था. पुजारी ने उस पर दया करके न सिर्फ उसे भोजन कराया, बल्कि उसे मंदिर की देखभाल के लिए शिवजी के सेवक के रूप में रख लिया. शिवभक्त पुजारी जी के सान्निध्य में रहते रहते गुणनिधि भी शिवजी का परम भक्त बन गया. पुजारी जी उसे शिवजी की महिमा और उनकी उदारता की कहानियां सुनाया करते. उन कहानियों को सुनकर उसके मन में भी कुछ बनने की अभिलाषा उत्पन्न हुई. जब वह एकांत में होता तब सोचने लगता -"मेरे पिताजी इतने बड़े ऋषि हैं और मैं कुकर्मी कैसे बन गया? मैं भी कुछ न कुछ बनकर दिखलाऊंगा." अपने मन में दृढ़ निश्चय करके वह एक मध्यरात्रि में शिवालय का परित्याग कर हिमालय पर्वत की ओर चला गया और वहां पहुंच कर एक एकांत स्थान पर अपने आराध्य भगवान भोलेशंकर की तपस्या में लीन हो गया. अनन्त काल तक वह तपस्या में लीन रहा.
गुणनिधि की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान भोलेशंकर प्रकट हुए और उसे वर मांगने को कहा. चूंकि गुणनिधि को धन की अधिक चाह रहा करती थी इसलिए उसने भोले शंकर से धनपति बना देने का वर मांगा. औघर दानी भगवान भोलेशंकर ने "तथास्तुऽ" कहकर उसे मनचाहा वरदान दे दिया. इसके साथ ही उसे उत्तर दिशा का दिक्पाल भी बना दिया. गुणनिधि की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि थी. जो गुणनिधि कभी जुएरी और चोर हुआ करता था, वह अब देवताओं के धन का रक्षक बन गया. ऋषि विश्रवा का कुकर्मी पुत्र गुणनिधि अब भगवान भोलेशंकर की कृपा से अब धनपति कुबेर के नाम से विख्यात हो गया. अपने पुत्र की इस उपलब्धि पर विश्रवा ऋषि को हार्दिक प्रसन्नता हुई.
उन्हीं दिनों देवासुर संग्राम में असुरों के नायक हिरण्यकश्यप तथा उसके छोटे भाई हिरण्याक्ष की देवताओं (भगवान विष्णु) के हाथों मृत्यु हो गयी. इन दोनों भाइयों की मृत्यु के कारण असुर कमजोर पड़ गये. अब देवताओं ने आर्याभूमि भारत से असुरों खदेड़ना आरंभ कर दिया. उन दिनों लंका भी असुरों के अधीन था. देवताओं के भय से सारे असुर (दैत्य, दानव और राक्षस) लंका छोड़कर भाग गये. इसी लंका में असुर पति हिरण्यकश्यप ने उस स्वर्ण भंडार को छुपाकर रखा हुआ था, जिसके लिए देवासुर संग्राम हुआ. इस बात की जानकारी न तो देवों को थी और न ही असुरों को. अफरातफरी में सारे असुर उस स्वर्ण भंडार को लंका में ही छोड़कर भाग गये. असुरों में से कुछ राक्षस लंका में ही रह गये. ये राक्षस साधारण नागरिक थे. अतः इन्हें उस स्वर्ण भंडार का कुछ भी ज्ञान न था. काफी दिनों तक लंका नगरी निरापद, वीरान और निर्जन पड़ी रही. इस नगरी को निरापद, निर्जन देखकर यक्षों ने यहां आकर अपना बसेरा बना लिया. जब संयोग से विश्रवा ऋषि के पुत्र धनपति कुबेर (गुणनिधि) भगवान भोलेशंकर की महती कृपा से देवताओं की धन-संपदा के संरक्षक बना दिए गये तब देवताओं ने मिलकर उन्हें सूनसान पड़ी हुई लंका नगरी का अधीश्वर भी घोषित कर दिया. भगवान भोलेशंकर के निर्देश पर लंका के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी देवताओं के वास्तुशिल्पी भगवान विश्वकर्मा को सौंपी गयी. धनपति कुबेर जो अब धनेश कुबेर के नाम से विख्यात हो चुके थे, भगवान विश्वकर्मा के साथ लंका पधारें. लंका के पुनर्निर्माण के दौरान कुबेर को असुरों द्वारा छुपाकर रखा गया वह अतुल स्वर्ण भंडार मिला, जो वास्तव में असुर नायक हिरण्यकश्यप का था. उसी समय से लंका "सोने की लंका" तथा हिरण्यकश्यप का स्वर्ण भंडार "कुबेर का खजाना" के नाम से विख्यात हो गया. देवताओं के कुशल वास्तुशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने न सिर्फ लंका की काया पलट दी बल्कि एक अद्भुत विमान का भी निर्माण किया जिसका नाम पड़ा "पुष्पक विमान"* यह यह अद्भुत विमान स्वर्ण के समान कान्तिमय, अनेक प्रकार के सुगंधित पुष्पों से आच्छादित तथा पुष्प पराग से भरे हुए पर्वत शिखर के समान शोभित था. आकाश में विचरण करते समय यह विमान श्रेष्ठ हंसों द्वारा खिंचा जाता हुआ सा प्रतीत लगा करता था. इस विमान में भांति भांति के रत्नों से अद्भुत सर्पों की आकृतियां बनाई गई थी. उन सर्पों की शोभा निराली थी. इस विमान में अच्छी प्रजाति के सुन्दर और सुगठित अंगवाले अश्व भी बने थे. पृथ्वी पर उतरने के बाद जब ये अश्व विमान को खिंचते तब यह एक दिव्य रथ बन जाता. विमान पर सुन्दर पंख वाले पक्षियों के अनेकों विहंगम चित्र भी ने थे, जो एकदम से कामदेव के सहायक दिख पड़ते थे. इस विमान की संरचना सोने, स्फटिक, पन्ना, हीरे-जवाहरात आदि रत्नों से की गयी थी. विमान के खंभे सोने के थे, जिसपर हीरे-जवाहरात तथा स्फटिक की नक्काशी की गयी थी. यह विमान सभी ऋतुओं में आराम दायक था. पुष्पक विमान आवश्यकतानुसार अपनी आकृति छोटा या बड़ा बना सकता था. इसके अतिरिक्त यह विमान मन की गति से चला करता था. इस अद्भुत और अलौकिक विमान को पाकर धनपति कुबेर फुले ने समाये. तीनों लोकों में ऐसा अद्भुत विमान न तो किसी देवता के पास था, दानव और न ही किसी राजा के पास. देवताओं ने अब धनेश कुबेर को लंकाधीश कुबेर घोषित कर दिया. लंकापति बनते ही कुबेर ने यत्र-तत्र छितराए हुए यक्षों, गंधर्वों, किन्नरों, नागरिकों आदि जातियों को अपनी लंका में बसा कर एक मजबूत संगठन बनाया. चूंकि इस संगठन में यक्षों की संख्या अधिक थी, इसलिए इसका नाम रखा गया यक्ष-संस्कृति. इस संस्कृति के संस्थापक और नायक स्वयं कुबेर थे, इसलिए वे यक्षपति के रूप में सम्मानित हुए. धनेश कुबेर द्वारा स्थापित यह यक्ष-संस्कृति आर्य संस्कृति (सनातन धर्म) की ही एक इकाई थी. इस संस्कृति को त्रिदेव (आदिदेव) ब्रह्मा विष्णु और महेश का समर्थन और संरक्षण प्राप्त था. देवराज इन्द्र भी यक्षपति कुबेर के सहायक थे. जब कुबेर पूर्णरूपेण लंका में व्यवस्थित हो गये, तब उनके पिता विश्रवा ऋषि ने उनका विवाह सूर्य और उनकी पत्नी छाया की पुत्री भद्रा के साथ कर दिया. लंकापति कुबेर को अपनी पत्नी भद्रा के गर्म में दो पुत्रों की प्राप्ति हुई. प्रथम पुत्र का नाम था नलकुबेर और दूसरे का मणिग्रीव. कुबेर के ये दोनों लंपट स्वभाव के थे. धन के मद में चूर होकर इन दोनों ने एकबार देवर्षि नारदजी का अपमान कर दिया.
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*कहीं कहीं विश्रवा ऋषि की प्रथम पत्नी का नाम इडविडा भी देखने को मिलता है.
*देवताओं द्वारा निर्मित विमानों की चर्चा ऋग्वेद में भी कुछ स्थानों पर की गई है. इससे यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल से ही आर्यावर्त में विज्ञान काफी उन्नत और सम्पन्न यह होगा. हमारे ऋषि-मुनि ही सिद्धहस्त वैज्ञानिक भी रहे होंगे, इसमें संदेह नहीं.
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क्रमशः ........!
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